मार्कण्डेय शारदेय, धर्मशास्त्र ज्ञाता : चंद्रदर्शन, सूर्यदर्शन, भूमि-उपवेशन, दोलारोहण, अन्नप्राशन से मुंडन तक के शास्त्रविहित संस्कार होते गये. समय गतिमान रहा, पर अयोध्या में मानो वह ठहर ही गया हो. जैसे अंखुआया पौधा पेड़ बनने के क्रम में अपना रंग-रूप दिखाने लगता है, अपनी गंध से समझाने लगता है, वैसे ही विकसमान चारों राजकुमार जन्म के साथ ही मन मोहने लगे. रनिवास की दासियों को मानो दोनों हाथों लड्डू ही मिल गया हो. अब उनकी काम करने की फुर्ती जाती रही. एक काम में क्षण भर लगीं कि किसी न किसी की करतूत पर या रूप-सौंदर्य पर दृष्टि जम गयी, काया ठहर गयी.
जब कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा तीनों बहनें आपस में कहीं कभी इकट्ठी बातें करतीं या इधर-उधर होतीं कि कुछ कौतुकी परिचारिकाएं आपस में कानाफूसी कर चुपके-चुपके राम को कैकेयी के बिस्तर पर, भरत को सुमित्रा के बिस्तर पर और कौसल्या के यहां लक्ष्मण-शत्रुघ्न को सुला आतीं. इस तरह की नित्य अदल-बदल चलती रहती. जब कभी उन चारों में से कोई रोता कि भिन्न आवाज सुन अचरज में माताएं आधी बात पर ही भागे आतीं और शिशुओं को कलेजे से चिपकाकर हंसी भरी झिड़की दासियों को सुनातीं. दासियां खिलखिला उठतीं और इधर माताएं भी. महाराज दशरथ कभी यहां तो कभी वहां. स्थिर रहते ही नहीं. राजकार्य से समय चुराकर भीतर आ जाया करते. चारों को पुचकार लेते, चूम लेते. दैनिक कार्य से जब भी समय बचता रनिवासों में शिशुओं के संग ही बीतता. ज्येष्ठ पुत्र राम के साथ कुछ ज्यादा ही लगाव था, पर और तीनों को भी प्यार देने में न तो कोताही करते और न ही विभेद पैदा होने देते.
समय गतिमान रहा. भूमि-उपवेशन भी हो गया. अन्नप्राशन भी हो गया. हाथ-पांव हो गये. दांत झांकने लगे. पलंग-पालने परतंत्रता लगने लगे. घर-आंगन में धूमा-चौकड़ी होने लगी. महल का कोना-कोना किलकारियों से, तोतली बोलियों से प्रतिध्वनित होने लगा. दशरथ की गोद में कोई तो कोई कंधे पर; जगह न दिखी तो पीठ पर ही कोई चिपक गया. तीनों माताएं यह देख-देखकर इतनी प्रसन्न कि इसके आगे सब सुख तुच्छ. राजा दरबार जाने लगे कि चारों की आंखों में गंगा-यमुना बढ़िया गयीं. गोद ले लेने को हाथ उठाये रोने-चिल्लाने लगे. माताएं दौड़ीं, दासियां दौड़ीं, सेवक दौड़े. सबका खेलना-खिलाना शुरू हो गया. दुलार-पुचकार एवं तरह-तरह के खिलौनों ने पिता से ध्यान भटका दिया. अब खेलने लगे, खिलखिलाने लगे.
रोज ऐसा ही चलता. हां, लीलाएं भी बढ़त पाती गयीं. केश बढ़ते गये, चोटी बंधने लगी. चारों लाल ठुमकते-ठुमकते बाहर भाग आने लगे. बाहर के लोग भी सौभाग्य मान लपककर गोद में उठा लिये. ये स्वतंत्र जीव परवश कब रहनेवाले? पिंड छुड़ाने लगते. बाहर गये जान परिचारक-परिचारिकाएं दौड़ लगाते. मिठाई दी. खिलौने दिये; तब लौटे और माताओं के आंचल में कभी छिपकर तो कभी मुंह उघारकर बादल में छिपे चांद-सी हंसी बिखेरने लगे. समयगति से मुंडन हो गया, कर्णवेध भी हो गया. केश गायब तो कानों में कुंडल झिलमिलाने लगे.
(लेखक की पुस्तक ‘रामकहानी’ से संपादित एक अंश)
त्रेतायुग की अयोध्या में लोकतंत्र का स्वरूप इतना सशक्त था कि चक्रवर्ती सम्राट दशरथ द्वारा श्रीराम को राज्यपद से विलग कर वनवास की घोषणा होने पर राजमहल से लेकर अयोध्या की जनता ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षी तक व्याकुल हो गये और इस निर्णय के विरोध में अन्न-जल त्याग दिया. अयोध्या के लोगों ने कैकेई, मंथरा तथा राजा दशरथ तक के प्रति विरोध में अपने भाव भी प्रकट किये. गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के अयोध्याकांड के 46वें दोहे की 7वीं चौपाई में अयोध्या की जनता की मनःस्थिति का संकेत ‘सुनि भए बिकल सकल नर नारी, बेलि बिटप जिमि देखि दवारी’ चौपाई से परिलक्षित होता है. श्रीराम के लिए वनवास के निर्णय को सुनकर सब स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हो गये, जैसे दावानल से बेल और वृक्ष मुरझा जाते हैं. इसी क्रम में ‘जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई, बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई’ चौपाई के अनुसार ‘जो जहां सुनता है, वह वहीं सिर धुनने लगता है. अयोध्या के मंत्री सुमंत्र जब श्रीराम को रथ से विदा करके अयोध्या लौटते हैं तब ‘चरफराहिं मग चलहिं न घोरे, बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे’ (अयोध्या कांड 142/5) के अनुसार, ‘घोड़े तड़फड़ाते हैं और (ठीक) रास्ते पर नहीं चलते. मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोड़ दिये गये हों’. इन स्थितियों में जनता अन्न-जल त्याग देती है. इसे सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में देखा जा सकता है. निश्चित रूप से स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी को इस प्रसंग से प्रेरणा मिली हो कि किसी अप्रिय निर्णय के विरुद्ध अन्न-जल त्याग करने से कोई विशेष शक्ति प्राप्त होती है. अयोध्या की जनता के इस अन्न-जल त्याग के कदम का ऐसा प्रभाव पड़ा कि चक्रवर्ती के साथ धर्मनिष्ठ सम्राट दशरथ उसे झेल न सके.
स्वदेश के प्रति मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का स्नेह यह भी प्रकट होता है कि जनता उद्वेलित न हो, इसलिए माता कौशल्या से ‘पिता दीन्ह मोहि कानन राजू, जहँ सब भांति मोर बड़ काजू’ (अयोध्याकांड 53/5) कहते हुए जता रहे हैं कि पिता ने उन्हें जंगल का राज्य दिया है. वहां मेरा बड़ा काम बनने वाला है. श्रीराम को पिता की आज्ञा का पालन करने की सलाह देते हुए माता कौशल्या ने भी ‘जो पितु मातु कहेउ बन जाना, तौ कानन सत अवध समाना’ कहते हुए श्रीराम की सराहना की तथा स्पष्ट किया कि माता-पिता की बात मानने का मतलब वन भी सैकड़ों अयोध्या के समान है.