लेखक- रामनाथ ठाकुर, नेता संसदीय दल (राज्यसभा), जनता दल (यू.)
जननायक कर्पूरी ठाकुर(Karpoori Thakur) जी के जन्म शताब्दी वर्ष (24 जनवरी, 1924) पर उन्हें सादर स्मरण करना कोई कैसे भूल सकता है? आडंबरहीन और सादगीपूर्ण उनकी जीवनशैली अनुकरणीय थी. उनकी निष्पक्षता, निष्कपटता, उदारता और सदाशयता की विनम्र छवि बहुत सारे लोगों को आकर्षित करती थी. यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ठाकुर जी अपने अनमोल जीवन और परिजनों को उपकृत और लाभ पहुंचाने की अपेक्षा अपने सिद्धांतों, आदर्शों एवं मूल्यों को प्रश्रय देते थे. परिवारवाद और वंशवाद को जनतंत्र के लिए घातक मानते थे. निरंतर वह इस परिपाटी व चलन का विरोध करते रहे.
अपनी संतानों को राजनीति में उतारने के लिए कभी भी अपने आदर्शों और सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. मेरे ऊपर उनके आभामंडल का प्रभाव इतना प्रबल था कि मैंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कभी उभरने नहीं दिया. एक राजनीतिक परिवार में मेरा पालन-पोषण हुआ था, अतः राजनीतिक महत्वाकांक्षा अस्वाभाविक नहीं थी. सच बताता हूं, यदि मैं बालहठ पर उतारू हो जाता, तो ठाकुर जी राजनीति से संन्यास ले लेते. वे बड़े ही दृढ़ निश्चयी थे. संसार मुझे कोसता रहता. पुत्र धर्म का निर्वाह करते हुए उनकी निष्कलंक छवि को मैंने धूमिल नहीं होने दिया.
‘कर्पूरी फार्मूला’ का अध्ययन व विश्लेषण जरूरी
आज जब सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को आर्थिक आधार पर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है, तो बिहार राज्य में प्रचलित आरक्षण का ‘कर्पूरी फार्मूला’ के अध्ययन और विश्लेषण की नितांत आवश्यकता है. मानवीय समाज के विकास के विभिन्न काल खंडों में सामाजिक चिंतन और आंदोलन के विविध रूप रहे हैं. इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में वर्ण-व्यवस्था और जाति प्रथा का व्यापक असर रहा है. काफी हद तक इसे जनजीवन प्रभावित होता रहा है. आज के संदर्भ में यह उल्लेख है कि राजनीतिक परिवर्तन जातीय समीकरण एवं एकीकरण से प्रभावित होता है. जातीय संरचना ऐसी थी जिसमें विषमता एवं भेदभाव की प्रधानता थी. जाति प्रथा की बुराइयों को दूर करने का यथासंभव प्रयास कई युगपुरुष चिंतकों एवं समाज सुधारकों ने समय-समय पर किया है.
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निष्काम कर्मयोगी थे जननायक कर्पूरी ठाकुर
भारत के समाजवादी आंदोलन में जननायक कर्पूरी ठाकुर ने सक्रिय भूमिका निभायी है. उन्होंने कई सामाजिक आंदोलनों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया है. खासकर बिहार में ठाकुर के जुझारूपन के कारण सामाजिक क्रांति धारदार और असरदार बन सकी. उनके समकालीन लोग उन्हें सामाजिक परिवर्तन का अग्रदूत मानते थे. उनका कहना था कि भारतीय सामाजिक संरचना भेदभाव एवं असमानता पर आधारित थी.
समाजवादी संवर्ण समाज के दिग्गज नेता समानता के सिद्धांत पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के पैरोकार थे और शोषण मुक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे. देश और प्रदेश के ऐसे रहनुमाओं को सादर स्मरण करना चाहूंगा. राष्ट्रीय स्तर पर स्मृतिशेष एस एम जोशी, मधु लिमये, राम नारायण, पंडित रामनंदन मिश्र, जार्ज फर्नांडीस एवं राज्य स्तर पर पंडित रामानंद तिवारी, सूरज नारायण सिंह, श्री कृष्ण सिंह, श्री कपिलदेव सिंह के नाम उल्लेखनीय है.
समाजवाद के सिद्धांतों, कार्यक्रमों, उद्देश्यों एवं नीतिगत निर्णयों में इन सब के विचारों को प्रमुखता दी जाती थी. ऐसे विचारवान संवेदनशील एवं सिद्धांतनिष्ठ व्यक्तियों ने समाज के दबे-कुचले उपेक्षित और तिस्कृत लोगों को विशेष अवसर प्रदान कर उन्हें सामाजिक विकास की मुख्य धारा में लाने के बड़े हिमायती थे. ठाकुर जी निष्काम कर्मयोगी थे.
आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था की नींव रखी गयी
यह उल्लेख करना अप्रसांगितत नहीं होगा कि जननायक कर्पूरी ठाकुर जी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में (1978) संवैधानिक प्रावधानों का अनुपालन करते हुए सामाजिक एवं आर्थिक आधार पर 26 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित की थी. इस व्यवस्था में सामान्य वर्ग (सवर्ण) के गरीब लोगों को आर्थिक आधार पर तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिया गया था. इसमें सभी जातियों की महिलाओं के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की स्वीकृति प्रदान की गयी थी.
वैज्ञानिकता के साथ सामाजिक व आर्थिक समरसता लाये
जननायक कर्पूरी ठाकुर ने अपने कार्यकाल में अलाभकारी जोत पर से मालगुजारी को समाप्त करना, मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना, हाई स्कूल तक की पढ़ाई के लिए सभी बच्चों का फीस माफ करना, सामाजिक और आर्थिक आधार पर बिहार सरकार की सेवा में आरक्षण देना, नदियों की घाट पर खेवा (कर) लगता था उसको समाप्त करना, प्राथमिक विद्यालय में सभी बच्चों को किताब, कॉपी, पैंसिल देनाइत्यादि काम असाधारण काम थे जो वैज्ञानिकता के साथ सामाजिक और आर्थिक समरसता को लाने का प्रयास किया.
आज की परिस्थिति में प्रबुधजन जरूर स्वीकार करेंगे कि आज से 40 वर्ष पूर्व पिछड़े वर्ग की शिक्षित महिलाओं की संख्या कितनी हुआ करती थी? खासकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली पिछड़ी जातियों की महिलाओं की संख्या नगण्य थी. उच्च वर्ण की महिलाओं की मेघा के समक्ष पिछड़े वर्ग की महिलाएं टिक नहीं सकती थीं, कुछ अपवाद हो सकता है. इस प्रकार गणित साफ है. उच्च वर्ण के पुरुष और महिलाओं को मिलाकर कुल 6 प्रतिशत आरक्षण व्यावहारिक रूप से सवर्ण समूहों के पक्ष में था.
बिहार राज्य की उस समय की जनसंख्या के लिहाज से आरक्षण का प्रावधान न्यायोचित और तर्कसंगत था. इस प्रकार आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था की नींव ठाकुर जी ने डाली थी. समन्वय, संतुलन, सद्भाव और सामंजस्य स्थापित करने वाले आरक्षण की व्यवस्था को तब आरक्षण का ‘‘कर्पूरी फार्मूला’’ के रूप में प्रचारित किया गया था. ‘‘कर्पूरी फार्मूला सामाजिक सद्भाव कायम करनेवाला संतुलित फार्मूला था जिसमें समाज के सभी वर्गो को हिस्सेदारी मिली हुई थी.
तत्कालीन जनसंघ घटक और जनता पार्टी में विलयित दल के नेता कैलाशपति मिश्र वरिष्ठ मंत्री थे. श्री चंद्रशेखर जो तत्कालीन जनता पार्टी के माननीय अध्यक्ष जो स्वयं सवर्ण थे और ‘युवा तुर्क’ के रूप में बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित थे, आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की स्वीकृति प्रदान की थी. जनता पार्टी के घोषणा पत्र में सामाजिक आधार पर आरक्षण देने का वादा किया गया था. इतना सब होने के बावजूद केवल ठाकुर जी को प्रताड़ित किया गया.
अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर उनकी कटु आलोचना की गयी. अपमान का विष पीकर भी अपने सार्वजनिक जीवन में विचलित और हतोत्साह नहीं हुए बल्कि अदम्य साहस और संकल्प के साथ वंचितों, उपेक्षितों और प्रताड़ितों को ललकारते और झकझोरते रहे. पूर्व मुख्यमंत्री और सवर्ण वर्ग से आने वाले सम्मानित नेता जगन्नाथ मिश्रा जी ने आरक्षण के ‘कर्पूरी फार्मूला’ को सही करार दिया और इसकी हिमायत की.
‘कर्पूरी फॉर्मूला’ को विस्तार देता है महिलाओं का 35 % आरक्षण
महिलाओं को अलग से तीन प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने की सार्थकता माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के महिलाओं के पक्ष के लिए निर्णय से साबित होती है. भाई नीतीश कुमार का नारा है ‘आरक्षित रोजगार, महिलाओं का अधिकार’. महिला सशक्तीकरण के अभियान को दृढ़ता प्रदान करते हुए राज्य की सभी सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण का निर्णय आरक्षण के ‘कर्पूरी फार्मूला’ को विस्तार देता है, सही सिद्ध करता है.
साठ-सत्तर के दशक में हिन्दुस्तान की मध्य जातियों में तीव्र गति से राजनीतिक जागृति पैदा हो रही थी. अपने बिहार में भी शासन व्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के लिए मध्य जातियों में व्यग्रता और बेचैनी विद्यमान थी. यदि आरक्षण का प्रावधान नहीं किया जाता तो वंचित समाज के लोग अधिकार मांगने के लिए हिंसक आंदोलन में सक्रिय हो जाते. सामाजिक ताना बाना ऐसा टूटता कि फिर उसे जोड़ना मुश्किल हो जाता. ठाकुर जी ने इस सच्चाई को समझकर ही निर्णय लिया होगा. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के शब्दों में हम कह सकते हैः-
‘‘शांति नहीं तब तक, जब तक सुखभोग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो.’’
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