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संयम व ज्ञान की प्रतिमूर्ति थे आचार्य विद्यासागर महाराज

यदि हम अपने जीवन, समाज, देश और दुनिया को बेहतर बनाना चाहते हैं, शांतिपूर्ण सभ्यता का विकास चाहते हैं, तो हमें आचार्य विद्यासागर महाराज के संदेशों को अपनाना चाहिए. जितना संभव हो सके, उनके आदर्शों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए.

आचार्य विद्यासागर महाराज की गणना जैन समाज के सबसे प्रतिष्ठित संतों में की जाती है. उनका देह त्याग विश्व और राष्ट्र के लिए क्षति तो है ही, जैन धर्म और दिगंबर पंथ के लिए यह बहुत बड़ी हानि है. हम शीघ्र उनकी मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं. उनके संदेश और कार्य हमारे लिए सदैव अनुकरणीय और प्रेरणादायी बने रहेंगे. आचार्य जी का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के बेलगांव जिले में स्थित चिक्कोड़ी ग्राम में हुआ था. वे आचार्य ज्ञानसागर के शिष्य थे, जिन्होंने समाधि लेते हुए अपना पद मुनि विद्यासागर को दे दिया था. मात्र 26 वर्ष की अवस्था में 22 नवंबर 1972 को वे आचार्य हुए. उन्होंने 22 वर्ष की आयु में दिगंबर साधु के रूप में दीक्षा ग्रहण की थी. आचार्य विद्यासागर महाराज ने सैकड़ों लोगों को दीक्षा दी थी, जिनमें उनके माता-पिता भी शामिल थे. उनका जीवन जैन धर्म और दर्शन के अध्ययन में बीता. अध्यात्म से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना भी उन्होंने की. वे संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, मराठी और कन्नड़ के ज्ञाता थे. उनकी रचनाओं को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित किया गया है. उनके लिखे पर कई शोध भी हो चुके हैं. उनके त्याग, उनकी तपस्या और मानव कल्याण के लिए समर्पण को हमेशा याद रखा जायेगा तथा उससे प्रेरणा प्राप्त की जायेगी.


सृष्टि में हर उपस्थिति का अपना योगदान होता है, पर साधु, संत और मुनि हमें बहुत कुछ देकर जाते हैं. आचार्य विद्यासागर महाराज से हमें संयम की शिक्षा मिलती है. उन्होंने पैदल समूचे देश का भ्रमण किया था. वे कर्नाटक में जन्मे और छत्तीसगढ़ में उन्होंने समाधि ली. उन जैसे मुनियों के लिए स्थान और सीमा का कोई अर्थ नहीं होता. वे किसी स्थान विशेष के आकर्षण के कारण नहीं टिकते. वे अपनी साधना के अनुरूप कहीं वास करते हैं. कई बार ऐसा होता है कि बड़े नगरों में मुनियों को अपनी चर्या को निभाने में कठिनाई होती है. आचार्य विद्यासागर महाराज सामान्य दाल और रोटी खाते थे. जीवनभर उन्होंने चीनी, नमक, हरी सब्जी, दूध-दही आदि का सेवन नहीं किया. पूरे वर्ष, चाहे जो भी मौसम हो, वे बिना चादर, गद्दे के एक तख्त पर एक करवट में सोते थे. ऐसी तपस्या के लिए उन्हें बुंदेलखंड उचित प्रतीत हुआ होगा. लेकिन, जैसा कि पहले कहा गया है, उन्होंने पूरे देश की पैदल यात्रा की थी. वे यात्रा के लिए कोई योजना नहीं बनाते थे. बस यात्रा पर निकल जाते थे.


उल्लेखनीय है कि संभवतः वे एकमात्र ऐसे आचार्य थे, जिनके समूचे परिवार ने संन्यास की दीक्षा ग्रहण की है. उनके प्रयासों से बुंदेलखंड क्षेत्र में कई विद्यालयों, अस्पतालों, सामुदायिक केंद्रों की स्थापना हुई है. गौशाला बनवाने, हाथकरघा के विकास, बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन जैसे कार्य भी उनकी उपलब्धियों में शामिल हैं. हम सब जानते हैं कि वह क्षेत्र विकास के मामले में बहुत पीछे रहा है. ऐसे में हम इन कार्यों के महत्व को समझ सकते हैं. इन कार्यों के कारण वे बहुत लोकप्रिय और आदरणीय रहे. आचार्य विद्यासागर महाराज जैसे मुनियों के लिए कोई कर्मस्थली नहीं होती. ये धरती पर पद विहार करते हैं. इनमें अपने और पराये स्थान का भाव नहीं होता. उनके समाधिस्थ होने के साथ दिगंबर पंथ का बहुत महान प्रतिनिधि चला गया. दिगंबर समाज को आगे बढ़ाने में, गौरव दिलाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है. उनका जाना समूचे विश्व और देश के लिए नुकसान तो है ही, पर जैन समाज, विशेषकर दिगंबर समाज, के लिए बड़ी क्षति है. उन्होंने संयम का जो पाठ पढ़ाया, प्रेरणा दी, उसकी वे स्वयं प्रतिमूर्ति थे. समय का मान रखने और स्वस्थ जीवन के आचार-व्यवहार अपनाने का संदेश दिया. वे बालिकाओं की शिक्षा को महत्वपूर्ण मानते थे और इसके लिए उन्होंने गुरुकुल प्रणाली के तहत केंद्रों की स्थापना की. वे समाज कल्याण के लिए आजीवन समर्पित रहे. देश के विकास के लिए उन्होंने देश में बनीं वस्तुओं को अपनाने की सलाह दी. हथकरघा केंद्रों की स्थापना से रोजगार सृजन भी हुआ और पारंपरिक शिल्प का संरक्षण भी सुनिश्चित हुआ.
यदि हम अपने जीवन, समाज, देश और दुनिया को बेहतर बनाना चाहते हैं, शांतिपूर्ण सभ्यता का विकास चाहते हैं, तो हमें आचार्य विद्यासागर महाराज के संदेशों को अपनाना चाहिए. जितना संभव हो सके, उनके आदर्शों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए. यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धा होगी और हमारा जीवन भी अच्छा होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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