Nagpuri Folk Music: जन नजातीय जीवन के कई रंग हैं और इन रंगों को इंद्रधनुषी छटा देते हैं मल्हार और फागुन के अनंत राम उमंग, नागपुरी लोकगीतों की ताजगी और मिठास की कोई सानी नहीं, हर संस्कार के लिए जनजातियों के पास कुछ न कुछ सहज शेष है, जिसे प्रेमिल भाव से लयबद्धता के साथ परोसा जाता है, खास तौर से फम्मू, खत्री, फगिनाही, डोल, टूटा आदि तो इनकी लोक परंपरा में ऐसे रचे-बसे है, मानो दूध में पानी. यहां पुरुष समाज द्वारा लहसुवा, ठढ़िया जैसे मर्दाना झुमर गीतों को नृत्यरत होकर ओजपूर्ण अंदाज में गाने की परंपरा रही है. जीवन के तमाम अवसरों के लिए नागपुरी भाषा में प्रचुर संख्या में गीत उपलब्ध हैं. फागुन के आगमन को जहां ‘पुरना पतई झारी, नावा नजीके डारी, आम-जाम रे मरे खलो मंजर संचार, जस भावे चुका गरहल कुमार है’, के माध्यम से बयान किया जाता है, वहीं विवाह से विदाई की सभी रस्मों के लिए ‘कुसुमी से फूली गेल रने बने बीजू बने, सायो चही देखयं कनेया कर नांच, कतई दल-वरियाते आवयं, सूने मोर दामाचे आवयं” के जरिये भावाभिव्यक्ति की जाती है.
ये लोक गीत हुए काफी फेमस
गीतों में सामाजिक चिंताओं, कुप्रथाओं, शिक्षा और पर्यावरण की पीड़ा भी केंद्र में है. देशभक्ति के गीत भी हैं. किसी समय झारखंड राज्य की मांग से जुड़े आंदोलनों में नागपुरी कोरा गीतों की बड़ी भूमिका रही थी. ‘देश छोड़व न, मादी छोरब न’ जैसे गीत बहुत लोकप्रिय हुए, ‘मेठ मुंशी मार तय डूबकीचा’ जैसे गीत भ्रष्टाचार की बखिया उधेड़ते हैं. सिर्फ रचना के लिए रचना का महत्व नहीं होता जब उसकी कोई सामाजिक राजनीतिक उपादेयता न हो. नागपुरी लोक गीतकारों ने इसे पूरी प्रतिबद्धता के साथ साचित किया है. उनकी भाषा इतनी समृद्ध और शालीन रही कि इसमें कहीं अश्लीलता या फूहड़ता का पुट दिखा ही नहीं, रांची, गुमला, खूंटी और लोहरदगा जिलों की सृजनशील उर्वर भूमि ने कई बेशकीमती और मूल्यवान नागपुरी गीतों को जन्म दिया.
लोकगीतों को सुनकर मिलती है ताजगी
उन लोकगीतों में जितनी ताजगी और सुकून है, वह विरल है, सहजता और मिठास में इनकी कोई सानी नहीं, मेहनत-मजूरी की थकान से उबरने और जीवन को नयी उमंग और स्फूर्ति देने के लिए आज भी इन लोकगीतों का सहारा लिया जाता है. समय और आधुनिकता ने भले ही नागपुरी के तेवर बदले हैं, लेकिन ‘कतई नींदें सुतल भौजी, खोल नी केवारी हो, ढोल मांजर बाजे रे, बहुते माजा लागे’ जैसे देवर-भाभी की हंसी ठिठोली वाले गीत मन को गुदगुदते हैं. हृदय को पवित्र भावों से भरकर उसमें आनंद और उत्साह के बीज बो देने वाले ये लोकगीत वास्तव में मौखिक लोक परंपरा के अनुपम व श्रेष्ठ उपहार हैं. हृदय के स्पंदन को समझना है, तो लोकगीतों को समझना होगा, क्योंकि रागों के इंद्रधनुषी तार यहीं झंकृत होते हैं. जीवन के राग फाग भी यहीं से रंग पाते हैं, आदिवासी ही अपनी इस धरोहर के असली संरक्षक है, इसे आधुनिकता की मार से बचाना होगा.
डॉ दर्शनी प्रिय- टिप्पणीकार
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