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बंगाली परिवारों से गुलजार रहता था दिसंबर-जनवरी व मई-जून का महीना, कई फिल्मों की हुई शूटिंग

बंगाली कोठियों की सुंदरता एवं भव्यता के कारण बांग्ला फिल्म जगत के कई बड़े कलाकारों का भी सरिया में आना-जाना लगा रहता था. कई बांग्ला फिल्मों की शूटिंग इन कोठियों तथा सरिया के आसपास के इलाके में हो चुकी है.

संभ्रांत बंगाली परिवारों का बसेरा सरिया की बंगाली कोठियां गिरिडीह जिले की विरासत हैं. स्वतंत्रता सेनानी से लेकर फिल्मकार, साहित्यकार तक ने तत्कालीन बिहार के इस शांत इलाके में अपनी कोठियां बनवाईं थीं, ताकि सर्दी और गर्मी के मौसम में यहां आकर छुट्टियां बिता सकें. आज न कोठियां रहीं, न उनकी रौनक. यहां कई फिल्मों की शूटिंग भी हुई. सरिया की ये बंगाली कोठियां आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहीं हैं. सरिया से लक्ष्मीनारायण पांडेय की रिपोर्ट.

बंगालियों से गुलजार रहता था सरिया बाजार

बुजुर्ग बताते हैं कि प्रतिवर्ष दिसंबर-जनवरी तथा ग्रीष्मावकाश के दौरान मई-जून के महीने में बंगाली समुदाय के लोग अपने परिजनों के साथ सरिया पहुंच जाते थे. इस कारण गिरिडीह जिले का सरिया बाजार काफी गुलजार रहता था. सुबह-शाम सरिया बाजार में बंगाली खरीदारी करते देखे जाते थे. बंगाली चाय और मिठाई के बड़े शौकीन थे. स्टेशन रोड स्थित काली बाबू मिष्ठान भंडार में बंगाली समुदाय के लोगों का जमावड़ा लगा रहता था. उन दिनों काली बाबू की छेना मिठाई, कलाकंद व जलेबी सूबे में प्रसिद्ध थी.

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बंगाली कोठियों में होती थी फिल्मों की शूटिंग

बंगाली कोठियों की सुंदरता एवं भव्यता के कारण बांग्ला फिल्म जगत के कई बड़े कलाकारों का भी सरिया में आना-जाना लगा रहता था. कई बांग्ला फिल्मों की शूटिंग इन कोठियों तथा सरिया के आसपास के इलाके में हो चुकी है. चंद्रमारणी स्थित शांतिकुंज एवं हरि मोहन सान्याल के आवास में फिल्म ‘एखोने पिंजोर’ व ‘अभिशक्त चंबल मानसिंह डाकू’ तथा कई एल्बम की शूटिंग हुई थी.

बंगाली समुदाय के लोगों ने स्थापित किये थे तीन आश्रम

बंगाली समुदाय ने सरिया में तीन भव्य आश्रम की स्थापना की, जो आज भी हैं. उन आश्रमों में आनंद भवन आश्रम, मौनी बाबा आश्रम तथा मां भुवनेश्वरी काली मंदिर शामिल हैं. आनंद भवन आश्रम की भव्यता एवं सुंदरता आज भी आकर्षक है, जहां पर हर वर्ष बंगाली समुदाय के हजारों की संख्या में लोग पूजा-अर्चना करने आते हैं. इस आश्रम में साधु सीताराम, राधा कृष्ण, मां काली, बलराम एवं कृष्ण के भव्य मंदिर बनाये गये हैं, जहां नित्य त्रिसंध्या पूजन-अर्चन होती है, जबकि वहां गुरुवर साधु सीताराम का समाधि स्थल भी है.

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रामकृष्ण आश्रम में होती है मां भुवनेश्वरी की पूजा

उनका तिरोभावोत्सव प्रत्येक वर्ष बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है. बागोडीह मोड़ स्थित रामकृष्ण आश्रम में स्थापित मां भुवनेश्वरी काली की पूजा की जाती रही है. वहीं मौनी बाबा आश्रम में भगवान शिव एवं मौनी बाबा की प्रतिमा स्थापित की गयी है, जहां पर बंगाली विधि विधान से नित्य प्रतिदिन अब भी पूजा अर्चना होती है. गुरु पूर्णिमा में भव्य आयोजन किया जाता है.

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इन नामों से बनी थीं कोठियां

शांतिकुंज, लाल कोठी, गीता भिला, बसु निवास, रूबी लॉज, अन्नपूर्णा निकेतन, डॉ एनएन घोष, दत्ता निवास, राय विला मातृ धाम, आनंदगढ़, पाल विल्ला, ब्राह्मणी कोठी, स्वस्तिका, डी डॉउन, बिहारी भवन, शोप स्टान हाउस आदि नाम से बनी कोठियां आज अपना अस्तित्व को खो चुकी हैं. कई कोठियां खंडहर में तब्दील हो गयी हैं, तो कई अपनी पुरानी पहचान खो रही हैं. बंगालियों द्वारा निर्मित ये कोठियां अब गिनी-चुनी बची हैं. अधिकांश कोठियां स्थानीय लोगों या भू-माफियाओं ने बंगालियों से औने-पौने दाम पर खरीद ली ओर टुकड़े-टुकड़े में बेच दिया. हालांकि अभी कई कोठियां बंगालियों ने नहीं बेचे हैं. वहां आज भी बंगाली परिवारों का आना-जाना लगा रहता है.

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हावड़ा ग्रैंड कॉर्ड सेक्शन पर होने का मिला फायदा

तब हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन पूर्व रेलवे के धनबाद डिवीजन में अवस्थित था. शहर रेलवे स्टेशन के किनारे अवस्थित होने के कारण बंगाली समुदाय बहुत सहजता एवं आसानी से नित्य सरिया-कोलकाता आना-जाना कर पाते थे. कोलकाता से सीधे हजारीबाग रोड आने के लिए उन दिनों हावड़ा-मुंबई मेल, हावड़ा-देहरादून, हावड़ा-कालका मेल, कोलकाता-जम्मू तवी जैसी कई महत्वपूर्ण ट्रेनों का ठहराव हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन पर होता था. आज सरिया में 10-20 बंगाली परिवार जहां-तहां छोटे-छोटे मकान बनाकर रह रहे हैं. परंतु पूर्व की तरह बंगाली परिवार का जमावड़ा या चहल-पहल देखने को नहीं मिलती है. लोग अतीत की कहानी वयोवृद्ध लोगों से सुनकर अपने मन को तसल्ली देते हैं.

क्या कहते हैं स्थानीय लोग और केयरटेकर

बिगड़ने लगी आलीशान कोठियों की रौनक : दुखी महतो

एक बंगाली कोठी के केयरटेकर 88 वर्षीय दुखी महतो ने बताया कि बंगाली परिवार से ही सरिया की पहचान थी. हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन भी बंगालियों के कारण ही चर्चित था. बंगाली आलीशान भवन जरूर बना गये, परंतु परिवार बढ़ने के बाद उनलोगों में विवाद होने लगा. रंग-रोगन नहीं होता. ना ही केयरटेकर को मानदेय दे पाते थे. इस कारण भव्य मकान की सूरत बिगड़ने लगी. मकान टूट कर गिरने लगे. बाग-बगीचे भी उजड़ने लगे. अंततः बंगाली परिवार एक-एक कर अपने आलीशान बंगले को बेचकर पश्चिम बंगाल चले गये.

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बगोदर प्रखंड के प्रथम उप प्रमुख वयोवृद्ध टेकलाल मंडल ने बताया कि एक तो इस क्षेत्र की आबोहवा तथा पर्यावरण स्वास्थ्य के अनुकूल था. इस कारण बंगाली परिवार यहां अपना आशियाना बनाने लगे. दूसरी ओर भारत की आजादी को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चल रहा था, जिसमें बंगाल के कई आंदोलनकारियों की प्रमुख भूमिका थी.

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हजारीबाग अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई की योजना बनाने का केंद्र था. वहां आने-जाने के लिए रेल मार्ग सुविधाजनक साधन था. बंगाली परिवार हजारीबाग रोड (सरिया) में बसने लगे. उन्होंने बताया कि 1938 ईस्वी में हजारीबाग जिला के रामगढ़ में कांग्रेस का महाअधिवेशन हुआ था. इसमें भाग लेने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस पहुंचे थे. इस दौरान सरिया में रहकर उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी.

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बिहार भवन के केयरटेकर भातू कोल्ह की मानें तो उनके बंगले का मालिक ज्योतिष चंद्र घोष 1925-30 के बीच कोलकाता में कॉर्पोरेशन में उच्च अधिकारी थे. वे स्वयं सरिया क्षेत्र के गांव से मजदूरों को कोलकाता ले जाया करते थे. उनका आना-जाना सरिया में लग रहा था. जिस कारण स्थानीय जमींदारों द्वारा उन्हें जमीन देकर बसाया गया. मामा-भांजा की दो अलग-अलग भव्य बिल्डिंग बलीडीह में अवस्थित है. जिनकी देखरेख केयरटेकर भातू कोल्ह कर रहे हैं. मकान खंडहर में तब्दील होने लगा है.

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हरिशंकर प्रसाद ने कहा कि बंगालियों के संपर्क में रहने के कारण इस क्षेत्र में शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय विकास हुआ. सरिया में एकमात्र हाइस्कूल था, जहां चौबे परसाबाद, बगोदर, विष्णुगढ़, राजधनवार, डुमरी आदि जगहों से छात्र पढ़ने आते थे. इन क्षेत्रों में झारखंडी संस्कृति तथा बंगाली संस्कृति का मिश्रण देखने को मिलता है. आज भी इन क्षेत्रों के लोग रुपये को अपने व्यावहारिक जीवन में टका बोलकर संबोधित करते हैं.

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