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विदेशी व्यापार समझौते में सतर्कता जरूरी

कम शुल्कों के कारण यूरोपीय उत्पाद, जो अपनी उच्च गुणवत्ता और दक्षता के लिए जाने जाते हैं, सस्ते हो सकते हैं.

केसी त्यागी

बिशन नेहवाल


आखिर 16 साल की लंबी बातचीत के बाद 10 मार्च, 2024 को भारत ने यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (इएफटीए) के साथ एक ऐतिहासिक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये. इस संघ में स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, लिकटेंस्टीन और नॉर्वे शामिल हैं. इस समझौते में कुल 14 अध्याय हैं, जिनमें वस्तुओं से संबंधित बाजार पहुंच, उद्भव के नियम, व्यापार सुगमीकरण, व्यापार उपचार, स्वच्छता एवं पादप स्वच्छता उपाय, व्यापार से संबंधित तकनीकी बाधा, निवेश संवर्धन, सेवाओं पर बाजार पहुंच, बौद्धिक संपदा अधिकार, व्यापार एवं सतत विकास तथा अन्य प्रावधान शामिल हैं. इसमें 100 अरब डॉलर के निवेश और 10 लाख प्रत्यक्ष रोजगार की प्रतिबद्धता है. प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है. पहली समीक्षा के बाद दोनों पक्ष हर दो साल में समीक्षा करेंगे. यह व्यापार और आर्थिक साझेदारी समझौता (टीइपीए) दोनों पक्षों के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक लाभ का वादा करता है, लेकिन करीब से देखने पर भारत के लिए संभावित फायदे और चुनौतियों की एक जटिल क्रिया का पता चलता है. समझौते में आर्थिक सहयोग के विभिन्न पहलू शामिल हैं, जिनमें शुल्कों में कमी मुख्य है. भारत ईएफटीए देशों से होने वाले आयात पर लगभग 80-85 प्रतिशत आयात शुल्क खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है, जबकि इएफटीए 99.6 प्रतिशत भारतीय निर्यात के लिए शुल्क-मुक्त पहुंच प्रदान करता है. शुल्क कटौती से कुछ संवेदनशील कृषि उत्पादों को बाहर रखा गया है. इएफटीए के बाजार पहुंच प्रस्ताव में 100 प्रतिशत गैर-कृषि उत्पाद और प्रसंस्कृत कृषि उत्पाद पर शुल्क रियायत शामिल है. सोने पर शुल्क अछूता रहा है.
भारत में निवेश प्रोत्साहन इस समझौते का दूसरा मुख्य अंश है.

इएफटीए ने 15 वर्षों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) में 100 अरब डॉलर की बढ़ोतरी का लक्ष्य रखा है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भारत समझौते से बाहर निकलने के लिए स्वतंत्र होगा. यूरोपीय देशों के साथ हुआ यह समझौता सीमा शुल्क प्रक्रियाओं, व्यापार नियमों और तकनीकी बाधाओं को सरल बनाने, संभावित रूप से सीमाओं के पार माल के प्रवाह में तेजी लाने और व्यवसायों के लिए परिचालन लागत को कम करने का प्रयास करता है. यह समझौता आइपी सुरक्षा मानकों को मजबूत करता है, जिससे भारतीय कंपनियों को नवीन उत्पादों और बौद्धिक संपदा से लाभ हो सकता है. जेनेरिक दवाओं में भारत के हितों और पेटेंट से संबंधित चिंताओं को इसमें पूरी तरह से संबोधित किया गया है. टीइपीए के समर्थकों का मानना है कि यह समझौता भारत के लिए आर्थिक विकास के एक नये युग की शुरुआत करेगा. इस समझौते से विशेष रूप से भारतीय कपड़ा, दवाओं और कृषि उत्पादों (संवेदनशील वस्तुओं को छोड़कर) के निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि की उम्मीद है. लक्षित निवेश बुनियादी ढांचे के विकास, उद्योगों के आधुनिकीकरण और रोजगार सृजन के लिए पूंजी का एक बहुत जरूरी इंजेक्शन प्रदान कर सकता है. तकनीकी रूप से उन्नत इएफटीए देशों के भारत में निवेश से ज्ञान और तकनीक का हस्तांतरण होने की प्रबल संभावना है. बढ़े हुए व्यापार और निवेश से विभिन्न क्षेत्रों में 10 लाख रोजगार के नये अवसर पैदा होने की संभावना है. सरल व्यापार प्रक्रिया से भारतीय व्यवसाय विश्व स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकते हैं.
यह समझौता व्यापार बढ़ाने का वादा करता है, लेकिन भारतीय उद्योगों, खासकर कृषि क्षेत्र, के लिए चिंताएं भी पैदा करता है. बड़ी भारतीय कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने और वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की उनकी बेहतर क्षमता के कारण इस समझौते से अधिक लाभ हो सकता है.

समझौते के लाभ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से वितरित किये जा सकते हैं. बेहतर व्यापार अवसंरचना वाले तटीय क्षेत्रों को भौगोलिक रूप से वंचित क्षेत्रों की तुलना में अधिक लाभ हो सकता है. भारत जैसे विकासशील देश, जो अपने नवोदित उद्योगों को विकसित देशों में स्थापित कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए अक्सर आयातित वस्तुओं पर शुल्क, करों पर भरोसा करते हैं. मुक्त व्यापार समझौते अक्सर विकासशील देशों को शुल्क कम करने पर जोर देते हैं, जिससे सस्ता आयात होने से बाजार में विदेशी उत्पादों की बाढ़-सी आ जाती है, इससे स्थानीय व्यवसाय, रोजगार और घरेलू औद्योगिक विकास में बाधा आ सकती है. कम शुल्कों के कारण यूरोपीय उत्पाद, जो अपनी उच्च गुणवत्ता और दक्षता के लिए जाने जाते हैं, सस्ते हो सकते हैं. इससे भारतीय उत्पादों की कीमतों पर दबाव पड़ सकता है. यूरोपीय किसानों को अक्सर सरकार से मिलने वाली बड़ी सब्सिडी का लाभ मिलता है जो भारतीय किसानों को मिलने वाली सब्सिडी से बहुत ज्यादा है, जिससे वे कम लागत पर उत्पादन कर सकते हैं. इससे भारतीय किसानों के लिए अपने उत्पादों के लिए, विशेष रूप से कीमत के मामले में, प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो सकता है. यूरोपीय देशों में खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता के लिए कड़े मानक हैं. लंबी अनुमोदन प्रक्रियाएं यूरोपीय बाजारों तक उनकी पहुंच में बाधा डाल सकती हैं. इन मानकों को पूरा करने के लिए भारतीय किसानों की उत्पादन लागत बढ़ सकती है.


निर्यात जरूरतों को पूरा करने के लिए विशिष्ट फसलों की मांग बढ़ने से भारत में मोनोकल्चर खेती प्रथाओं की ओर रुझान हो सकता है, इससे मिट्टी के स्वास्थ्य, जैव विविधता और दीर्घकालिक कृषि स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. यूरोपीय दक्षता के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए, कुछ भारतीय किसान उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग का सहारा ले सकते हैं, जिससे पर्यावरण का क्षरण और संभावित जल प्रदूषण हो सकता है. आयात शुल्क देश के लिए आय का साधन के रूप में काम करते हैं. उनकी कमी से राजस्व की हानि होती है, जिससे कल्याणकारी योजनाओं के लिए बजट की कमी हो सकती है. हालांकि वैश्विक बाजारों तक पहुंच आवश्यक है, लेकिन घरेलू व्यवसायों के हितों से समझौता नहीं करना चाहिए. घरेलू कृषि और अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधों दोनों की सुरक्षा करने वाली नीतियां बनाना आवश्यक है. सरकार कृषि उत्पादकता और प्रतिस्पर्धा में सुधार लाने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश कर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. साथ ही, बुनियादी ढांचे और भंडारण सुविधाओं के उन्नयन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने से किसानों को निर्यात मानकों को पूरा करने में मदद मिल सकती है.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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