वर्तमान वित्त वर्ष 2023-24 की तीसरी तिमाही (अक्तूबर-दिसंबर 2023) में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 8.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है. यह सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है. यह बहुत सुखद है कि महामारी के बाद लगातार तीन साल से अर्थव्यवस्था अच्छी दर के साथ बढ़ रही है. इससे सभी खुश हैं और स्टॉक बाजार ने भी उछाल के साथ वृद्धि का स्वागत किया है. शेयर बाजार में लगातार बढ़त निवेशकों की आशावादिता को दर्शाती है. सेमीकंडक्टर निर्माण में 15 अरब डॉलर के निवेश जैसी कई घोषणाओं से इंगित होता है कि अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर उत्साह और विश्वास बना हुआ है. इस 8.4 प्रतिशत की वृद्धि को समझने के लिए गहनता से विचार करना आवश्यक है. ऐसा विशेष रूप से इसलिए आवश्यक है क्योंकि इस उच्च वृद्धि ने सभी अनुमानों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. मसलन, रिजर्व बैंक के सर्वे में हाल ही में आकलन किया गया था कि इस वर्ष जीडीपी की वृद्धि छह से 6.9 प्रतिशत के बीच रह सकती है. दिसंबर की तिमाही के वृद्धि दर उस वार्षिक अनुमान से लगभग दो प्रतिशत अधिक हैं. अनुमान अक्सर गलत साबित होते हैं, पर उनमें इतना अधिक अंतर नहीं होता. अनुमान लगाने वाले अहम आंकड़ों के आधार पर हमेशा अर्थव्यवस्था पर नजर बनाये रखते हैं.
एक अन्य पहेली इसी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर और जोड़े गये कुल मूल्य (जीवीए) के बीच अंतर को लेकर है. जीवीए उत्पादित और बेचे गये वस्तुओं एवं सेवाओं के वास्तविक मूल्य को दर्शाता है. दुनियाभर में यह आर्थिक स्वास्थ्य का पसंदीदा सूचक है. अमूमन जीडीपी और जीवीए में मामूली अंतर होता है तथा यह सब्सिडी को छोड़कर करों के शुद्ध असर को प्रतिबिंबित करता है. अप्रत्यक्ष कर संग्रहण जीडीपी को बढ़ाता है, जबकि सब्सिडी जीडीपी को कम करती है. ये दो चीजें आम तौर पर एक दूसरे को संतुलित करती हैं. दिसंबर तिमाही में जीवीए वृद्धि दर केवल 6.5 प्रतिशत रही है, जो जीडीपी से करीब दो प्रतिशत कम है. यह अंतर बीते दस साल में सबसे अधिक है. ऐसा सब्सिडी में बड़ी कमी (50 फीसदी से भी ज्यादा) तथा अप्रत्यक्ष कर संग्रहण में बड़ी बढ़ोतरी के कारण हुआ है. हमें इस पर विचार करना चाहिए कि क्या ऐसा एक बार हुआ है या आगे भी उतार-चढ़ाव बना रह सकता है. बीती तीन तिमाहियों में जीवीए वृद्धि 8.2 से घटते हुए 6.5 प्रतिशत के स्तर पर आ गयी है. अगर 2023-24 की कुल वृद्धि दर 7.3 या 7.5 प्रतिशत रहती है, तो जनवरी-मार्च की चौथी तिमाही में जीवीए वृद्धि दर छह प्रतिशत से नीचे रह सकती है. वह आंकड़ा मई के अंत में जारी होगा.
एक और पहेली उपभोग व्यय की वृद्धि दर से संबंधित है. यह जीडीपी का 55 प्रतिशत से बड़ा हिस्सा है. यह केवल तीन प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है, जो कई वर्षों में सबसे कम है. उपभोक्ता खर्च में बड़ी बढ़ोतरी के बिना उच्च वृद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता है. यह उपभोक्ताओं की भावना, उनके वर्तमान व्यय और खर्च करने की योजना पर निर्भर करता है. उपभोक्ता भविष्य को लेकर तब आशावादी रहते हैं, जब उनकी रोजगार संभावनाएं अच्छी होती हैं. उच्च बेरोजगारी दर, विशेषकर शिक्षित युवाओं में, उपभोग खर्च को हतोत्साहित कर सकती है. हाल में 11 वर्षों के अंतराल के बाद घरेलू उपभोग सर्वेक्षण के आंकड़े सामने आये हैं. इस अवधि में औसतन उपभोग वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में 164 और शहरी क्षेत्रों में 146 प्रतिशत रही है. इन आंकड़ों में मुद्रास्फीति को समायोजित नहीं किया गया है. यदि मुद्रास्फीति का संज्ञान लिया जाए, तो 11 वर्षों में उपभोग की वास्तविक वृद्धि दर ग्रामीण भारत में 40 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में 34 प्रतिशत रह जाती है. इस प्रकार, राष्ट्रीय सैंपल सर्वे (एनएसएस) के आधार पर उपभोग वृद्धि लंबे समय से मात्र 3.5 प्रतिशत है. एनएसएस और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के उपभोग आंकड़ों में बड़ा अंतर है. फिर भी दो चश्मे से आंकड़ों को देखना और कुछ समानता पाना तथा मापन की खामियों को दूर करना जरूरी है. तथ्य यह है कि उच्च जीडीपी वृद्धि और निम्न उपभोग व्यय वृद्धि में तारतम्य नहीं है.
एक अहम पहलू, जिस पर हमें ध्यान से विचार करना है, औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्रों का प्रदर्शन है. जीडीपी का आकलन व्यय के पक्ष (जैसे, उपभोग, निवेश, निर्यात और सरकार) के आधार पर किया जा सकता है या फिर इसे उत्पादन पक्ष (जैसे, कृषि, उद्योग और सेवाएं) के आधार पर मापा जा सकता है. जब हम उत्पादन पक्ष को देखते हैं, तो पाते हैं कि कृषि क्षेत्र का विकास दिसंबर की तिमाही शून्य से नीचे चला गया. यह ऋणात्मक आंकड़ा आधार प्रभाव के रूप में विश्लेषित किया जाता है क्योंकि तिमाही के आंकड़ों को पिछले साल उसी अवधि की दर से तुलना कर तय किया जाता है. दिसंबर 2022 में कृषि वृद्धि दर पांच प्रतिशत से अधिक रही थी, जो एक ‘उच्च आधार’ था. इसलिए वर्तमान आंकड़ा ऋणात्मक है. ताजा आकलनों के अनुसार इस वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि में कृषि का कुल योगदान एक प्रतिशत से नीचे रहेगा. यह विभिन्न कारणों से चिंताजनक है, खासकर ग्रामीण परिवारों की आमदनी और जीवनयापन के लिहाज से. औद्योगिक वृद्धि भी इस बार 11 प्रतिशत इसलिए रही है क्योंकि साल भर पहले यह आंकड़ा मात्र 0.6 प्रतिशत रहा था.
अंत में, पहेली का एक मामला नॉमिनल और वास्तविक जीडीपी के अंतर से भी जुड़ा है. यह मुद्रास्फीति के कारण है और राष्ट्रीय स्तर पर इसे जीडीपी डिफ्लेटर के द्वारा ठीक किया जाता है. यह संख्या मात्र 1.6 प्रतिशत बतायी गयी है. इसका अर्थ यह है कि लगभग कोई मुद्रास्फीति नहीं है. लेकिन निश्चित रूप से यह आकलन बहुत ही कम है.
अगर जीडीपी बढ़ोतरी 8.4 प्रतिशत है, तो नॉमिनल जीडीपी वृद्धि के कम से कम 12 या 13 प्रतिशत होने की अपेक्षा की जा सकती है. पिछले साल से अगर तुलना करें, तो दिसंबर तिमाही में नॉमिनल हिसाब से दर केवल 10 फीसदी ज्यादा रही है. जीडीपी डिफ्लेटर बहुत नीचे रखा गया है. जीडीपी और जीवीए वृद्धि के बीच अंतर हो, जीडीपी और उपभोक्ता खर्च में अंतर हो, विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि कम हो या फिर डिफ्लेटर बहुत नीचे हो, ये सभी इंगित करते हैं कि जीडीपी के आंकड़ों को विभिन्न विस्तृत एवं निरंतर आते क्षेत्रवार आंकड़ों के साथ मिलाकर तैयार किया जाना चाहिए. इसके लिए नियमित रूप से डाटा संग्रहण करने वाली प्रणाली में व्यापक परिवर्तन करने की आवश्यकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)