रांची: वरिष्ठ साहित्यकार व आलोचक रविभूषण ने कहा कि आज मानव मस्तिष्क को कंट्रोल करने की कोशिश की जा रही है. मनुष्य की संवेदनशीलता खत्म की जा रही है. ऐसी कार्यशाली हमें संवेदनशील और रचनात्मक बनाती है. उन्होंने कहा कि आलोचक का पहला दायित्व सच बोलना है. डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान (टीआरआई) में वे शनिवार को सात दिवसीय ‘रचनात्मक लेखन कार्यशाला’ के पहले दिन बोल रहे थे. झारखंड के अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक एवं अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के अपर मुख्य सचिव राजीव अरुण एक्का ने इससे पहले कार्यशाला का विधिवत उद्घाटन किया. इस कार्यशाला का उद्देश्य झारखंड के आदिवासी युवाओं में रचनात्मक लेखन का विकास करना है, ताकि वो आने वाले समय में अपनी रचनात्मकता से सिनेमा और साहित्य के क्षेत्र में राज्य का नाम रौशन कर सकें. इस सात दिवसीय कार्यशाला में देशभर के कई जाने-माने लेखक और फिल्मकारों को आमंत्रित किया गया है जो साहित्य, सिनेमा तथा अनुवाद की बारीकियों पर छात्रों को विशेष प्रशिक्षण दे रहे हैं. आपको बता दें कि 2 फरवरी तक यह कार्यशाला आयोजित है.
संवेदनशील और रचनात्मक बनाती है कार्यशाला
वरिष्ठ साहित्यकार व आलोचक रविभूषण ने कहा कि जितने भी सृजन के क्षेत्र हैं, उसका सीधा संबंध हमारी संवेदनाओं से है. आज पूरी दुनिया में विध्वंसात्मक शक्तियों के द्वारा रचनात्मक मानस और संवेदना पर आक्रमण किया जा रहा है. आज मानव मस्तिष्क को कंट्रोल करने की कोशिश की जा रही है. मनुष्य की संवेदनशीलता खत्म की जा रही है. ऐसी कार्यशाली हमें संवेदनशील और रचनात्मक बनाती है. उन्होंने इस कार्यशाला के आयोजन को लेकर कहा कि जो कार्य झारखंड के सभी विश्वविद्यालय और विद्यालय ने इतने वर्षों में नहीं किया है, वो अकेले डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान साहित्य के क्षेत्र में किया है. इस कार्यशाला का रेंज बहुत बड़ा है. इसमें साहित्य, सिनेमा तथा अनुवाद की विधा भी शामिल है. उन्होंने कहा कि पढ़ना भी एक कला है. एक गंभीर आलोचक बनने के लिए अधिक से अधिक पढ़ने की आवश्यकता है. साहित्य जीवन की आलोचना है. प्रत्येक साहित्य एक समय में लिखा जाता है. इसलिए साहित्य में समय की आलोचना होती है और साथ ही ये समाज की भी आलोचना होती है क्योंकि साहित्य समाज को ध्यान में ही रखकर लिखा जाता है.
आलोचक का पहला दायित्व सच बोलना है
वरिष्ठ साहित्यकार व आलोचक रविभूषण ने कहा कि किसी भी रचना का एक बाह्य संसार यानी शरीर तथा अंत: संसार यानी आत्मा होती है. आलोचना की विधा दोनों संसार का विस्तृत अध्ययन करके उनका विवेचना करना है. उन्होंने नए लेखकों को समझाते हुए बताया कि कुछ भी लिखना लेखन तो है मगर रचना नहीं है. अमरिकी पत्रकारों की भारतीय पत्रकारों से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए बताया कि यहां के लेखक और पत्रकार सच बोलने से डरते हैं. आलोचक का पहला दायित्व सच बोलना है. उन्होंने कक्षा में दिनकर की कविता “वह तोड़ती पत्थर” का आलोचनात्मक विश्लेषण किया, जिसमे उन्होंने इस कविता के जरिए इलाहाबाद शहर के उस समय के सामाजिक, न्यायिक, राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों का एक सार्थक चित्रण किया.
सिखने के लिए शिक्षकों की है आवश्यकता
सिनेमा के प्रशिक्षण सत्र में वक्ता के रूप में बॉलीवुड फिल्म निर्देशक अविनाश दास मौजूद रहे. इस दौरान उन्होंने ऑस्ट्रेलियन आदिवासी फिल्म चार्लीज कंट्री और फ्रेंच फिल्म कैपिटल के ट्रेलर दिखाए. इसके बाद उन्होंने इन फिल्मों की कहानी, निर्देशन और सिनेमा की तकनीकी बारीकियों पर छात्रों से चर्चा की. फिल्म निर्देशक और पत्रकार अविनाश दास ने कहा कि जो लेखक होते हैं और जो लिखने की चाह वाले लोग होते हैं. उनका ऐसे आयोजन में मिलना दो दुनिया का आपस में मिलना है. उन्होंने बताया कि सिर्फ किताबें पढ़के सीखा नहीं जा सकता है. हमें हमेशा ही अच्छे शिक्षकों की आवश्यकता है. इस दौरान अमेरिका से आई लेखिका (झारखंड के कुड़ुख लोकगीतों पर कार्य कर रही हैं) ने उपन्यास लेखन की जरूरी विधा के बारे में जानकारी दी.
कलम का सिपाही बनाने की कोशिश
पहली वक्ता के रूप में नितिशा खलखो ने कहा इस कार्यक्रम में प्रतिभागियों को लेखन के क्षेत्र में प्रशिक्षण देकर कलम का सिपाही बनाया जा रहा है. उन्होंने बताया कि इस कार्यशाला से झारखंड के अलग-अलग क्षेत्रों से आनेवाले छात्र तो सीखेंगे ही, साथ ही साथ शिक्षक भी उन प्रतिभागियों की मातृभाषा और उनकी रचनात्मक सवालों से सीख पाएंगे. उन्होंने इस कार्यशाला के माध्यम से प्रतिभागियों की रचनात्मकता उजागर होगी. साथ ही वे साहित्य की नई-नई विधाओं को सीखकर अपनी खुद की उड़ान के लिए तैयार हो सकेंगे.
उपन्यास लेखन की बताईं बारीकियां
सब्बीर अहमद ने कहा कि इस कार्यशाला का उद्देश्य बहुत ही सार्थक है. इस दौर में जहां भाषा, साहित्य तथा लेखन के क्षेत्र में छात्रों का रुझान घटता जा रहा है. ऐसे वक्त में ऐसी अनूठी कार्यशाला का आयोजन करने के लिए डॉ रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान को धन्यवाद ज्ञापित किया. उन्होंने कहा कि भाषा-साहित्य-संवाद हमें एक अलग संबल प्रदान करती है. साहित्य तो जैसे मनुष्यों की आत्मा की खुराक है. राकेश कुमार सिंह ने कहा हर विद्या अपने आप में अनोखी है. झारखंड के लेखन प्रेमी छात्रों के बीच ऐसा आयोजन करके उन्हें लेखन के क्षेत्र में प्रशिक्षण देना वाकई कबीले तारीफ है. उन्होंने छात्रों को उपन्यास लेखन की बारीकियां बताई.
जिज्ञासु होना ही है रचनात्मक होना
दूसरे सत्र का विषय रचनात्मकता क्या है-कथा और कथेतर साहित्य में इसका प्रयोग और आयाम था. अनिल यादव ने बताया कि रचना का बुनियादी शर्त है कि इसकी कोई सीमा नहीं. जिज्ञासु होना ही रचनात्मक होना है. खुद को सोचने समझने के लिए हर मनुष्य को रचनात्मक होना जरूरी है. उन्होंने रचनात्मकता को लेकर कहा कि खुद को तटस्थ ढंग से देखते हुए जब आप शून्य पर पहुंच जायेंगे. ऐसे वक्त में जो आप बोलेंगे-लिखेंगे वही रचना कहलाएगी.