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हिंदी कहानी : अधजगी रातों के सपने

किसी ने कानों के पास आकर फुसफुसाया, वही आवाज हाँ बिल्कुल वही आवाज… उसके स्पर्श को वो आज तक पहचानती थी. उसके देह की खुश्बू को वो लाखों में पहचान सकती थी. लेडीज वॉशरूम में किसी पुरुष के होने की कल्पना से ही वह सिहर गई.

अनु ने रेलवे स्टेशन पर नज़र दौड़ाई, दो-चार यात्रियों के अलावा कोई नहीं था. छोटा सा स्टेशन था गिनती की गाड़ियां रुकतीं थीं. उसकी ट्रेन भी इसी स्टेशन से मिलनी थी,डायरेक्ट कोई ट्रेन नहीं थी.चेहरा अजीब सा हो रहा था,अपनी ट्राली वाली अटैची और एयर बैग को खींचते वह वेटिंग रूम तक आ गई. वेटिंग रूम सुनसान पड़ा था ट्रेन एक घंटे बाद मिलनी थी,तब तक फ्रेश हो जाती हूँ, अनु ने अपने आप से कहा… ट्रेन का वॉशरूम के प्रयोग से वह हमेशा बचती थी. उसने एयर बैग से वैनिटी बॉक्स और तौलिया निकाली और वॉशरूम की ओर बढ़ गई.

हल्के अंधेरे में किसी ने उसकी बाजुओं को अपनी उंगलियों से जकड़ लिया.

“कैसी हो अनु ?”

किसी ने कानों के पास आकर फुसफुसाया,वही आवाज हाँ बिल्कुल वही आवाज…उसके स्पर्श को वो आज तक पहचानती थी.उसके देह की खुश्बू को वो लाखों में पहचान सकती थी. लेडीज वॉशरूम में किसी पुरूष के होने की कल्पना से ही वह सिहर गई. चेहरे पर लगे फेस वॉश की वजह से वह मजबूर थी उसने आँखों को खोलने की कोशिश की एक धुंधली सी आकृति उसके ठीक पीछे दिखाई दी. उसने जल्दी से अपने चेहरे को धुला और तेजी से पलटी.उसके पैर लड़खड़ा गए. उस आकृति ने अपने मजबूत हाथों में उसे पकड़ लिया. उसका ढीला जूड़ा झटके से पलटने की वजह से खुल गया. दरवाजे से आती हवा उसके बालों को सहला गई और उसके सारे बाल उस आकृति के चेहरे पर बिखर गये..

“तुम आज भी खुले बालों में बहुत सुंदर लगती हो .”

अतुल! …ये तो अतुल था. इतने सालों बाद…इस सुनसान रेलवे स्टेशन पर जहाँ गिनती की दो-चार ट्रेन रुकती थी. वो यहाँ क्या कर रहा था.वो एक सेमिनार से लौट रही थी, डायरेक्ट ट्रेन नहीं थी यहाँ से घर जाने के लिए उसे दूसरी ट्रेन पकड़नी थी.एक घंटे का अंतर था दोनों में… उसने जल्दी से पानी के छींटे अपने चेहरे पर मारे,अब सब साफ़-साफ़ नज़र आने लगा था.साफ़ साफ़…

“तुम!”

“कैसी हो अनु?तुम्हारे गोरे चेहरे पर काली बिंदी आज भी उतनी ही सुंदर लगती है.”

अतुल ने माथे से सरक आई बिंदी को ठीक करते हुए कहा था,

“काली बिंदी…सुहागन स्त्री कहाँ लगाती हैं?”

उसकी सास ने उसे कितनी बार टोका था, माँ के मुँह से भी सुना था पर न जाने क्यों वर्षों बाद भी उसका मोह क्यों नहीं छोड़ पाई थी. कुछ अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ते वे तो धमनियों में रक्त की तरह अनंत यात्रा पर बस चलते ही रहते हैं. याद है उसे आज भी वह दिन…क्लासेज खत्म हो गई थी सब घर जाने की तैयारी कर रहे थे. अतुल ने पीछे से आकर उसे चौंका दिया था.

“आँखे बंद करो.”

“ये कैसा बचपना है.”

अनुपमा ने चोर निगाहों से उसे देखा था, कभी उसका यह अधिकार भाव उसे बहुत अच्छा लगता था पर वो कभी काल-परिस्थितियों का ध्यान ही नहीं रखता था. उस दिन भी तो यही हुआ था.नेहा और गार्गी अतुल की इस हरकत पर मुस्करा दी थी.

“अनु! हम कैंटीन जा रहे हैं. तू भी आ जाना अतुल के साथ…”

पता नहीं यह सच था या फिर भ्रम उसे लगा था नेहा ने अतुल शब्द पर ज्यादा जोर दिया था. प्रेम इंसान को जितना मजबूती देता है अंदर से उतना ही कमज़ोर…

“आँखें बंद कर रही हो या मैं करूँ?”

अनुपमा एक क्षण के लिए सहम गई,अतुल का कोई भरोसा नहीं उत्साह में वह अपनी मर्यादा भी भूल जाता है पर कहीं न कहीं यह भरोसा भी तो उसी ने दिलाया था. उसने आँखें बंद कर ली.

“अपना हाथ आगे बढ़ाओ.”

“ये क्या बचपना है!”

अनु सशंकित हो गई .

“भरोसा करती हो न मुझ पर…”

भरोसा…भरोसा उसे क्या पता था कि यह एक शब्द भविष्य में उसे कितना रुलाएगा. उसने अपनी आँखें खोली, हथेली पर किसी कंपनी का बिंदी का पत्ता रखा हुआ था. उसके मन-मस्तिष्क में हजारों सवाल उग आए. वो कुछ कहती अतुल ने एक बिंदी उसके माथे पर लगा दी.

“मेरी पहली कमाई की खूबसूरत सौगात…”

“तुमने नौकरी कर ली और तुम्हारी पढ़ाई?”

अनु के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आई.

“अरे नहीं! मकान मालिक के बेटे को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया है, किराए में बाकी पैसे कट गए जो बचे उस से…”

“उससे तुम गिफ्ट ले आए. पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं. बेकार में पैसे क्यों बर्बाद कर दिए.”

“बर्बाद कैसे… माँ हमेशा कहती है जब भी कमाना शुरू करना पहली कमाई भगवान के चरणों में या फिर अपने किसी ख़ास को देना. भगवान को तो चढ़ा आया था इस अंजान शहर में अपना कहने वाला और कोई ख़ास है क्या…?”

उसकी आँखों में शरारत उभर आईं थी. दुनिया की सबसे ख़ास सबसे खूबसूरत लडकी हो तुम…

“सच में!”

उसकी आँखों के जुगनू खिलखिला उठे थे. तभी किसी मालगाड़ी के रुकने की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी.अब तक उसने अपने आप को संभाल लिया था.वो चुप थी.उसने अतुल की मजबूत पकड़ से छुड़ाते हुए कहा,

“तुम यहाँ…कैसे हो?”

“बस जिंदा हूँ.”

अतुल में कुछ भी तो नही बदला था, वैसा ही लम्बा-ऊँचा कद,झील सी गहरी आँखें और उसकी वो लच्छेदार बातें…वो मुस्करा दी. कंधे पर रखे नर्म, रोएदार मुलायम तौलिए से हाथ पोंछते-पोंछते वह वेटिंग रूम में आ गई.

“और तुम,तुम कैसी हो.”

अनु का मन तो किया कह दे तुम्हारे दिए हुए धोखे के बाद जैसी होनी चाहिए बस वैसी ही हूँ.

“ठीक हूँ.”

“और सुनाओ, शादी हो गई तुम्हारी…?”

“हाँ! एक बच्चा भी हैं .”

अतुल ने नजर चुराते हुए कहा

अतुल से अलग होने के बाद उसकी दुनिया रुक सी गई थी और वो…!

“खुश हो?”

“हाँ दुनिया की नजर से देखो तो एक शादीशुदा व्यक्ति को जितना खुश होना चाहिए उतना तो हूँ ही…!”

“तुम्हारी पत्नी जरूर सुंदर होगी, तुम्हारी पसंद हमेशा से अच्छी रही है. कभी गलत नहीं हो सकती.”

उसने तंज कसा, अतीत की कड़वाहट वर्तमान पर कालिख पोत गई थी.

“हाँ! मेरी बीवी बहुत खूबसूरत है, लोग ऐसा कहते हैं पर वह मेरी पसंद नहीं है. मेरी पसन्द तो…!”

उसकी आवाज़ में एक उदासी थी, अनु ने सामान रखने में व्यस्त होने का बहाना किया. अतुल उसकी उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पाया.

“और कोई सवाल पूछना है?”

उस वीरान पड़े रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में उन दोनों के सिवा कोई भी नहीं था. अनु ने दार्शनिकों की तरह कहा –

“इतने बरसो बाद मिले हो, अच्छी बातें करो. जिंदगी में है ही क्या कुछ सवाल तो कुछ जवाब…!”

अनु ने पीठ पर ढलक आए जुढ़े को समेटने के लिए अपना हाथ बढ़ाया,

“यह कंगन आज भी तुम्हारे पास है?”

“यह वह कंगन नहीं है.”

“फिर वही… यह वही कंगन है, देखो आज भी इस पर डबल ए लिखा है. अनु अतुल…”

अनु अतुल के आरोपों से ढीली पड़ती जा रहे थी,बुध बाज़ार से खरीदा था वो कंगन…कपड़े के रंगीन तम्बू-कनात के आगे सीढ़ीदार रैक पर छोटी-बड़ी ढेर सारी काँच की शीशियाँ थी, जिसमें रंगीन पानी भरा था. बगल में बीते ज़माने का एक पुराना टेप रिकॉर्डर जिसमें से हर नामुमकिन मर्ज को ठीक करने की दवा और नुस्खे देने वाले की नाक से निकलती आवाज़ सुनाई देती थी. ज़मीन पर लाल-काले धागे, रंग-बिरंगे पत्थर, हर साइज के छल्ले और धातु के कंगन …एक कंगन को पलटते देख अतुल ने कहा था-

“पसंद है तुम्हें?”

और उसकी हाँ का इंतज़ार किए बिना उसने दस रुपए दुकानदार को पकड़ा दिए थे.

“एक मिनट रुको…!”

वह उसे अपने सवालों के साथ छोड़ भीड़ में गुम हो गया था. इन साप्ताहिक बाजारों के आगे बड़े-बड़े नामी-गिरामी स्टोर भी फेल थे. जो इन सुविधा सम्पन्न दुकानों में भी ढूँढ़ने से भी नहीं मिलता वह सारी चीजे इन बाजारों में मिल जाती. अतुल ने बड़े प्यार से उस कंगन को उसके हाथों में पहना दिया था,अंग्रेजी में लिखे डबल ए अलग से चमक रहे थे. अतुल किसी बर्तन पर नाम लिखने वाले से लिखवा आया था. अतुल से अलग हो कर भी कहाँ अलग हो पाई थी वह… आज भी वह कंगन उसके हाथों में उसके अतीत की चुगली कर देता था. कितनी बार समीर ने उससे कहा था –

“तुम भी न क्या लोहा-लक्कड़ पहन कर घूमती रहती हो. सोने के कंगन के साथ कहाँ अच्छे लगते हैं.”

“बंगाली औरतों को देखा है कभी… शाखा पोला के साथ लोहे का कड़ा पहनती हैं, नजर नहीं लगती है. मंदिर का प्रसाद है, प्रसाद हमेशा कीमती होता है उसमें क्या देखना-समझना.”

छोड़ तो आई थी वो अपने अतीत को पर क्या वाकई हाथ छुड़ा पाई है. अनु ने पहली बार अतुल की ओर नजर उठाई. उसकी आँखों में आज भी कुछ ऐसा था जिसे देखकर अनु घबरा गई. उसने अपनी आँखें फेर ली.

“क्या नाम है तुम्हारे पत्नी का…?”

“पाखी,पाखी नाम है उसका…”

“पाखी पर तुम तो विशाखा से…?अतुल तुमने उससे शादी नही की?”

” तुम भी न!”

“क्यों क्या हुआ तुम्हारी उस सो कॉल्ड फ्रेंड का …गर्लफ्रेंड?”

आखिरी शब्द कहते-कहते अनु का मुँह न जाने क्यों कड़वा हो गया.अतुल ने अनु के हाथों को अपने हाथों में ले लिया.पता नहीं वह चाहकर भी उससे अपना हाथ क्यों नहीं छुड़ा पाई.

“अनु इस बात को बीते आज तीन साल हो गए, तुमने उस दिन भी मेरी बात पर भरोसा नहीं किया था और आज भी वह लड़की मेरी गर्लफ्रेंड कभी थी पर उससे मैं अपना रिश्ता कब का तोड़ चुका था. अब वो मेरे गले पड़ी हुई थी तो इसमें मेरा क्या दोष…!”

अनु अपलक उसे देखती रह गई. उसने अतुल की आँखों में देखा आज भी वहाँ अनु के लिए सिर्फ प्यार ही प्यार था पर माँ को ऐसा क्या दिखा था उसकी आँखों में…

कॉलेज से लौटते वक्त एक बार माँ रास्ते में मिल गई. पूरी मंडली थी उस वक्त…अनु ने सबसे माँ का परिचय करवाया था. अनु को लगा ये अच्छा मौका है माँ से अतुल को मिलवाने का…

“माँ ये अतुल हैं मेरे साथ ही पढ़ते है. पढ़ने बहुत तेज है, अभी पीसीएस का इंट्रेंस भी निकाला था.”

अतुल ने लपक कर अनु की माँ के पैर छू लिए थे. अनु सोच रही थी कितना समझदार है अतुल और कितना संस्कारी भी…

“खुश रहो बेटा, कहाँ रहते हो?”

“यही कॉलेज के पास एक रूम ले रखा है.”

“बड़ी खुशी हुई तुम से मिलकर…पढ़ाई में ध्यान लगाओ और माँ-बाप का नाम रौशन करो.”

“जी!”

अतुल माँ की बात सुन अचकचा सा गया था. शाम को घर लौटने पर माँ वैसे ही ठंडी पड़ी रही पर अनु के मन में सवालों का तूफ़ान उठ रहा था. थोड़ा अजीब था पर उसने बिना लाग-लपेट के सीधे माँ से पूछ लिया था.

“माँ अतुल कैसा लगा?”

“कैसा मतलब, जैसे तुम्हारे और दोस्त हैं वैसा ही है.”

“औरों की छोड़िए वो दूसरों से अलग है आपको अतुल कैसा लगा?”

कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया,

“अनु उसकी कभी आँखें देखी हैं?”

“हम्म! क्या हुआ उसकी आँखों को…”

“एकदम स्थिर नहीं हैं, उसके मन की तरह ही बेचैन और चंचल है.जो लोग आँखों में आँखें डालकर बात नहीं कर सकते हैं न वो कभी स्थिर नहीं होते. न अपने जीवन में न रिश्तों में…”

“क्या माँ आप भी किस जमाने की बात कर रही हैं.”

अनु उखड़ गई थी.

“शायद आज तुम्हें मेरी बात समझ न आए पर एक दिन जरूर समझ आएगी.”

“क्या सोच रही अनु!”

“कुछ नहीं कुछ याद आ गया.”

“अनु कहते हैं जब प्यार अधिक होता है वहाँ अविश्वास भी होता है पर तुम्हारा अविश्वास हमारे प्यार पर भारी पड़ गया.शायद मेरे प्यार में ही कोई कमी थी.तुम मुझ पर विश्वास नहीं कर पाई. मैं शादी करना चाहता था उस लड़की से जिसे मैं प्यार करता था पर वह मुझ पर भरोसा नहीं कर पाई.”

अतुल का स्वर भीग गया, अनु अतुल की बातों की तपिश से सुबह की मासूम ओस सी पिघलने लगी थी.

“क्या हम सब कुछ भूलकर एक नई शुरुआत कर सकते हैं?”

एक शादीशुदा एक बच्चे के बाप के मुँह से यह सुनकर अनु आहत थी.अनु बार-बार उसके अल्फाजों में अपने जीवन के मायने को ढूंढती रही और वह अपनी आँखों से पूरी कहानी कह गया था. शायद वह भी उसकी चुप्पी में अपने सवालों के जवाब ढूंढ़ रहा था. उसने पास पड़े एयर बैग से अपना अख़बार निकाला और उसे पढ़ना शुरू किया.

“प्रेमी ने प्रेमिका की दूसरी जगह शादी करने पर नस काटकर अपनी जान ले ली.”

कुछ भी तो नहीं बदला था, अतुल अक्सर उसे लाइब्रेरी से किसी हिंदी कवि की प्रेम में पगी कविताओं की किताब लाकर देता और पन्ने को मोड़ चाशनी में डूबे उन लफ्जों को हाई लाइटर से अंडर लाइन कर देता और जान-बूझ उससे पूछता –

“पढ़ा तुमने बहुत बढ़िया कविता थी मैने तुम्हारे लिए उस का पन्ना भी मोड़ दिया था.”

वो सब समझती थी पर हमेशा अंजान बनी रही.आज भी वह अंजान बनी रही.

“शायद मेरी ट्रेन आ गई.”

अनु ने अपना सामान समेटते हुए कहा –

“फिर कब मिलोगी?”

“पता नहीं…!”

“मेरी बात पर विचार करना.”

अनु बिना कुछ बोले कूपे में चढ़ गई.

“ये मेरा विजिटिंग कार्ड है.”

“ओह! मैं तुम्हारा नम्बर लेना ही भूल गया.”

उसने जल्दी से विजिटिंग कार्ड पर लिखे नम्बर को मिलाया

“घंटी जा रही है, मेरा नम्बर सेव कर लेना.”

ट्रेन ने सीटी दी और आगे बढ़ गई,अतुल का हिलता हुआ हाथ धुंधलाता चला गया.एक अननोन नम्बर उसके टेलीफोन स्क्रीन पर चमक रहा था.न चाहते हुए भी उसने नम्बर को सेव कर लिया अतुल सक्सेना…वो अभी तक समझ नहीं पा रही थी कि जिस अतुल से उसने सारे रिश्ते तोड़ लिए थे आख़िर उसने उस अतुल को अपना विजिटिंग कार्ड क्यों दिया था.बगल के कूपे में एक बच्चा गला फाड़ रो रहा था, सारे यात्री कहीं न कहीं इस शोर से असहज हो रहे थे. उसने आँखें बंद कर ली.अंदर का शोर बाहर के शोर से कहीं ज्यादा था.

“आप अनुपमा है न…?”

एक दिन लाइब्रेरी से निकलते वक्त एक लड़की ने उसका रास्ता रोक लिया था.

“जी! मैने आपको पहचाना नहीं!”

“जी मै विशाखा…अतुल को जानती हैं आप…!”

“कौन अतुल!”

अनु जानकर भी अंजान बनी रही.

“अतुल सक्सेना…”

“ओह! जी मेरे साथ पढ़ता है.”

“आप उसको छोड़ दीजिए.”

उस लड़की ने रिरियाते हुए उससे कहा था

“मतलब! मैंने उसे पकड़ा ही कब है जो छोड़ दूँगा.”

अनु ने मुस्कुराते हुए कहा था.

“जब से आप उसकी जिन्दगी में आई है तब से वो न मेरा फोन उठाता है और न मुझसे मिलता है.चार साल के रिलेशनशिप को एक बार में झुठला दिया.”

अनु सकते में आ गई थी, एक बार के लिए लगा मानो भरे बाज़ार में किसी ने उसे नंगा कर दिया हो. इतने समय से अतुल उसकी भावनाओं से खिलवाड़ कर रहा था.ये कैसी डगर थी जहाँ पैर रखते ही वह मुँह के बल गिर पड़ी थी. ट्रेन एक झटके के साथ रुक गई थी, शायद किसी ने चेन खींच दी थी. उसके जीवन की चेन भी तो विशाखा ने खींच दी थी. वो दिन था और आज का दिन वह अतुल पर कभी भरोसा नहीं कर पाई. प्यार जैसी चीज़ से उसका विश्वास टूट चुका था पर कहाँ निकल पाई थी वह अपने अतीत से…

“गहरे रंग तुम पर बहुत खिलते हैं.”

अतुल ने एक बार कहा था.शादी के वक्त ही उसने सिर्फ लाल जोड़ा पहना था फिर उसके बाद मानो रंगों से उसका नाता ही टूट गया था.

“कौन कहेगा कि तेरी नई-नई शादी हुई है, ऐसे मरे-मरे रंग भला कौन पहनता है. जवानी में जब ऐसे रंग पहनेगी तो बुढ़ापे में क्या पहनेगी.”

माँ ने एक दिन स्टेटस पर लगी फोटो को देखकर कहा था,

“दामाद जी कुछ कहते नहीं?”

माँ ने कहा था. क्या कहती शुरू-शुरू में समर कितनी बार खिलते हुए रंगों की साड़ियां उसके लिए लेकर आए थे पर कोई रंग उसे खुशी नही दे पाते. समर ने हार कर अनु को उसके बेरंगों के साथ ही स्वीकार कर लिया था. तभी मोबाइल की घंटी से उसकी ध्यान टूटा.

“ट्रेन मिल गई.”

“हम्म!”

“सामान ठीक से गिन कर रखा है न…”

“हम्म!”

“ट्रेन राइट टाइम है,मैं स्टेशन लेने आ जाऊँगा.”

“हम्म…”

समर उसके पति थे, लोग कहते थे वह उसे बहुत प्यार करते थे. लोग…? करते होंगे पर क्या वह भी…शायद नही! क्योंकि उसके प्रेम का सोता तो कब का सूख चुका था और रह गया सूखा धूल भरा रेगिस्तान…जिसकी तेज़ आंधी में उसका दम घुटने लगता था.समर के प्यार दिखाने का अपना तरीका था,कभी अनु की पसन्द की पेस्ट्री लाना तो कभी समोसे कभी उसकी खुशी के लिए काला खट्टा गोले खुद अपने हाथों से बनाना.अनु के लिए किए गए ये छोटे-छोटे प्रयास भी अनु का दिल नहीं जीत पाते.कितना फर्क था दोनों के प्यार में या फिर अनु की नज़र से कह सकते है कि उससे ये सब चोचलेबाजी नहीं आती थी.

समर अपनी किसी भी सोशल साइट पर अनु के बिना तस्वीर नही लगाते. हैप्पी मैरिड लाइफ़ की शायद यही पहचान है पर वो नही कर पाती थी इस तरह का दिखावा. समर की बहन के मुँह से सुना था, कॉलेज टाइम में किसी लड़की से प्यार करते थे समर…मेघा, मेघा नाम था उसका…पाँच साल चला था उनका रिश्ता पर मेघा ने एक अमीर लड़के के लिए उन्हें छोड़ दिया था.समर सालों इस दर्द से लड़ते रहे फिर उनकी जिन्दगी में अनु आई. अनु समर के घरवालों की पसन्द थी, समर ने भी अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुँह नही मोड़ा पर मेघा… मेघा के धोखे को वो आज तक नही भूला पाए थे.

एक दिन अलमारी की सफ़ाई करते एक सूखा गुलाब उसे डायरी के पन्नों के बीच मिल गया था.एक अजीब सी खलिश दिल को बेचैन कर गई थी. मुझ से पहले भी कोई था समर की जिन्दगी में शायद मुझसे बेहतर शायद मुझसे ज्यादा सुन्दर…सब कहते है समर उसे बहुत प्यार करते हैं क्या सच में…! करते होते तो इतनी बड़ी बात वह उससे क्यों छिपाते…क्या जरूरी नहीं था अपनी जीवनसंगिनी को बताना या जरूरत नहीं समझी.

स्टेशन पर समर बैचेनी से उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे.

“कैसी हो?”

“ठीक हूँ.”

“सफर में कोई दिक्कत तो नहीं हुई?”

“नहीं!”

हमेशा की तरह आज भी उसने नपा-तुला जवाब दिया था न एक शब्द ज्यादा न एक कम.स्टेशन से घर का मुश्किल से दस मिनट का रास्ता था. समर ने गाड़ी से सामान निकाला, तब तक अनु ने घर का दरवाजा खोल दिया.वह वॉश रूम की ओर आगे बढ़ गई.

“तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो मैं चाय चढ़ाता हूँ.”

मोबाइल की बैटरी खत्म होने को आ रही थी, अनु ने एअर बैग से चार्जर निकालकर मोबाइल चार्जिंग में लगा दिया. ट्रेन से उतरते वक्त माॅं का फोन आ रहा था,कल भी माॅं का दो बार फोन आया था. उनसे बात ही नहीं हो पाई.

“आपका फोन कहाँ है? माँ से बात करनी है.”

“वही ड्राइंग रूम में मेज पर रखा है.”

समर ने आवाज को ऊॅंचा करते हुए कहा अनु ने माँ को फोन मिला दिया.

“नमस्ते माँ!”

“आ गई तू?”

“हाँ माँ आपका जब फोन आ रहा था तब ट्रेन से उतर ही रही थी. सोचा घर पहुँचकर बात करूँगी.’

“ट्रेन राइट टाइम थी, लेने कौन आया था?”

“समर आए थे.”

“चलो अच्छा हुआ, आराम करो फिर आराम से बातें करेंगे.”

“घर में सब ठीक है न… पापा को मेरा प्रणाम कहिएगा.”

माँ ने फोन रख दिया, ऊपर नोटिफिकेशन में एक नाम चमका मेघा राठी…फ्रेंड रिक्वेस्ट आई थी. उसके सामने समर का अतीत आकर खड़ा हो गया था.उसका मन न जाने क्यों बुझ सा गया. बात अब इस हद तक पहुँच गई थी. समर का अतीत आज उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा था. सर दर्द से फटने लगा, अनु बाथरूम में घुस गई और शावर के नीचे खड़ी हो गई पानी की तेज धार से मन-मस्तिष्क ठंडा होता चला गया पर क्या सचमुच…! बार-बार मोबाइल पर लिखा हुआ नाम उसकी आँखों के सामने आ जाता.समर उसका चाय पर इंतजार कर रहे थे.

“खाना बनाने वाली आती ही होगी तुम परेशान मत हो. चाय पीकर आराम करो.”

समर मोबाइल में सर झुकाए बैठे हुए थे, अनु उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. अचानक से उनके चेहरे की भाव-भंगिमा बदल गई शायद उन्होंने भी नोटिफिकेशन पर आए मेघा के नाम को पढ़ लिया था. वह अचानक से बेचैन हो उठे और मोबाइल को लेकर बेडरूम में चले गए.अनु उन्हें जाता हुआ देखती रही कुछ नहीं मिटता… कुछ नहीं बदलता. न प्रेम और न प्रेम से जुड़े हुई यादें… अतुल को देख कर उसे भी तो बहुत कुछ याद आ गया था. समर दिन भर उसका हाल-चाल उसकी यात्रा के बारे में पूछते रहे पर वह गिने-चुने शब्दों में उसकी बातों का जवाब देती रही.

रात न जाने क्यों बहुत भारी लग रही थी.समर के खर्राटों की आवाज उसके कानों में गूंज रही थी. तभी व्हाट्सएप पर किसी नोटिफिकेशन से अंधेरे में मोबाइल की लाइट जल उठी. उसने मोबाइल को ऑन करके देखा, अतुल का मैसेज था. उसका अतीत उसे फिर से पुकार रहा था.

“कैसी हो, ट्रेन राइट टाइम थी?”

उसने व्हाट्सएप नहीं खोला पर ऊपर से मैसेज पढ़ लिया था. एक तरफ उसका अतीत उसे पुकार रहा था और दूसरी तरफ उसका वर्तमान उसके बगल में सो रहा था. कितने मासूम दिख रहे थे समर पर क्या वाकई में इतने ही मासूम थे. अनु ने अपना फोन बगल में रख दिया. पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था, उसने समर के फोन को उठाया और डिटेल चेक करना शुरू किया. फ्रेंड रिक्वेस्ट लिस्ट में मेघा का नाम कहीं नहीं दिख रहा था तो क्या समर ने उसकी फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार कर लिया था. क्या अभी भी मेघा के लिए उनके मन में कुछ है. न जाने कितने सवाल उसके मन में उठ रहे थे. उसने समर के पेज पर जाकर फ्रेंड लिस्ट को खोलना शुरू किया. उंगलिया तेजी से मोबाइल पर चल रही थी. मेघा राठी…मेघा राठी उसके मन में बस यही शब्द गूंज रहा था पर यहाँ तो मेघा राठी मित्रता सूची से गायब थी तो फिर क्या हुआ उसने समर की तरफ देखा वह अनु की इस हरकत से बेपरवाह गहरी नींद में सो रहे थे.

समर ने सचमुच मेघा को अपने दिल से निकाल दिया था उसकी मित्रता को भी स्वीकार नहीं किया था. अनु सोच रही थी यह कैसी नाराजगी थी समर से… उसने भी तो अपना अतीत कभी नहीं बताया था समर को…फिर समर ही दोषी क्यों वह भी तो उतनी ही दोषी थी.उसने भी तो समर के साथ छल ही तो किया था उसने भी तो कहाँ बताया था अतुल के साथ अपने अतीत को… दोनों ही एक-दूसरे के गुनाहगार थे फिर शिकायत सिर्फ अनु को ही क्यों…?

न जाने क्यों समर अचानक से प्यारा लगने लगा था समर तो अपने अतीत को छोड़कर आगे बढ़ गया था पर क्या वह छोड़ पाई थी? खिड़की से चाँद दिख रहा था. आसमान में चाँद सितारों के साथ अठखेलियाँ कर रहा था. वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई.खिड़की के ठीक बगल में ड्रेसिंग टेबल था उसकी नजर अपने चेहरे पर लगी काली बिंदी पर चली गई.वह अभी भी चमक रही थी और अतुल की याद भी दिला रही थी. उसने न जाने क्या सोचकर बिंदी अपने माथे से हटाई और शीशे पर चिपका दी मानो दिल का एक बहुत बड़ा बोझ उतार कर कहीं दूर रख दिया हो.उसने धीरे से दराज को खोला और अतुल के लिखे हुए प्रेम पत्र जिसे आज भी उसने एक बैग के अंदर बड़ा सहेज कर रखा था को निकाला. कितनी सुंदर लिखावट थी उसकी…प्रेम में पगी हुई भाषा, एक-एक शब्द से रस टपकता था.एक-एक लफ्ज़ में न जाने कितने सपने कितने वायदे थे, उसने बड़ी एतिहात से समेटा और एक गहरी सांस ली. उसने उन पत्रों को अपनी मुट्ठी में कस कर भींच लिया. वह पत्र उसकी मुट्ठी में कसमसाने लगे.जैसे आज तक उसकी सांस घुट रही थी मानो आज उनकी सांस घुट रही थी…

वह रसोई घर की तरफ बढ़ गई उसने गैस स्टोव को जलाया और एक-एक कर सारे पत्रों को जला दिया आजाद कर दिया. उसने अपने उस अतीत को भस्म कर दिया उसने उन सभी शिकायतों को जो कभी उसे अपने अतीत से थी और कमरे में आकर बैठ गई. अतुल का एक और मैसेज नोटिफिकेशन में दिखाई दे रहा था. उसने व्हाट्सएप खोला,

“मैं ठीक हूँ.”

“अभी तक जाग रही हो?”

“बस नींद नहीं आ रही थी.”

“याद आ रही है क्या किसी की?”

उसके शब्दों में भी उसका चेहरा दिख रहा था.

“बस यूँ ही…थक गई थी.”

कहते हैं जब आदमी बहुत थक जाता है तब भी नींद नहीं आती. वह कहना चाहती थी यह थकावट यात्रा की नहीं मन की थी. आज वह एक लंबी और गहरी यात्रा से लौटी थी. मन की यात्रा…थकना स्वाभाविक ही था.

मेरी बात याद है न तुम्हें… तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा.”

“इंतजार क्यों तुम्हारे प्रश्न का जवाब अभी हाजिर है.”

“सच में…?”

अतुल चहक उठा था.

“बिल्कुल सच!”

“अतुल! मेरे दिल के किसी हिस्से में मेरा अतीत आज भी जिंदा है जो वर्षों पहले मेरा नहीं रहा.मेरे जीवन की एक यही पूंजी थी तुम्हारी यादें… मैं खुश हूँ तुम्हारी इस बात को सुनकर और कहीं ना कहीं गर्व भी महसूस करती हूँ कि तुम्हारे दिल के किसी कोने में आज भी हूँ.”

“कोने में नहीं पूरे…!

“मेरी बात अभी खत्म नहीं हुई है अतुल…”

“ह्म्म!”

“पर इस छलावे में कब तक जिया जा सकता था.”

“मैं तुम्हें भुला नहीं पाया और शायद तुम भी…”

“तुम्हें कौन मना करता है कि मुझे याद ना करो मगर तुम भी मुझे वैसे ही याद करो जैसे कि मैं तुम्हें याद करती हूँ… हंसकर मुस्कुरा कर…”

“ह्म्म!

“सन्नाटा!”

व्हाट्सएप पर बहुत देर तक हरी बत्ती जलती रहे बार-बार टाइपिंग भी दिखता रहा पर …उधर से कोई जवाब नहीं आया. शायद अतुल को सारे सवालों के जवाब आज मिल गए थे. अनु ने गहरी सांस ली और तकिए की टेक लगाकर बैठ गई. उसने अतुल का दिया हुआ वह लोहे का कंगन हाथ से निकाला और दराज में रख दिया एक पल के लिए लगा मानो उसने अपने अतीत को कहीं गहरे तहखाने में छुपा दिया हो.

आज वह बहुत दिनों बाद अकेले बैठी थी या यूँ कहिए खुद के साथ बैठी थी, उसे याद है आज भी वो दिन जब माँ बचपन में खाना खिलाती थी. जब वह कहती माँ पेट भर गया तो वह कितनी आसानी से कहती, “अभी कहाँ चावल तो बचा ही है.”

“पर माँ!”

माँ कितनी आसानी से समझा देती.

“पेट में खाने के अलग-अलग दराजे होती हैं. चावल का अलग दाल का अलग और सब्जी रोटी का अलग…”

शायद इंसान के भावों के लिए भी अलग-अलग दराजे होती हैं. यादों का अलग, सपनों का अलग जिम्मेदारियों और अधिकारों का अलग… आज उसने यादों की पोटली को झाड़-पोंछ कर चुपचाप धीरे से रखकर कुंडी लगा दी थी.उसे लगने लगा था आज तक अपने दुख और गम की वज़ह वह ख़ुद थी. आज उसका दिल हल्का होता जा रहा था. आज वह खुद अपने कदमों के निशान मिटाते हुए चली आई थी.लोग सही कहते है सवालों के बाजार में अकेले बैठ कर देखिए जवाब जरूर मिलते हैं.

डॉ रंजना जायसवाल, पता : लाल बाग कॉलोनी, छोटी बसही, मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश, पिन कोड – 231001, मो. – 9415479796, ई-मेल : ranjana1mzp@gmail.com

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