Ram Krishna Paramhans Jayanti: ‘‘ईश्वर एक है और सभी धर्मों का उद्देश्य उसी एक ईश्वर को प्राप्त करना है…’’ यह संदेश देनेवाले भारतीय साधक जगत् में वरेण्य रामकृष्ण परमहंस का मानना था कि ईश्वर का दर्शन किया जा सकता है. इसके लिए वे आध्यात्मिक चेतना की उन्नति को आवश्यक मानते थे. धर्म एवं संस्कृति के उन्नत केंद्र बंगाल के महान संत-साधक व धर्मोपदेशक श्री रामकृष्ण परमहंस गया तीर्थ के दिव्य प्रसाद थे, जिन्होंने ‘नर सेवा ही नारायण सेवा’ का मूल मंत्र दिया और महामाया काली के महान भक्त के रूप में जगत् विख्यात हुए.
दैव योग से ऋषि रूप में रामकृष्ण जैसे परम संन्यासी महात्मा इस धरती पर लोकोद्धार हेतु सदियों बाद आते हैं. कुंडली के आधार पर यह ज्ञात होता है कि रामकृष्ण का जन्म 18 फरवरी (कहीं-कहीं 16 फरवरी) 1836 ईस्वी को कामारपुकुर (पश्चिम बंगाल) में हुआ था और इन्हें बाल्यकाल में प्यार से ‘गदाधर’ पुकारा जाता था. इस संदर्भ में कटु सत्य है कि रामकृष्ण जी गया गदाधर विष्णु के प्रसाद स्वरूप थे, जो उनके पिताश्री के गया तीर्थ यात्रा के दौरान स्पष्ट अनुभव भी हुआ था.
विवरण मिलता है कि अपने युवा पुत्र रामकुमार को घर की जिम्मेदारी सौंपने के उपरांत खुदीराम चट्टोपाध्याय तीर्थ यात्रा पर चले गये और इस क्रम में कितने ही तीर्थों का भ्रमण-दर्शन किया. कुछ वर्षों बाद पुनः 1835 ई में खुदीराम को तीर्थ स्थल जाने का मन हुआ और इस बार वे पैदल ही मोक्ष नगरी गया तीर्थ की ओर चल पड़े. लगभग साठ वर्ष की अवस्था में चैत्र महीने में गया में उनका आगमन हुआ. यहां तकरीबन एक मास प्रवास के क्रम में उन्होंने शास्त्रोक्त विधि से गया गदाधर भगवान के श्री चरणों में पिंडदान किया, पर उन्हें ऐसा लगता रहा कि पता नहीं भगवान ने मेरी सेवा स्वीकार की अथवा नहीं…! उस रात खुदीराम यही सोचते-सोचते सो गये.
जानकारी मिलती है कि उसी रात खुदीराम को घोर निद्रा में एक स्वप्न आया और उन्हें ऐसा लगा मानो अपूर्व ज्योति से भगवान गदाधर का मंदिर भर गया. उन्होंने देखा कि वे गया गदाधर के चरणों में पिंड अर्पित कर रहे हैं और सभी पितर दिव्य देह धारण कर उस पिंड को आनंदपूर्वक ग्रहण कर रहे हैं. मंदिर में उपस्थित हुए पितरेश्वरों में श्रेष्ठ एक दिव्य पुरुष ने कहा- ‘‘खुदीराम! मैं तेरी भक्ति से बहुत संतुष्ट हूं. मैं तेरे घर पुत्र के रूप में अवतार लेकर तेरी सेवा नित्य प्रति ग्रहण करूंगा.’’
इतने में खुदीराम की नींद खुल गयी और उन्होंने निश्चय किया कि इस अद्भुत स्वप्न का फल जब तक प्रत्यक्ष न दिखाई दे, तब तक इस स्थान का वृत्तांत किसी से नहीं कहूंगा. गया करने के बाद जब अपने घर लौटे तो उनकी पत्नी चंद्रमणि ने भी कुछ ऐसी ही बात कही. इधर कुछ दिनों तक जिस दौरान परमहंस मां के गर्भ में थे, माताजी को स्वप्न में विभिन्न देवी-देवताओं के दर्शन होते रहते थे. कभी उन्हें अपने शरीर से तरह-तरह की सुगंध आती हुई अनुभव होता, तो कभी ऐसा लगता था जैसे कोई देवगण उनसे वार्तालाप कर रहे हों.
एक दिन भयभीत होकर उन्होंने पति खुदीराम को बताया- ‘‘आजकल मुझे स्वप्न में इतने देवी-देवताओं के दर्शन होते हैं कि मैं कुछ आपको बता नहीं सकती. आज दोपहर को ही मुझे हंस पर बैठा एक दिव्य पुरुष दिखाई दिया. मुझे देखकर वह मुस्कुरा दिया, फिर अदृश्य हो गया. ऐसा क्यों हो रहा है? क्या मुझे कोई रोग तो नहीं हो गया?’’ तब ख्रुदीराम जी ने उन्हें समझाते हुए बताया कि ‘‘तुम्हारे गर्भ में एक महापुरुष पल रहा है. इसकी जानकारी एक दिन मुझे भी स्वप्न के माध्यम से गया तीर्थ में हुई थी. उसी महा दैव पुरुष के प्रभाव से तुम्हें ऐसे स्वप्न आते हैं, तुम अपने मन में किसी तरह की चिंता मत करो’’.
45 वर्ष की उम्र से पार की अवस्था में चंद्रमणि स्वयं को इस रूप में पाकर आश्चर्य मिश्रित खुशी से गदगद हो गयीं, जिसका तनिक आभास भी उन्हें नहीं था. देखते-देखते प्रौढ़ावस्था प्राप्त दंपती को साल के अंदर ही एक दिव्य आभा से युक्त बालक का आविर्भाव उनके घर हुआ. इस कारण उनके बचपन का नाम भी ‘गदाधर’ रखा गया और तो और, इनके जीवन के प्रमुख साथी का नाम भी ‘गया विष्णु’ था, जो पिता की मृत्यु के बाद और साधु-संतों के संपर्क के पूर्व गदाधर का परम प्रिय बना रहा. ऐसे रामकृष्ण के फुआ का नाम गया के एक प्राचीन पर्वत के नाम की भांति ‘रामशिला’ था, जो उन्हें मातृवत् प्यार करती थीं. देश के अन्यान्य तीर्थों में भ्रमण उपरांत भी रामकृष्ण गया कभी नहीं आये, जबकि वे नित्य गया तीर्थ की वंदना करते थे और गदाधर विष्णु के परम उपासक थे.
उन्हें इस बात का देव आभास था कि गया आने पर उनका शरीरांत हो जायेगा. रानी दास मणि के दामाद माथुर बाबू के द्वारा पहली बार रामकृष्ण कहने के बाद गदाधर संपूर्ण दुनिया जहान में रामकृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हो गये और जीवन के अंतिम दिनों में जब उन्हें मृत्यु का साक्षात आभास हो गया, तब अपने प्रिय शिष्य नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) को बुलाकर गंभीर स्वर में कहा- ‘‘मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं तुम्हें सौंपता हूं. अपनी सभी शक्तियां मैं तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट करता हूं. इन शक्तियों के द्वारा तुम विश्व में महान कार्य कर सकोगे’’.
15 अगस्त, 1886 ई को रामकृष्ण जी के महासमाधि लेने के पूर्व भी ‘गया गदाधर’ का जयघोष किया गया. गया तीर्थ से अभिन्न रूप से जुड़े रहे रामकृष्ण परमहंस जी.
सचमुच, धर्म एवं संस्कृति के उन्नत केंद्र बंगाल के महान संत-साधक व धर्मोपदेशक श्री रामकृष्ण परमहंस गया तीर्थ के दिव्य प्रसाद थे, जिन्होंने ‘नर सेवा ही नारायण सेवा’ का मूल मंत्र दिया और महामाया काली के महान भक्त के रूप में जगत् विख्यात हुए.
रामकृष्ण परमहंस का संदेश
यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहं भाव को दूर करो, क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का पर्दा कदापि न हटेगा. तपस्या, सत्संग, स्वाघ्याय आदि साधना से अहंकार को दूर कर आत्मज्ञान प्राप्त करो और ब्रह्म को जानो.
रामकृष्ण परमहंस
अंतर्मन को प्रेरित करते हैं श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन से जुड़े ये प्रसंग
क्या होती है दिव्य अनुभूति
अपने जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) ने कई लोगों से मिलकर दैवीय अनुभूति के विषय में जानना चाहा, परंतु संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. अंत में वे श्री रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर गये. नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण से पूछा- ‘‘दिव्य अनुभूति क्या होती है? क्या आपको कभी हुई है? मुझे कैसे हो सकती है? क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है’’?
श्री रामकृष्ण ने उत्तर दिया- ‘‘हां! मैने देखा है! ठीक उसी तरह जैसे तुम्हें देख रहा हूं. मैं तुम्हारे भीतर देख रहा हूं, तुम्हें देखकर मुझे दिव्य अनुभूति हो रही है’’!
श्री रामकृष्ण परमहंस के उत्तर ने और उनके शरीर से निकलने वाली तरंगों ने नरेंद्र के जीवन को बदल दिया. नरेंद्र ने जो अनुभव किया; उन्हीं के शब्दों में-
‘‘न तो वेशभूषा या शरीर की ओर उनका ध्यान था, और न ही संसार के प्रति आकर्षण. आंखों में अंतर्मुखता स्पष्ट झलक रही थी और ऐसा लगता था, मानो मन का एक अंश सदा ही कहीं भीतर ध्यानमग्न हो. कलकत्ते के भौतिकवादी वातावरण से इस प्रकार अध्यात्मिक चेतना संपन्न व्यक्ति के आगमन से मैं चकित रह गया.”
अपने शिष्यत्व के प्रारंभिक दिनों में नरेंद्रनाथ श्री रामकृष्ण से बहुत तर्क-वितर्क किया करते थे. बाद के दिनों में गुरु के कृपा से धीरे-धीरे नरेंद्र को आध्यात्मिकता का स्पष्ट अनुभव होने लगा. साथ ही साथ उनकी गुरुभक्ति बढ़ती चली गयी और वे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए.
भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का रहस्य
श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने शिष्यों को कुछ समझाना होता तो उपमा और दृष्टांतों के जरिये समझाते थे. एक बार वे शिष्यों को समझा रहे थे कि जीवन में आये अवसरों को व्यक्ति साहस तथा ज्ञान की कमी के कारण खो देता है. अज्ञानता के कारण उस अवसर का महत्व नहीं समझ पाता. समझकर भी उसके पूरे लाभो का ज्ञान न होने से उसमें अपने आपको पूरी शक्ति से लगा नहीं पाता. शिष्यों की समझ में यह बात ठीक ढंग से न आ सकी. तब परमहंस जी बोले- ‘‘नरेंद्र, कल्पना कर तू एक मक्खी है. सामने एक कटोरे में अमृत भरा है. तुझे यह पता है कि यह अमृत है, बता उसमें एकदम तू कूद पड़ेगा या किनारे बैठकर उसे स्पर्श करने का प्रयास करेगा’’?
उत्तर मिला- ‘‘किनारे बैठ कर स्पर्श करने का प्रयास करूंगा. बीच में एकदम कूद पड़ने से अपने जीवन अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है’’. साथियों ने नरेंद्र की विचारशीलता को सराहा, किंतु परमहंस जी हंस पड़े. बोले- ‘‘मूर्ख जिसके स्पर्श से तू अमरता की कल्पना करता है, उसके बीच में कूदकर, उसमें स्नान करके, सरोवर होकर भी मृत्यु से भयभीत होता है’’.
उस दिन शिष्यों ने यह रहस्य समझा कि चाहे भौतिक उन्नति हो या आध्यात्मिक, जब तक आत्मशक्ति का पूर्ण समर्पण नहीं होता, सफलता नहीं मिल सकती.
लोभ-मोह रहित हैं भगवान
रामकृष्ण परमहंस के शिष्य मथुरा बाबू ने एक मंदिर बनवाया और उसमें भगवान की मूर्ति स्थापित करा दी गयी. मूर्ति बड़ी लुभावनी थी. वस्त्राभूषण से साज-संवार की गयी थी. कुछ ही दिन बीते होंगे कि चोर मूर्ति के कीमती आभूषणों को चुरा ले गये. प्रतिमा अब उतनी आकर्षक नहीं लग रही थी. मथुरा बाबू उदास होकर बोले कि ‘‘भगवान आपके हाथ में गदा और चक्र, दो-दो हथियार लगे रहे, फिर भी चोर चोरी कर ले गये. इससे तो हम मनुष्य ही अच्छे. कुछ तो प्रतिरोध करते ही’’. पास खड़े रामकृष्ण यह वार्तालाप सुन रहे थे. वे बोल पड़े- ‘‘मथुरा बाबू! भगवान को गहनों और जेवरों का तुम्हारी तरह लोभ नहीं. और फिर उनके भंडार में कमी किस बात की है, जो रात भर जागते और तुच्छ गहनों की रखवाली करते’’.
निस्पृह माता
रामकृष्ण परमहंस की माता एक बार कलकत्ता आयीं और कुछ समय स्नेहवश पुत्र के पास रहीं. दक्षिणेश्वर मंदिर की स्वामिनी रासमणि ने उन्हें गरीब और सम्मानस्पद समझ कर तरह-तरह के कीमती उपहार भेंट किये. वृद्धा ने उन सभी को अस्वीकार कर दिया और मान रखने के लिए एक इलाइची भर स्वीकार की. उपस्थित लोगों ने कहा- ऐसी निस्पृह मातायें ही परमहंस जैसे पुत्र को जन्म दे सकती है.
डॉ राकेश कुमार सिन्हा 'रवि', धर्म एवं संस्कृति के जानकार