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तालाबों को संवारने से बढ़ेगा भूजल का स्तर

गत 50 सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में 115 गुना इजाफा हुआ है. भारत के 360 यानी 63 प्रतिशत जिलों में भूजल स्तर की गिरावट गंभीर श्रेणी में पहुंच गयी है. कई जगह भूजल दूषित हो रहा है. चिंताजनक बात यह है कि जिन जिलों में भूजल स्तर आठ मीटर से नीचे चला गया है, वहां गरीबी दर 9-10 प्रतिशत अधिक है.

वर्ष 2023 के लिए देश के सक्रिय भूजल संसाधन मूल्यांकन रिपोर्ट से पता चलता है कि देश का कुल वार्षिक भूजल पुनर्भरण 449.08 अरब घन मीटर (बीसीएम) है, जो 2022 की तुलना में 11.48 बीसीएम अधिक है. यह मूल्यांकन केंद्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है. यह सुधार एक आशा तो है, लेकिन देश में भूजल के हालात खतरनाक हैं. तीन महीने पहले ही संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (यूएनयू-ईएचएस) के शोध में चेताया गया था कि भारत में भूजल की कमी चरम बिंदु तक पहुंचने के करीब है. रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में 78 प्रतिशत भूजल स्रोत अतिदोहित हैं और उत्तर-पश्चिमी भारत में खतरा मंडरा रहा है कि 2025 तक भूजल कहीं पाताल में न पहुंच जाए. भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है, जो अमेरिका और चीन के संयुक्त उपयोग से अधिक है. भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पूरी आबादी के लिए पेट भरने का खजाना कहलाता है. पंजाब और हरियाणा देश की 50 फीसदी चावल और 85 फीसदी गेहूं आपूर्ति का उत्पादन करते हैं.

देश का बड़ा हिस्सा पेय जल और खेती के लिए भूजल पर निर्भर है. जिस भूजल ने हरित क्रांति को संवारा और भारत एक खाद्य-सुरक्षित राष्ट्र बना, वह बहुमूल्य संसाधन अतिदोहन के चलते अब खतरे में हैं. एक तरफ हर घर नल योजना है, तो दूसरी तरफ अधिक अन्न उगाने का दवाब. सतह के जल के भंडार, जैसे नदी, तालाब, झील आदि सिकुड़ रहे हैं या उथले हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के चलते बरसात का अनियमित और असमय होना तो है ही. ऐसे में पानी का सारा दारोमदार भूजल पर है, जो अनंत काल तक चलने वाला स्रोत नहीं है. भारत में दुनिया की सर्वाधिक खेती होती है. यहां 50 मिलियन हेक्टेयर से अधिक जमीन पर जुताई होती है, इस पर 460 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी खर्च होता है. खेतों की कुल जरूरत का 41 फीसदी पानी सतही स्रोतों और 51 प्रतिशत भूगर्भ से मिलता है. गत 50 सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में 115 गुना इजाफा हुआ है. भारत के 360 यानी 63 प्रतिशत जिलों में भूजल स्तर की गिरावट गंभीर श्रेणी में पहुंच गयी है. कई जगह भूजल दूषित हो रहा है. चिंताजनक बात यह है कि जिन जिलों में भूजल स्तर आठ मीटर से नीचे चला गया है, वहां गरीबी दर नौ-दस प्रतिशत अधिक है. यदि मौजूदा रुझान जारी रहता है, तो भारत की कम से कम 25 प्रतिशत कृषि जोखिम में होगी.

हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तर प्रदेश के 30 फीसदी ब्लॉकों में भूजल का स्तर चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है. इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रालय ने अंधाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाये हैं. इनमें सामुदायिक भूजल प्रबंधन पर ज्यादा जोर दिया गया है. राजस्थान में 94 प्रतिशत पेयजल योजनाएं भूजल पर निर्भर हैं. भूजल विशेषज्ञों के मुताबिक आने वाले दो सालों में राज्य के 140 प्रखंडों में शायद ही जमीन से पानी निकाला जा सकेगा. भूजल के बेतहाशा दोहन की ही त्रासदी है कि उत्तर प्रदेश के कई जिले- कानपुर, लखनऊ, आगरा आदि भूकंप संवेदनशील हो गये हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो भूजल में जहर इस कदर घुल गया है कि गांव के गांव कैंसर जैसी बीमारियों के गढ़ बन गये हैं. दिल्ली का भूजल खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कारखानों की गंदी निकासी के जमीन में रिसने से दूषित हुआ है. समूची दिल्ली में भूजल अब रेड जोन यानी लगभग समाप्त होने की कगार पर चिह्नित है.

केंद्र सरकार ने 2020 में 6000 करोड़ रुपये की लागत से अटल भूजल संवर्धन योजना शुरू की थी, जिसमें सात राज्यों के 80 जिलों के कुल 229 ब्लॉक को चिह्नित किया गया था, जिनके 8220 गांवों में पीने के पानी तक का गंभीर संकट पैदा हो गया है. बीते साल के शुरू में इस योजना की राष्ट्रीय संचालन समिति की समीक्षा बैठक में यह बात सामने आयी थी कि राज्यों में योजना की प्रगति संतोषजनक नहीं है. जाहिर है कि आज धरती के गर्भ में यदि जल का भंडार बढ़ रहा है, तो इसका सबसे बड़ा कारण धरती की सतह पर तालाबों में पानी जमा करने की योजना की प्रगति ही है. भूजल के हालात सुधरने के लिए तालाबों को संवारना सबसे सशक्त तरीका है. यह कड़वा सच है कि भूजल किसी को दिखता है नहीं, सो उसके बिगड़ते हालात पर लोगों को जागरूक करना कठिन है. आज जरूरत है कि हर गांव-कस्बे का जल बजट तैयार हो, जिससे हिसाब लगाया जा सके कि वहां कितना भूजल उपलब्ध है, पुनर्भरण की कितनी संभावना है, खेती, पीने और अन्य कामों के लिए कितना चाहिए. गुजरात में किसान कपास और गेहूं जैसे पानी की अधिकता वाली फसलों से अनार और जीरा की ओर जाने की आवश्यकता को समझने लगे हैं, जो न केवल कम पानी का उपयोग करते हैं, बल्कि अच्छी कीमत भी प्राप्त करते हैं. हरियाणा और पंजाब में सरकार कोशिश कर रही है कि धान की जगह मोटे अनाज की खेती बढ़े. यह तभी संभव है, जब आम लोग इस संकट को खुद महसूस करेंगे. कानूनी पाबंदी से तो पानीदार समाज बनने से रहा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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