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संताल में आया था ऐसा काल : जो जहां था, वहीं ठहर गया, यहां दफन हैं सैंधव से भी पुरानी सभ्यता के प्रमाण

विशेषज्ञों का दावा है कि संताल परगना जीवसृष्टि का आदिस्थल है. यहां कभी ऐसा काल आया था कि जो जहां था, वहीं ठहर गया और जीवाश्म में तब्दील हो गया. कालांतर में पाषाण युग का आगाज भी यहीं हुआ. संताल परगना कभी बौद्ध वज्रयान उपासकों की साधना का केंद्र था. राजमहल के कांकजोल में गौतम बुद्ध ने उपदेश दिया था.

दुमका, आनंद जायसवाल: संताल परगना की धरती और पहाड़ियां पुरानी सभ्यता के प्रमाणों को अपने में समेटे हुए हैं. अध्ययन में पाया गया है कि यहां सैंधव सभ्यता से भी पुरानी सभ्यता कभी विकसित हुई थी, जाे धरती के गर्भ में समा गयी. जीव-जंतुओं के जीवाश्म भी मिले हैं, जो इस बात के प्रमाण दे रहे हैं कि यहीं की सभ्यता सुप्राचीन है. कदम-कदम पर यहां रहस्य-रोमांच व कौतुहल भरे हैं. कहीं पहाड़ खोखले हैं, तो कहीं धरती, कहीं पाषाण युग के उपकरण मिलते हैं, तो कहीं रंग-बिरंगे पत्थर. कहीं गुफा में चित्र बने हैं, तो कहीं नदी के गर्भ में समाहित कलात्मक पत्थर मिल जाया करते हैं. पुराना अंग क्षेत्र और आज के दुमका जिले में धोबय नदी के किनारे से आरंभ होकर गोड्डा, साहिबगंज व पाकुड़ तथा बिहार राज्य के बांका जिले में अब तक उस पुरानी सभ्यता के साक्ष्य मिले हैं. पुरातत्वविद पंडित अनूप कुमार वाजपेयी दावा करते हैं कि सैंधव सभ्यता कभी इस क्षेत्र के गोद में पल रही थी. उनका दावा है कि बड़े भूकंप ने ऐसी सभ्यता को लील लिया था, जिस वजह से उस सभ्यता के नगर व गांव दफन हो गये. उस सभ्यता में रहनेवाले लोगों के घरेलू उपयोग के जीवनयापन की अधिकांश सामग्री मिट्टी की थी. लोग वस्त्र पहनते थे, खेती करते थे. पशुपालन भी किया जाता था. इसके साक्ष्य को साहिबगंज जिला के राजमहल जैसे चाइना क्ले की खदानों के अलावा दुमका व गोड्डा जिले के विभिन्न इलाके से प्राप्त किया गया है. ओसलो के इथोलाॅजिकल म्युजियम में इसी संताल परगना के लगभग 3000 पुरावशेष रखे हुए हैं.

आज जिस संताल परगना को हम देख रहे हैं, उस इलाके में कभी बौद्ध अनुयायियों की भी बड़ी संख्या हुआ करती थी. बौद्ध धर्म मानने वाले वज्रयान परंपरा के उपासकों के लिए साधना की यह स्थली थी. कुछ इतिहासकार इस इलाके में जगह-जगह मिलने वाले षोड्शपदमचक्र को इस बात का प्रमाण मानते हैं. 1200 ईस्वी तक इस इलाके के हिस्से तीन भाग में बंटे दिखते थे, इनमें एक तो राजमहल से लखीसराय तक अंग, वर्धमान की तरफ राधा और हजारीबाग की ओर शुंभ के तौर पर जाना जाता था. आज तारापीठ के बगल में जिस मलूटी मंदिर समूहों की चर्चा टेरोकोटा शैली के मंदिरों के लिए होती है, वहां पूजित की जानेवाली मां मौलिक्षा की प्रतिमा भी वज्रयान से जुड़ी हुई मानी जाती है. मलूटी, पंचवहिनी से लेकर आज के काठीकुंड तक तथा गोड्डा, साहिबगंज जैसे इलाके में बौद्ध वज्रयान उपासकों की साधना का केंद्र में था. गंगा के किनारे तेलियागढ़ी पहाड़ी तो बौद्ध मतावलंबियों का प्रमुख केंद्र भी बन गया था. कहा तो यह भी जाता है कि राजमहल के पास कांकजोल में खुद गौतम बुद्ध का भी आगमन हुआ था और वहां उपदेश दिया था. इस अंग क्षेत्र 1202-03 में जब बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालस को नष्ट किया, तब बौध धर्म के वज्रयान शाखा के इस महत्वपूर्ण केंद्र के नष्ट होने का प्रभाव आसपास के इलाकों में भी खूब पड़ा. यहां के बौद्ध अनुयायी तब तिब्बत, नेपाल की ओर रुख कर गये थे.

प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग बौद्ध ग्रंथों में मतभेद और भ्रम के कारण भारत जाकर मूल पाठ का अध्ययन करने का निश्चय किया था. वह जब हर्षवर्द्धन के शासनकाल में भारत आया और बौद्ध ग्रंथों के साथ-साथ अन्य चीजों का अध्ययन शुरू किया, तो इस दौरान इसने 645 ई में इस इलाके का भी दौरा किया था. ह्वेनसांग ने साहिबगंज के तेलियागढ़ी की भी चर्चा अपने यात्रा वर्णन सी-यू-की में की है. बाद में जेनरल कलिंघम ने उसे तेलियागढ़ी का किला ही माना है. कहा जाता है कि उस वक्त तेलियागढ़ी के फलकों पर संत, बुद्ध और देवताओं की आकृतियां उकेरी हुई थी. इनमें से कुछ को आसपास के इलाकों में ले जाये जाने की चर्चा की जाती है. वहीं ईसा पूर्व यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी इस क्षेत्र का भ्रमण किया था. उसने पाया था कि इस क्षेत्र में तब माली लोग रहते थे और यही वह इलाका था, जहां से सबसे ज्यादा हाथियों की उपलब्धता थी. चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में इसी इलाके से हाथियां उपलब्ध करायी जाती थी.

विशेषज्ञों का दावा

  • जीवाश्म का विशाल भंडार

प्रख्यात वनस्पतिशास्त्री बीरबल साहनी ने राजमहल की पहाड़ियों में एक फॉसिल ”पेंटोज़ाइली” की खोज की थी. उनका मानना था कि राजमहल की पहाड़ियों में प्राचीन वनस्पतियों के जीवाश्मों का विशाल भंडार है.

  • दक्षिण अफ्रीका से है संबंध

विशेषज्ञ का दावा है कि राजमहल के इलाके में मिलनेवाले ऐसे जीवाश्म ठीक उसी कालखंड के हैं, जिस कालखंड के जीवाश्म दक्षिण अफ्रीका में मिलते हैं. 30 करोड़ साल पहले दक्षिण अफ्रिका के पहाड़ व राजमहल पहाड़ियां एक थीं.

  • गंगा से पुरानी नदियाें का जिक्र

कुछ स्थापित मान्यता के अनुसार राजमहल की पहाड़़ियां, हिमालय पहाड़ से तथा यहां के पहाड़ी, झरने व निकलनेवाली नदिया गंगा-यमुना-सरस्वती जैसी विशाल नदियों से भी पुरानी है. जल के कारण विकास हुआ.

  • ईसा पूर्व मालियों के रहने का प्रमाण

यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी इस क्षेत्र का भ्रमण किया था. उसने पाया था कि यहां तब माली लोग रहते थे. यहां से हाथियों की उपलब्धता थी. चंद्रगुप्त के शासनकाल में इसी इलाके से हाथियां उपलब्ध करायी जाती थी.

  • ह्वेनसांग के यात्रा वर्णन में है जिक्र

ह्वेनसांग ने तेलियागढ़ी की भी चर्चा अपने यात्रा वर्णन सी-यू-की में की है. बाद में जेनरल कलिंघम ने उसे तेलियागढ़ी का किला ही माना है. तेलियागढ़ी के फलकों पर संत, बुद्ध और देवताओं की आकृतियां उकेरी हुई थी.

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संताल परगना में अब तक मैंने खोज व शोधपरक अध्ययन के दौरान पाया है कि यहां आदिमानवों के विभिन्न अवयवों के जीर्णशीर्ण जीवाश्म, पत्थरों में समाहित मानव पदछापे, पशु-पक्षी व जलीय जीवों के जीवाश्म पाये जा रहे हैं, ऐसे में निसंदेह यह कहा जा सकता है कि जीवसृष्टि का आदिस्थल है आज का संताल परगना. यहां कभी ऐसा काल आया था कि जो जहां था, वहीं ठहर गया और जीवाश्म में तब्दील हो गया. कालांतर में फिर से एक नयी सभ्यता का अभ्युदय हुआ, जो पल्लवित-पुष्पित हुई. पाषाण युग का आगाज भी यहीं हुआ. मुझे व्यापक पैमाने पर जीवाश्मों के अलावा पाषाण उपकरण मिले हैं और धरती के गर्भ में समाहित ग्राम-नगर के अवशेषों की संताल परगना सहित अंग क्षेत्र में मैंने खोज की हैं. साक्ष्य इक्कट्ठा किया है. इन सबों को वैश्विक स्तर पर लाने के लिए वैज्ञानिक तरीके से कालगणना की आवश्यकता है, ताकि पूरी दुनिया के शोधार्थियों और पर्यटकों को यह क्षेत्र आकर्षित कर सके, मगर इन सबके पूर्व आवश्यकता है पहाड़ियों-जीवाश्मों के संरक्षण की और व्यापक खोजी अभियान चलाकर प्रस्तर औजार सहित मिलनेवाले तमाम पुरावशेष को संकलित करने की, तब ही इस क्षेत्र के वास्तविक तथ्यों को इतिहास की पुस्तकों में जगह मिल सकती है. – अनूप कुमार वाजपेयी.

पालवंश के दौरान दुमका के पास कुजवती थी राजधानी
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पालवंश के शासक रामपाल की मृत्यु के बाद पाल शासकों का साम्राज्य तीन हिस्से में बंट गया था. जानकार बताते हैं कि सूरपाल तृतीय ने अपनी राजधानी जिस इलाके में बनायी थी, वह कुजवती थी, जो दुमका से 14 माइल की दूरी पर उत्तर-पूर्व दिशा की ओर है. इतिहासकार डॉ सुरेंद्र झा ने अनुसंधान में पाया है कि कुजवती का इलाका और दूसरा नहीं, बल्कि काठीकुंड का गंधर्व गांव के समीप था. इन्हीं वजहों से वहां के देवधरा पहाड़ के आसपास कई तरह के शिलाखंड मिलते हैं. ऐसे ही तराशी गयी पत्थर की आकृतियां-शिलाखंड पंचवाहिनी, देवधरा, दानीनाथ मंदिर, शिवनगर मंदिर व शुंभेश्वरनाथ मंदिर के अलावा सबालक की पहाड़ियों में बिखरी दिखतीं हैं. इससे तो बस यही कहा जा सकता है कि यह पूरा का पूरा ईलाका मंदिर-मठों के निर्माण के लिए पत्थरों को तराशनेवाले शिल्पकारों का भी केंद्र था, जो अपनी मेहनत को सही आकार न दे सकें और उन प्रस्तरखंडों को जोड़कर मंदिरों का निर्माण न कर सकें. कहीं इसकी वजह उस दौर में बख्तियार खिलजी का पास के इलाकों में किया गया आक्रमण या इलाके में आयी किसी ऐसी त्रासदी तो नहीं थी, जिससे मंदिर-मठों के निर्माण के इतने वृहत स्तर पर किये गये प्रयासों को पूरा ही नहीं होने दिया. बहरहाल यह अध्ययन व शोध का विषय है, जिसपर इतिहासकारों व शोध संस्थानों को काम करने की जरूरत है.

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