चुनावी बॉन्ड की भ्रष्ट व्यवस्था को रद्द करने के बाद नेताओं की घूसखोरी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया है. प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेताओं ने इसका स्वागत किया है. इससे साफ है कि यह फैसला लोकतंत्र को मजबूत करने और राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में अहम कदम साबित हो सकता है. आर्थिक सुधारों और बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ सीपीएम ने 1993 में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था. सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों समेत 12 सांसदों को करोड़ों रुपये की रिश्वत देने की शिकायत दर्ज हुई थी. सीबीआइ ने नरसिम्हा राव, बूटा सिंह, वीरप्पा मोइली, अजीत सिंह और भजनलाल जैसे बड़े नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश और घूसखोरी के लिए चार्जशीट दायर किया था. ट्रायल कोर्ट में राव समेत कई नेताओं और कारोबारियों को तीन साल की सजा सुनाई गयी थी. लेकिन 1998 में सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच में तीन जजों के बहुमत से राव के खिलाफ मामला रद्द कर दिया गया. जजों के अनुसार, संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के तहत सांसदों और 194 (2) के तहत विधायकों को सदन में बोलने और वोट देने के विशेषाधिकार हैं तथा संवैधानिक संरक्षण होने के नाते उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता.
उस फैसले से झामुमो के प्रमुख शिबू सोरेन भी बरी हो गये थे. कई साल बाद 2012 में उनकी बहू सीता सोरेन के खिलाफ राज्यसभा चुनाव में वोट देने के लिए घूस लेने की शिकायत दर्ज हुई. नरसिम्हा राव मामले के आधार पर सीता सोरेन ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले को रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी. लेकिन 2014 में झारखंड हाईकोर्ट ने उनके मामले को रद्द करने से इंकार कर दिया. अब दस साल बाद सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से पांच जजों के पुराने फैसले को पलट दिया है. सुप्रीम कोर्ट से शिबू सोरेन को राहत मिल गयी थी, लेकिन उनकी बहू सीता को अब मुकदमे का सामना करना पड़ेगा. घूस लेकर सदन में वोट देने से जुड़े पुराने मामले में पीवी नरसिम्हा राव और जनता दल के नेता अजीत सिंह प्रमुख किरदार थे. दिलचस्प है कि नरसिम्हा राव और अजीत सिंह के पिता चरण सिंह को इस वर्ष भारत रत्न से नवाजा गया है. इस फैसले के अनेक रोचक पहलू हैं. साल 1998 के फैसले में अल्पमत वाले दो जजों के फैसले से अब सात जजों की बेंच ने पूर्ण सहमति जतायी है. पुराने फैसले में भ्रष्ट नेताओं को संविधान संरक्षण की आड़ में विशिष्ट दर्जा दिया गया था. नये फैसले से समानता का सिद्धांत सही अर्थों में लागू किया गया है. संविधान के अनुसार सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता. विधानसभा और लोकसभा के भीतर सदस्यों को अनेक विशेषाधिकार हासिल हैं. इसीलिए आपत्तिजनक भाषण के लिए उनके खिलाफ सदन के नियमों के तहत कार्रवाई हो सकती है, लेकिन आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता. इसी तरह सत्र के दौरान विधायक या सांसद की गिरफ्तारी के बारे में स्पीकर को सूचना देना जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले के बाद विशेषाधिकार के नाम पर विधायकों और सांसदों को भ्रष्ट आचरण का लाइसेंस मिल गया था. अब नये फैसले के बाद घूसखोरी के सभी मामलों में उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो सकेगा.
संविधान पीठ के फैसले के अनुसार संसदीय विशेषाधिकारों के तहत रिश्वतखोरी को संवैधानिक संरक्षण हासिल नहीं है. इस फैसले का असर पूर्व सांसद महुआ मोइत्रा के मामले में भी हो सकता है. महुआ ने यह स्वीकारा है कि उन्होंने सरकारी ईमेल का पासवर्ड तीसरे व्यक्ति के साथ शेयर किया था. उनके अनुसार सभी सांसद ऐसा करते हैं, इसलिए उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं बनता, जबकि सीबीआई के अनुसार महुआ ने उद्योगपति से पैसे लेकर संसद में सवाल पूछे, जिसके बाद स्पीकर ने महुआ को अयोग्य घोषित कर दिया. जनप्रतिनिधियों के भ्रष्ट आचरण से जुड़ा बड़ा पहलू पद और पैसे के लिए दल-बदल करना है. ऐसे मामलों में संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत स्पीकर को अयोग्यता निर्धारित करने का अधिकार है. लेकिन दल-बदल के मामलों में भ्रष्ट आचरण का आपराधिक मामला नहीं बनता. लेकिन इस फैसले के बाद पैसे लेकर दल-बदल करने वाले नेताओं और रिजॉर्ट पॉलिटिक्स के बढ़ते रिवाज पर अंकुश लगेगा. कानून के अनुसार विधायकों और सांसदों को लोकसेवक मानने में विरोधाभास है. इस बारे में दायर जनहित याचिका को 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया था. इसलिए इस बारे में संसद को भी स्पष्ट कानून बनाने की जरूरत है. चुनावी बॉन्ड योजना से पैसे लेने को सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्ट आचरण माना था. उसी तरह नगद पैसे लेने के साथ अवैध तरीके से गिफ्ट, सेवा और पद लेना भी भ्रष्टाचार के दायरे में आता है.
इसलिए दल-बदलू नेताओं के विरुद्ध भी मुकदमा दर्ज हो सकता है.
यह मामला नोट फॉर वोट से जुड़ा था. लेकिन इस फैसले के बाद सभी प्रकार की रिश्वतखोरी के लिए विधायकों और सांसदों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज हो सकेगा. कमीशन लेकर विधायक निधि और सांसद निधि का पैसा खर्च करने वालों की भी खैर नहीं रहेगी. कानून के अनुसार रिश्वत लेने वाले का साथ देने वाला भी अपराधी होता है. विधायक या सांसद गलत तरीके से पैसे लेकर बदले में वोट या समर्थन नहीं भी दें, तो भी भ्रष्टाचार का मामला बनेगा. इसलिए अब उन लोगों के खिलाफ भी आपराधिक मुकदमा दर्ज होना चाहिए, जो पैसे, पद और प्रभाव के दम पर नेताओं को खरीदकर लोकतंत्र को खोखला कर रहे हैं. साल 2008 में कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास प्रस्ताव के दौरान सांसदों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगे थे. उस मामले में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने दिल्ली पुलिस में मुकदमा दर्ज कराया था. उसके बाद भाजपा के तीन सांसदों समेत सपा सांसद अमर सिंह को भी जेल जाना पड़ा था. लेकिन कुछ साल बाद उन्हें अदालत से क्लीन चिट मिल गयी थी. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले के बावजूद सबूतों के आधार पर दागी नेताओं को अदालत में दोषी ठहराना बड़ी चुनौती रहेगी. कोलकाता हाईकोर्ट के जज के रिटायरमेंट लेने और राजनीति में आने से जजों की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. ऐसे माहौल में सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले से न्यायपालिका के साथ जजों का भी रसूख बढ़ा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)