अमूमन ऐसा होता है कि आर्थिक विकास पर अधिकांश चर्चा आंकड़ों से परे जाकर होती है क्योंकि आंकड़े कई दफा तस्वीर का वह रुख पेश नहीं कर पाते, जिसे हम महसूस करते हैं. मसलन, देश की अर्थव्यवस्था का लगातार बढ़ता आकार क्या यह महसूस कराता है कि हर व्यक्ति भी उसी तरह विकसित हो रहा है? इस संदर्भ में अलग-अलग सोच है, जैसे व्यक्ति के स्तर पर पहली प्राथमिकता आय का बढ़ना होती है, जबकि सरकार की आर्थिक नीतियों के संदर्भ में प्राथमिकता वित्तीय खर्चों या उपभोग क्षमता में लगातार बढ़ोतरी होती है. केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वन मंत्रालय द्वारा हाल में प्रकाशित पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 की रिपोर्ट के आंकड़े इंगित कर रहे हैं कि भारत में अब मात्र पांच प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. वहीं दूसरी तरफ 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन भी दिया जा रहा है. इन दो तथ्यों में आपसी तालमेल नहीं दिखता है, जिसके कारण आर्थिक विकास पर अधिक स्पष्ट रुख विकसित नहीं हो पाता. यह समझना आवश्यक है कि गरीबी शब्द का विश्लेषण भी समय के साथ बदल रहा है. साठ-सत्तर के दशकों में फुटपाथ पर सोने वालों को अत्यंत गरीबों में गिना जाता था, जो अब बड़े शहरों में तुलनात्मक रूप से बहुत कम हो गया है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गरीबी कम हो गयी क्योंकि अब फुटपाथ का स्थान कच्ची बस्तियों व झुग्गियों ने ले लिया है. यह भी सच है कि ऐसी बस्तियों में अब मूलभूत सुविधाओं के अभाव में कमी जरूर आयी है, लेकिन इससे यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि वहां रहने वाला व्यक्ति अब गरीब नहीं रहा.
निश्चित रूप से पिछले कुछ दशकों में भारत में तीव्र आर्थिक विकास हुआ है. इसलिए अब गरीबी के विश्लेषण में मुख्यतः दो बातें देखने को मिलती हैं. एक, देश के अधिकतर लोग अब उतने गरीब नहीं हैं. दो, अभी भी अधिकतर लोग गरीब हैं. इन दोनों जटिल बातों का सारांश यह है कि व्यक्ति की आय जरूर बढ़ी है, पर उसकी रफ्तार धीमी है. ताजा सर्वेक्षण, जो वर्तमान में व्यक्ति की खरीदारी के पैटर्न के विभिन्न आयामों को बताता है, ने इसे अच्छे ढंग से समझाने की कोशिश की है कि भारत में अब उपभोग क्षमता या खरीदारी के आधार पर मात्र पांच प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. इस सर्वेक्षण से दूसरा मुख्य तथ्य यह सामने आया है कि अब भारत में ग्रामीण व शहरी आबादी की खरीदारी की क्षमता का अंतर बड़ी तेजी से कम हो रहा है. करीब 20 वर्ष पूर्व इन दो तबकों की खरीद क्षमता का अंतर लगभग 91 प्रतिशत था, जो अब 71 प्रतिशत पर आ गया है.
तीसरा मुख्य तथ्य पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण की रिपोर्ट से यह निकलता है कि प्रत्येक भारतीय की क्रय क्षमता 2010 के बाद करीब तीन गुना बढ़ी है, हालांकि इस दौरान महंगाई भी दो गुना हुई है. इस संबंध में रिपोर्ट में अन्य रोचक बातें भी देखने को मिली हैं, जैसे भारतीयों की खरीदारी के रुझान में भोजन पर तुलनात्मक रूप से खर्च कम हुआ है. साल 1999 में एक व्यक्ति अपने मासिक 100 रुपये के खर्च में लगभग 59 रुपये खाद्य पदार्थों पर खर्च करता था. यह खर्च अब 47 रुपये हो गया है. इसका आशय यह नहीं है कि इसी कारण आधी से अधिक आबादी को सरकार मुफ्त में राशन वितरित कर रही है, बल्कि यह समझना है कि पिछले तीन दशक में शिक्षा और चिकित्सा पर प्रत्येक व्यक्ति का खर्च 70 प्रतिशत से अधिक हो गया है. चकित करने वाली बात यह है कि हमारे देश में यातायात व आवागमन सुविधाओं पर व्यक्ति का पिछले तीन दशक में खर्च 150 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है.
इस रिपोर्ट से गांवों में गरीबी को अगर समझने की कोशिश करें, तो ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति मासिक क्रय क्षमता औसतन 3,860 रुपये पायी गयी है, जिससे वर्तमान समय में 10 राज्य नीचे हैं, जिनमें गुजरात भी शामिल है. इन राज्यों में सबसे नीचे छत्तीसगढ़, झारखंड व ओडिशा हैं. शहरी आबादी की प्रति व्यक्ति मासिक औसतन क्रय क्षमता 6,521 रुपये है. इसमें सबसे उच्च स्तर पर तेलंगाना और हरियाणा हैं. ऐसा हैदराबाद व गुरुग्राम की वजह से है. शहरी क्रय क्षमता में बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश का पिछड़ना इस ओर भी इशारा करता है कि अब इन राज्यों में कुछ बड़े शहरों को विकसित करना अत्यंत आवश्यक है. क्रय क्षमता में सबसे ऊपर दक्षिण के राज्य हैं. फिर उत्तर-पूर्व, उत्तर और पश्चिम के राज्य हैं. सबसे नीचे पूर्वी भारत के राज्य हैं. यह विश्लेषण भी सामने आया है कि खाद्य पदार्थों की खरीद में ग्रामीण तथा शहरी रुझान अब दाल, तेल, चावल, गेहूं से हटकर सब्जियों व फलों, मांस व अंडे, मछली तथा दूध की तरफ तेजी से बढ़ा है, जो कृषि नीति में बदलाव की तरफ एक नयी सोच पैदा करने की तरफ संकेत करता है. न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की सुविधा वाली फसलें भी किसानों को आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं कर पा रही हैं क्योंकि बाजार में उनकी मांग और खरीद कम है. ऐसे में उनकी कीमतें गिर जाती हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)