12.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

चुनाव में दांव पर विपक्ष की साख भी है

जब कांग्रेस की आज की तुलना में ज्यादा ताकतवर बहुमत की सरकारें होती थीं, तब डॉ राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, पीलू मोदी आदि जैसे कुछ विपक्षी सांसदों के चलते सरकारें अक्सर सवालों के घेरे में आ जाती थीं.

विश्व ने सबसे अच्छी शासन प्रणाली के तौर पर जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को अख्तियार किया है, उसके हर चुनाव में सत्ता और विपक्ष की भूमिकाएं तकरीबन समान रही हैं. जनता की अदालत में विपक्ष हमेशा सत्ता को साखहीन और कमजोर साबित करने की कोशिश करता रहा है, जबकि सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों के आधार पर समर्थन की अपील करता रहा है. इन संदर्भों में देखें, तो मौजूदा आम चुनाव कुछ अलग नजर आ रहा है. परंपरा के मुताबिक, सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों को गिना तो रहा है, लगे हाथ विपक्ष को साखहीन साबित करने की कोशिश भी कर रहा है. केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद भाजपा ने जहां ज्यादातर चुनाव जीता है, वहीं प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की ज्यादातर चुनावों में पराजय हुई है.

भाजपा को इससे एक अवधारणा स्थापित करने में मदद मिली है कि कांग्रेस की साख घट चुकी है. कांग्रेस मुक्त भारत का भाजपा का नारा एक तरह से उसी स्थापना को विस्तार देने की कोशिश रही है. बीच-बीच में जनता कर्नाटक, हिमाचल या ऐसे ही कुछ नतीजे कांग्रेस के पक्ष में दे देती है, जिससे कांग्रेस की कुछ साख बची रह जाती है. इस नाते कह सकते हैं कि मौजूदा चुनाव में सत्ता पक्ष की उपलब्धियों के साथ अगर कुछ दांव पर लगा है, तो वह विपक्ष की साख भी है.

सरकार के विपक्ष में कांग्रेस के साथ कई दल हैं. ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, तेजस्वी यादव का राष्ट्रीय जनता दल, एमके स्टालिन का डीएमके और वाममोर्चा मोदी विरोधी विपक्ष के प्रमुख चेहरे हैं. लेकिन गौर करने की बात यह है कि भाजपा या प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं में निशाने पर कांग्रेस ही ज्यादा रहती है. वैसे मोदी जब किसी ताकतवर स्थानीय क्षत्रप, मसलन, ममता, स्टालिन या अखिलेश के इलाके में जाते हैं, तो निश्चित तौर पर अपने स्थानीय वोटरों के लिहाज से उन पर भी हमले करते हैं, लेकिन हमले की तासीर कांग्रेस पर उठाये जाने वाले सवालों जैसी नहीं होती.

हर आम चुनाव में सत्ता पक्ष पर सवाल सबसे ज्यादा उठते रहे हैं. इंदिरा गांधी की हत्या की छाया में हुए 1984 के चुनाव इसके अपवाद हैं. तब जिसने भी तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पर सवाल उठाया, चुनावी मैदान से वह साफ हो गया. जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी की हत्या से कुछ माह पहले स्वर्ण मंदिर में हुए सैनिक ऑपरेशन की आलोचना की थी, इसकी सफाई चुनाव में वे देते रहे, लेकिन जनता की नजर में वे पाक-साफ नहीं हो सके. बेशक कुछ पार्टियां सरकार में वापसी करती रहीं, लेकिन ऐसा अमूमन नहीं हुआ कि विपक्ष की साख पर सवाल उठे. पर इस बार खेल पलटा हुआ नजर आ रहा है. विपक्ष को अपनी साख बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

विपक्ष की साख गिराने में निश्चित तौर पर विपक्षी नेताओं की उल-जलूल बयानबाजी की भूमिका भी रही है. जब कांग्रेस की आज की तुलना में ज्यादा ताकतवर बहुमत की सरकारें होती थीं, तब डॉ राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, पीलू मोदी आदि जैसे कुछ विपक्षी सांसदों के चलते सरकारें अक्सर सवालों के घेरे में आ जाती थीं. जार्ज फर्नांडिस की तकरीरें हों या अटल बिहारी वाजपेयी के चुटीले भाषण, तत्कालीन सत्ता को अपना बचाव करना मुश्किल होता था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं दिख रहा है. सबसे प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते साख को बचाने की जिम्मेदारी कांग्रेस की है, लेकिन आलाकमान ध्यान नहीं दे रहा. कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भाषा का स्तर लगातार कमजोर हुआ है. कांग्रेस से जब भी कोई नेता भाजपा में जाता है, तो कांग्रेसी आलाकमान उसे हल्के में लेने में गुरेज नहीं करता.

वह इडी और सीबीआइ के दबाव का बहाना भी बना देता है. ऐसा कर वह अपनी भूमिका की इतिश्री भले कर ले, लेकिन एक सवाल तो जरूर उठता है कि आखिर उसके नेता ही सीबीआइ और इडी के दबाव में क्यों आते हैं. विपक्ष में ही वाममोर्चा है, उसके नेता क्यों नहीं ऐसे दबाव में आते, क्यों वे भाजपा में शामिल नहीं होते? ऐसे आरोप लगाकर एक तरह से विपक्ष अपनी कमजोरी को ही उजागर करता है. हल्की बयानबाजी में कभी अखिलेश भी आगे रहे हैं. वैसे अब भी वे तैश में आ जाते हैं और हल्की भाषा और लहजे का इस्तेमाल कर लेते हैं. वैसे राहुल गांधी तो तकरीबन हर भाषण में हल्के लहजे का इस्तेमाल कर रहे हैं. इन अर्थों में तेजस्वी यादव में परिपक्वता आयी है. वे हल्की भाषा और स्तरहीन लहजे का प्रयोग नहीं करते. विधानसभा में नीतीश सरकार के विश्वासमत पर उन्होंने जो शालीन भाषण दिया, उसकी आलोचना के लिए तर्क खोजना उनके कट्टर आलोचकों तक के लिए मुश्किल हो गया था.

ममता बनर्जी की ख्याति फायरब्रांड नेता की है. लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने अपने कुख्यात नेताओं के बचाव के तरीके जैसे इस्तेमाल किये हैं, उससे राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को चोट ही पहुंची है. संदेशखाली के आरोपी के बचाव में पश्चिम बंगाल प्रशासन की कार्रवाई के बाद भी उनकी साख पर चोट पहुंची है. एमके स्टालिन खुद कभी विवादास्पद बयान नहीं देते, लेकिन उनके बेटे उदयनिधि जिस तरह हिंदू धर्म पर निशाना साध रहे हैं, उसकी वजह से स्टालिन की भी पार्टी भी सवालों के घेरे में है. ऐसी धारणा बनी है कि स्टालिन सिर्फ हिंदू धर्म का विरोध करते हैं और दूसरे धर्मों को प्रश्रय देते हैं. यह आज विपक्ष की साख पर सवाल की एक और वजह बना है. मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग मानने लगा है कि विपक्ष के ज्यादातर नेताओं का अपना निजी हित है.

इसलिए अगर उन्हें सत्ता मिली भी, तो वे अपने ही हित की बात करेंगे. बेशक इस अवधारणा को लेकर तथ्यात्मक शोध हो सकते हैं कि क्या सिर्फ विपक्ष में ही ऐसा है, पर सवाल ऐसे ही हैं. मणिशंकर अय्यर जैसे कुछ कांग्रेसी नेता पाकिस्तान की तरफदारी करने में पीछे नहीं रहे. इसकी वजह से विपक्ष को लेकर यह भी छवि बनी है कि उन्हें देश की बजाय विदेश की ज्यादा फिक्र है. इन तथ्यों से जाहिर है कि 1984 के बाद यह पहला चुनाव है, जिसमें विपक्ष की साख कसौटी पर है. हो सकता है कि विपक्षी दलों के नेता भी यह समझते हों. अब उन पर है कि चुनाव अभियान में वे अपनी साख की वापसी कैसे करते हैं और सत्ता पक्ष को किस तरह जवाब देते हैं. चुनाव नतीजों पर इसका भी असर जरूर पड़ेगा.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें