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‘एनिमल’ फिल्म की कामयाबी का रहस्य

‘एनिमल’ का नायक जिस कल्पना लोक का है, वह कल्पना लोक किसी भी वीडियो गेम की पृष्ठभूमि बनने के बिल्कुल करीब है. और, वीडियो गेम खेलने वालों का समाज से जो नाता टूटा है, उसके जिम्मेदार कहीं न कहीं वह पीढ़ी भी है, जिसका अपने घर के बच्चों से संवाद या तो दिखावटी है या
है ही नहीं.

साहित्यिक अभिरुचि वाले तमाम समीक्षकों के निशाने पर रही फिल्म ‘एनिमल’ घरेलू बॉक्स ऑफिस पर 500 करोड़ रुपये की नेट कमाई करने में कामयाब हो गयी है. इतना रुपया सिर्फ देश के सिनेमाघरों से कमाने वाली यह चौथी हिंदी फिल्म है. दिलचस्प पहलू इस कमाई का यह है कि ये चारों फिल्में- ‘पठान’, ‘गदर 2’, ‘जवान’ और ‘एनिमल’ इसी क्रम में इसी साल रिलीज हुई हैं. चारों में हिंसा का बोलबाला है. और, इनमें से तीन पिता-पुत्र के रिश्तों पर आधारित हैं. लेकिन बहस ज्यादा ‘एनिमल’ को लेकर हो रही है. समाजशास्त्रियों को चिंता यह है कि यह फिल्म भारतीय पुरुष की छवि बिगाड़ रही है. इन समीक्षकों में से अधिकतर वे लोग हैं, जिन्हें अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी फिल्में कालजयी दिखती हैं और ऐसे तमाम लोग अकीरा कुरोसावा, क्वेंटिन टैरेंटिनो और गाय रिची जैसे उन फिल्मकारों को महान बताने में संकोच नहीं करते, जिनकी फिल्मों में हिंसा का अतिरेक रहा है.

फिर भी ‘एनिमल’ को देख कौन रहा है? इस प्रश्न में ही समाजशास्त्रियों की चिंताओं का उत्तर है. सिनेमा शुरू से समाज का प्रतिबिंब रहा है. खबरों में भले ये आता रहता हो कि फलां फिल्म देखकर किसी अपराधी ने अपराध की योजना बनायी, लेकिन इसका विपरीत इससे अधिक होता रहा है. फिल्मकारों ने खबरें देखकर खूब फिल्में बनायी हैं और इन दिनों तो ओटीटी पर दौर ही लिखे हुए को फिल्माने का ज्यादा चल रहा है. खैर, यह फिल्म रिकॉर्ड कमाई करेगी, इसका संकेत मुझे उसी दिन मिल गया था, जब टी सीरीज के थियेटर में इसका ट्रेलर मैंने इसकी रिलीज से एक दिन पहले देखा. ट्रेलर के शुरू में पिता-पुत्र का संवाद दो पीढ़ियों के बीच के विचारों का द्वंद्व है. कहीं भी किसी कालखंड में कम से कम चार पीढ़ियां एक साथ रह रही होती हैं. सबसे बुजुर्ग और सबसे कम उम्र की पीढ़ी को हटा दें, तो बीच की दो पीढ़ियां समाज और घर चलाती हैं. पिछले आठ-दस साल में वयस्क हुई पीढ़ी से लेकर बीते साल-दो साल में वयस्क हुई पीढ़ी, यानी मौजूदा दौर के 18 से 28 साल के युवाओं की फिल्म है ‘एनिमल’. इस पीढ़ी से संवाद न करने वाले समीक्षकों और लेखकों को यह फिल्म हिंसक, क्रूर और वहशी भी लगेगी. इसीलिए शायद फिल्म का नाम भी ‘एनिमल’ है. ‘जानवर’ नाम से भी हिंदी फिल्में बन चुकी हैं. और, मनुष्य और पशु के बीच का अंतर धर्मग्रंथों में जो भी हो, लेकिन मनुष्य के एक सामाजिक प्राणी होने की बात बार-बार कही जाती है.

मुद्दा एक सामाजिक प्राणी के असामाजिक हो जाने का है. समझना यह जरूरी है कि युवा पीढ़ी अपना समय कैसे बिताती है? वह वीडियो गेम खेलती है. पीएस4 और पीएस5 की बिक्री के आंकड़े देखेंगे तो पता चलेगा कि नव धनाढ्य युवकों में यह सबसे लोकप्रिय इलेक्ट्रॉनिक गेमिंग उपकरण है. दुनियाभर में वीडियो गेम का कारोबार सिनेमा के कारोबार से ज्यादा बड़ा है. वीडियो गेम उद्योग में भारत दूसरे देशों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता, जबकि परदे और दिमाग का इससे बेहतर समन्वय युवा पीढ़ी के पास फिलहाल दूसरा नहीं है. कानों में हेड फोन लगाये, हाथ में वीडियो गेम कंट्रोलर थामे, अपने-अपने घरों में बैठे इंटरनेट के जरिये संवाद करते ये युवा एक साथ एक ही गेम खेलते हैं. इस दौरान जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह बड़ों के लिए सुनना वर्जित है. और, इन वीडियो गेम में होता क्या है? अकेले या टीम बनाकर अधिक से अधिक लोगों को मारना! ‘एनिमल’ में ऐसा ही एक खेल नायक रण विजय सिंह खेल रहा है. वीडियो गेम में एक काल्पनिक संसार रचा जाता है. संदीप रेड्डी वंगा ने ‘अर्जुन रेड्डी’, ‘कबीर सिंह’ और ‘एनिमल’ में इसी काल्पनिक संसार का विस्तार बड़े परदे पर किया है. ‘एनिमल’ इसी वीडियो गेम जेनरेशन की फिल्म है. वयस्क दोस्तों के साथ देखी जा सकने वाली यह फिल्म एक असामाजिक नायक की कहानी के बहाने एक ऐसा नया सामाजिक प्रयोग है, जिसमें इसके रचयिता सफल हो चुके हैं.

‘एनिमल’ का विरोध हिंदी सिनेमा के नायकों की अब तक चली आ रही परंपरा को ध्वस्त कर देने के लिए भी हो रहा है. कई दृश्य इस कथित ‘अल्फा मेल’ को समाजद्रोही बताने के लिए गिनाये जा रहे हैं. यही नायक प्रेम प्रकट करते समय नायिका के पैर पर हाथ धरे हुए है. करवा चौथ के दिन अपनी पत्नी को परावैवाहिक संबंध के बारे में स्पष्ट रूप से बताता है. ‘एनिमल’ का नायक जिस कल्पना लोक का है, वह कल्पना लोक किसी भी वीडियो गेम की पृष्ठभूमि बनने के बिल्कुल करीब है. और, वीडियो गेम खेलने वालों का समाज से जो नाता टूटा है, उसके जिम्मेदार कहीं न कहीं वह पीढ़ी भी है, जिसका अपने घर के बच्चों से संवाद या तो दिखावटी है या है ही नहीं. वयस्क हो चुके बेटे से दैहिक रिश्तों के दौरान सावधानियों के बारे में और वयस्क हो चुकी बेटी से उसकी पसंद के वर के बारे में बातें न कर सकने वाली पीढ़ी को यह फिल्म शर्तिया ‘सामाजिक विचलन’ ही दिखेगी. लेकिन, कला वही है, जो समाज में विचलन पैदा कर सके. सीजर ए क्रूज ने कहा भी है, ‘कला वही है जो विचलित को शांत कर सके और शांत को विचलित.’ (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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