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मायावती का एकला चलो रे राग

विपक्षी गठबंधन के साथ अगर वह जातीं, तो निश्चित तौर पर उन्हें केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी ताकतों की धुरी बनी कांग्रेस के साथ-साथ संभवतः समाजवादी पार्टी की भी बात सुननी पड़ती. मायावती अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में जाती हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर अपने-अपने क्षेत्रों में प्रभावी दलों का मोर्चा बनाने की कोशिशों में जुटी कथित सांप्रदायिकता विरोधी वैचारिकी और राजनीति को मायावती से बड़ा झटका लगा है. अपने 68वें जन्मदिन पर मायावती ने विपक्षी खेमे को निराश करते हुए साफ कर दिया कि आगामी चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) कोई गठबंधन नहीं करेगी. इस कदम से मायावती जहां वाम वैचारिकी केंद्रित बौद्धिकता के निशाने पर आ गयी हैं, वहीं राष्ट्रवादी खेमे में राहत का भाव देखा जा रहा है. एक तीसरा वर्ग भी है, जो इस फैसले को चकित होकर देख रहा है. वाम वैचारिकी का तर्क है कि मायावती दरअसल प्रवर्तन निदेशालय (इडी) और सीबीआइ से डर गयी हैं, क्योंकि इन मजबूत हथियारों का नियंत्रण भाजपा सरकार के हाथ में है. माया विरोधियों का तर्क है कि उनके अकेले चुनाव लड़ने से भाजपा को ही फायदा होगा. मीडिया और चुनाव विश्लेषकों की आदत होती है कि वे भावी चुनावों का आकलन अतीत के चुनावों में मतदाताओं के रुख के लिहाज से करते हैं. फिर वे जिस दल के समर्थक या विरोधी होते हैं, उसके पक्ष या विपक्ष में आंकड़ों का विश्लेषण कर डालते हैं. चूंकि विश्लेषक भी मानव हैं और मानवोचित स्वभाव उनकी भी मजबूरी है, इसलिए ऐसे विश्लेषण होने स्वाभाविक भी हैं. विश्लेषण करते वक्त भारतीय समाज के बहुविध आधार, स्थानीय चुनौतियां और राष्ट्रीय स्तर के माहौल का भी ध्यान रखना चाहिए. कुछ हालिया चुनावों से अगर खबरों की दुनिया के बादशाहों का विश्लेषण और आकलन चूक रहा है, तो इसकी बड़ी वजह उनका आग्रह और लकीर पर चलती उनकी सोच है. मायावती के कदम से भाजपा को ही फायदा होगा और विपक्षी गठबंधन को नुकसान होगा, जैसी सोच भी इसी पारंपरिक सोच का ही नतीजा है. माया के साथ आने से इंडिया गठबंधन को फायदा होगा या नुकसान, इसका विश्लेषण करने के पहले बसपा के कुछ चुनाव नतीजों की ओर ध्यान देना जरूरी है. बसपा को गठबंधन की सबसे बड़ी सफलता 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली. तब समाजवादी पार्टी और बसपा का गठबंधन सत्ता में आया, लेकिन भाजपा का वोट प्रतिशत 1991 की तुलना में लगभग दो प्रतिशत ज्यादा हो गया था.

दिलचस्प यह है कि उस चुनाव में भाजपा के सिर्फ 20 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई थी, जबकि उसके पिछले चुनाव में 41 सीटों पर भाजपा उम्मीदवार जमानत नहीं बचा सके थे. साल 1993 के चुनाव में समाजवादी पार्टी को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं. समाजवादी पार्टी को 17.9 और बसपा को 11.12 प्रतिशत वोट मिले थे. तब दोनों पार्टियों के वोट एक-दूसरे को मिले हुए थे. इसी की वजह से राम लहर के बावजूद भाजपा को हार मिली थी. उस जीत ने एक संदेश दिया कि अगर दोनों दल एक-दूसरे से मिलें, तो उनके वोट ट्रांसफर होंगे और भाजपा को अलग रखा जा सकता है. इसके बाद बसपा का कभी कांग्रेस से, तो कभी समाजवादी पार्टी से गठबंधन रहा. साल 1989 के आम चुनाव में छोटे-छोटे दलों के सहयोग से जनता दल ने सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की थी. इसके बाद भारतीय राजनीति ने एक सिद्धांत गढ़ा कि गठबंधन की राजनीति के दिन आ गये. उसकी ही उपज बसपा भी रही. साल 1996 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ बसपा ने गठबंधन किया. उसमें बसपा को ज्यादा फायदा हुआ और वह आगे बढ़ती रही. वह 2007 में तो खुद के दम पर बहुमत हासिल करने में कामयाब रही. लेकिन बाद के दिनों में बसपा की स्थिति बेहतर नहीं रह पायी. साल 2014 में मोदी लहर के दौरान बसपा उत्तर प्रदेश में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीत सकी. इसका नतीजा यह हुआ कि 2019 में मायावती और अखिलेश यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा. इस गठबंधन ने राज्य की 15 सीटें जीत लीं, जिसमें से दस बसपा को मिलीं.

इन आंकड़ों से एक बात स्पष्ट है कि बसपा ने जब भी गठबंधन किया, तो उसमें खुद को मजबूत स्थिति में रखा. साल 1993 का चुनाव अपवाद है. बाकी हर बार बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन करते वक्त यह ध्यान में रखा कि वह आगे रहे और उसकी मर्जी चले. इसका उदाहरण 2019 का आम चुनाव भी है, जिसमें उसे समाजवादी पार्टी की तुलना में आसान सीटें मिलीं. सवाल है कि इंडिया गठबंधन में यदि मायावती जाती हैं, तो क्या उन्हें इस बार फिर पिछली बार की तरह तवज्जो मिलेगी. इस प्रश्न का जवाब निश्चित तौर पर ना में है. साल 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद से मायावती ने एक सबक लिया है कि खुद को आगे और ताकतवर रखना चाहिए. विपक्षी गठबंधन के साथ अगर वह जातीं, तो निश्चित तौर पर उन्हें केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी ताकतों की धुरी बनी कांग्रेस के साथ-साथ संभवतः समाजवादी पार्टी की भी बात सुननी पड़ती. मायावती अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में जाती हैं, तो उत्तर प्रदेश को अपना गढ़ बना चुकी भाजपा के सामने भी उनकी नहीं चलती. इसीलिए माया ने एकला चलो रे का राग अलापा है. उनकी कोशिश कम से कम उस बहुजन वोट बैंक पर अपना कब्जा बरकरार रखना है, जिसकी बुनियाद पर उनकी राजनीति आगे बढ़ती रही है. माया की शायद सोच यह है कि अगर यह बुनियाद बची रही, तो उनकी आगे की राजनीति टिकी रह सकती है तथा उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रह सकता है. लेकिन अगर वह मौजूदा हालात में किसी भी गठबंधन के साथ जाती हैं, तो उन्हें उस गठबंधन की ताकतवर राजनीतिक पार्टियों का पिछलग्गू बनना पड़ सकता है. मौजूदा बसपा नेतृत्व को यह स्वीकार्य नहीं है. यही वजह है कि मायावती अपने अलग रुख पर कायम हैं. फिर उनकी कोशिश कम से कम उत्तर प्रदेश में अपने दल को दूसरे स्थान पर लाने की है. मुलायम सिंह के न रहने से उन्हें शायद उम्मीद भी है कि समाजवादी पार्टी के बरक्स उन्हें गैर-भाजपा वोट बैंक का सहारा मिल सकता है. वजह चाहे जो भी हो, मायावती के इस कदम ने उनके आलोचकों को जैसे मौका मुहैया करा दिया है. भाजपा को परोक्ष समर्थन का आरोप इसी वजह से लगाया जा रहा है. अगर माया का यह दांव कामयाब रहा और अगले लोकसभा चुनाव में वे अपने दम पर कुछ सीटें ला पाती हैं, तो उनके आलोचकों का मुंह बंद हो सकता है. लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ, तो आलोचकों के हथियार और पैने हो जायेंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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