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पर्यटकों का पसंदीदा गंतव्य बने भारत

असीमित सांस्कृतिक विविधता और लोक कला के कई प्रकारों के बावजूद भारत शीर्ष के बीस वैश्विक गंतव्यों में शामिल नहीं है. इस संबंध में भारत ने उतना नहीं किया है, जितना किया जाना चाहिए. दुनिया भर में भारतीय गंतव्यों के प्रचार के लिए कोई ठोस पर्यटन नीति नहीं है.

जब नरेंद्र मोदी छींकते हैं, तो मालदीव को जुकाम हो जाता है. लक्षद्वीप के बेहद सुंदर तट पर टहलते हुए भारतीय प्रधानमंत्री के बारे में जब इस द्वीपीय देश के तीन मंत्रियों ने अभद्र टिप्पणी की, तो लाखों भारतीयों, टूर ऑपरेटरों और एयरलाइनों ने मालदीव से मुंह मोड़ लिया. जब प्रधानमंत्री मोदी की लक्षद्वीप भ्रमण की तस्वीरें इंटरनेट पर छा गयीं, तो चीन समर्थक मोहम्मद मुइजू के मंत्रियों ने भारत के पर्यटन इंफ्रास्ट्रक्चर पर तंज किया. भारतीयों ने इसे अपने प्रिय प्रधानमंत्री पर हमले के तौर पर देखा और मालदीव के बहिष्कार की ऑनलाइन चर्चा शुरू हो गयी. मोदी के जीवन का वह एक सामान्य दिन ही था, जिनका मिशन भारत का कूटनीति और भू-राजनीतिक दूत होना है, अब उसमें पर्यटन भी जुड़ गया है. मोदी प्रतीकवाद के उस्ताद हैं. उनकी तस्वीरों के साथ जो इंटरनेट पर ज्वार उठा, उसके साथ लोगों ने भारतीय तटों की सुंदरता का बखान करना शुरू कर दिया. भू-राजनीतिक तौर पर इसे एक वैकल्पिक गंतव्य के रूप में मोदी द्वारा महीन ढंग से स्वर्गिक लक्षद्वीप को बढ़ावा देने का प्रयास माना गया. भारतीय की नाराजगी के कारण मुइज्जू को तीन मंत्रियों को हटाने के लिए बाध्य होना पड़ा. आखिरकार, मालदीव जाने वाले हर नौ पर्यटकों में एक भारतीय होता है. जो भारतीय सुपरस्टार शायद ही देश में छुट्टियां मनाते हैं, वे अब भारतीय तटों को बढ़ावा देने का संकल्प ले रहे हैं. केंद्रीय पर्यटन मंत्री जी किशन रेड्डी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि ऐसी प्रतिक्रिया भारत के घरेलू पर्यटन की संभावनाओं को रेखांकित करती है. मंत्री की टिप्पणी ने इस बहस को भी हवा दी कि आखिर भारत शीर्ष के दस पर्यटन गंतव्यों में क्यों नहीं है.

पांच हजार साल पुरानी संस्कृति और इतिहास का देश गंतव्यों की विविधता- किले, नदियां, मंदिर, चर्च, वन, वन्य जीव, व्यंजन, हस्तशिल्प, शाही अतीत, आधुनिक महानगर आदि- के मामले में कई देशों से बहुत आगे है. भारत के पास सात हजार किलोमीटर से अधिक लंबा समुद्री तट है और एक हजार से अधिक किले भारत के भव्य अतीत की झलक दिखाते हैं. भारत में अंग्रेजी भाषी बड़ी आबादी है, जो पर्यटन के लिए ख्यात कई देशों में नहीं है. विडंबना है कि हर साल दो करोड़ से अधिक भारतीय विदेश जाते हैं, पर भारत में सत्तर लाख से भी कम विदेशी पर्यटक आते हैं. बीते दशक में भारत में एक दर्जन विश्व स्तरीय हवाई अड्डे बने हैं. सौ से अधिक रेल स्टेशनों को संवारा गया है, अनेक एक्सप्रेसवे बने हैं और कई शहरों की स्थिति बेहतर हुई है. असीमित सांस्कृतिक विविधता और लोक कला के कई प्रकारों के बावजूद भारत शीर्ष के बीस वैश्विक गंतव्यों में शामिल नहीं है. इस संबंध में भारत ने उतना नहीं किया है, जितना किया जाना चाहिए. दुनिया भर में भारतीय गंतव्यों के प्रचार के लिए कोई ठोस पर्यटन नीति नहीं है. निजी क्षेत्र हमेशा करों में छूट की इच्छा रखता है, अनुदान पर जमीन पायी है और हर सरकारी कार्यालय तक उसकी पहुंच है, पर इसने विदेशों में भारत को एक आकर्षक गंतव्य के रूप में प्रचारित करने में मामूली योगदान दिया है. ये सब केवल दावोस के वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम को बढ़ावा देते हैं और बेतहाशा खर्च करते हैं. भारत सरकार भारतीय उद्योगों के संगठनों को भोज और बैठक आयोजित करने के लिए उदारता से धन देती है.

अधिकतर राज्य सरकारें अपने राज्य के प्रचार पर समुचित धन नहीं आवंटित करती हैं. केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय का सालाना बजट महज 24 सौ करोड़ रुपये है. यह उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, दिल्ली और तेलंगाना के प्रचार बजट से भी कम है. पहले इस मामले में केरल अग्रणी रहा था और उसने ‘गॉड्स ओन कंट्री’ के शानदार नारे के साथ अपने को एक सम्मोहक गंतव्य के रूप में प्रस्तुत किया था. बाद में मोदी के कार्यकाल में गुजरात ने अमिताभ बच्चन को अपना पर्यटन दूत बनाया और उन्होंने ‘कुछ दिन गुजरात में बीता कर तो देखो’ के निवेदन के साथ बहुत अच्छा काम किया. असम और उत्तराखंड ने भी सिनेमाई सितारों को चुना, पर उनका असर नहीं हुआ, क्योंकि उनके संदेशों के साथ सक्रियता का अभाव रहा. उन सितारों ने इन राज्यों में भी अधिक समय नहीं बिताया और अधिक पैसे के लिए विदेश जाते रहे. कुछ समय से मोदी ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन को बढ़ावा देने में व्यक्तिगत रुचि दिखायी है. वे भारतीयों से देश घूमने का निवेदन करते रहते हैं, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने इसका पर्याप्त लाभ नहीं उठाया है. सऊदी अरब, इंडोनेशिया, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे मुस्लिम देशों ने भी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए अच्छे प्रयास किये हैं.

यह अचरज की बात है कि विदेशों में घूमने वाले भारतीय अधिकारियों, सिलेब्रिटी, नेताओं और उद्योगपतियों इन रणनीतियों से कुछ नहीं सीखा और न ही भारत सरकार को उनके असर के बारे में बताया. भारत की अस्त-व्यस्त नौकरशाही, विदेशों से वित्त पोषित पर्यावरण पर्यटकों और धन की कमी से पर्यटन के विकास को सबसे अधिक नुकसान हुआ है. बीते 50 सालों में भारत में पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण के नाम पर पाबंदियां लगा कर आधुनिक पर्यटन सुविधाओं के विस्तार को बाधित किया गया है. मालदीव जैसे छोटे द्वीप में तटों के निकट एक हजार से अधिक रिसॉर्ट बने हुए हैं. दुनिया भर में तटों पर होटल, रेस्तरां और जल क्रीड़ा की सुविधाएं हैं, लेकिन भारत में तटों पर छोटे होटल निर्माण के लिए भी 40 से अधिक तरह की मंजूरी लेनी पड़ती है. ताजमहल जैसे ऐतिहासिक स्मारक में जाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है. वनों की परिभाषा भी स्पष्ट नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार, अगर संरक्षित क्षेत्र में घास भी उगती है, तो उसे वन माना जायेगा. रेल और हवाई सुविधा की कमी भी एक बड़ी बाधा है. गंदे शौचालय, असुरक्षित सड़कें और स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह परिवेश भी पर्यटकों को दूर करते हैं. दुखद है कि भारतीय पर्यटन उद्योग के आर्थिक और राजनीतिक महत्व को समझने में असफल रहे हैं. उन्हें गाड़ियों और फोन का जुनून है. सबसे ताकतवर दूत के रूप में योग के जरिये भारतीय आध्यात्मिकता का प्रचार, वैक्सीन के जरिये सॉफ्ट पॉवर का विस्तार तथा बालाकोट के जरिये सैन्य शक्ति का प्रदर्शन करने के बाद मोदी की अगली चुनौती है देश के सबसे आकर्षक स्थानों की यात्रा. जिस भूमि ने ह्वेन सांग और इब्न बतूता को आकर्षित किया, उसे फिर रहस्यात्मक आकर्षण बनना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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