प्रत्युष प्रशांत– ‘रंग’… होली के इस लफ्ज मात्र से ही मन-मिजाज पर फगुनाहट छाने लग जाता है. प्रकृति भी एक रंगरेज की तरह वातावरण में रंगोली रचने लगती है. जीवन में जितने रंग, उतनी ही उमंग-तरंग. रंग का एक अर्थ रौनक, दूजा आनंद और तीजा उत्सव है. मगर अक्सर हम इस आनंद के उत्सव में जाने-अनजाने कुछ ऐसी गलतियां, बेवकूफियां कर जाते हैं, जो इस पर्व को बदरंग बना देती हैं. शायद यही वजह है कि कई लोग इस बेहद खुशनुमा पर्व से दूरी भी बनाने लगे हैं. उनके लिए बस ये खान-पान तक ही सीमित होकर रह गया है. फिर हम और आप क्या ऐसा करें, जिससे यह सामाजिक समरसता का पर्व बरकरार रहे और हमारे जीवन में खुशियों के रंग घोलता रहे!
होली महज हंसी-ठिठोली और मस्ती का पर्व नहीं
होली महज हंसी-ठिठोली और मस्ती का पर्व नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार का पर्व भी है. इसमें एक-दूजे के लिए प्रेम-स्नेह, समानता और समरसता के रंग बरसते हैं, जिनके बगैर जीवन ही बेरंग है. इसीलिए होली खेलने से पहले सारे गिले-शिकवे जला दिये जाते हैं, फिर दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों से धो दिये जाते हैं और शाम को खुले और धुले मन से प्रेम-प्यार के वातावरण में सब एक-दूसरे से गले मिलते हैं. एक दूसरा पहलू ये भी है कि कई लोग इस पर्व से दूरी बनाने लगे हैं, ऐसा क्यों है? यह जानने के लिए मैंने अपने तमाम महिला साथियों को वाट्सएप्प किया कि आप होली में उसकी मिथकीय व्याख्या को छोड़कर क्या ऐसा है, जिसे बदलना चाहेंगी? कमोबेश सबों का एक ही जवाब था- ‘‘अश्लील-फूहड़ गाने, नशे में नाटक और हम महिलाओं के साथ जोर-जबरदस्ती से होली खेलने के बहाने छूने-पकड़ने की कोशिश को अगर आप ‘शिफ्ट+डिलिट’ करवा सकें, तो करवा दें.’’ आश्चर्च तो यह कि कई महिला साथी जो दक्षिण भारत में शिफ्ट हो गयी हैं, वे होली इन कारणों से खेलती ही नहीं हैं. जाहिर तौर से कुछ बेवकूफों के कारण बदनाम हुई होली का उत्सव हर उस मन से खत्म हो चुका है, जिससे रंग खेलने के बहाने बलजोरी या छूने का प्रयास किया जाता है. भद्दे-द्विअर्थी/अश्लील गाने, नशे में अशिष्ट व्यवहार, अपशब्द/अश्लील भाषा का प्रयोग इस खूबसूरत पर्व को बदरंग कर रहा है. ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी नयी पीढ़ी को इसे मनाने का सही तरीका बताएं, जिससे इस पर्व की खूबसूरती बनी रहे.
रंग हर स्त्री के साथ सम्मान का
होली में हम सभी एक-दूसरे को स्पर्श के रंग में भी डुबोते हैं, जिसका एहसास बहुत गाढ़ा होता है. शब्द भले झूठे हो जायें, पर स्पर्श कभी झूठे नहीं होते हैं. उसमें ऊष्मा होती है, भरोसा होता है. रंग-गुलाल जो भी लगाये, समानता के कोमल स्पर्श के साथ लगाये. किसी को सम्मान देने के लिए नमस्कार के भावों से मन को स्पर्श का रंग लगाये, एक-दूसरे की भावना को आहत न करे. सी को जोर-जबरदस्ती से छूना और अनचाहे तरीके से छूना त्योहार को बदरंग कर सकता है. हर पुरुष अपने इस अमर्यादित व्यवहार का होली के आग में तर्पण करे. इस बार अवसर है हम आस-पास की हर एक महिला के साथ समानता, समरसता और सम्मान वाली होली खेलें.
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रंग-स्वाद का समरसता का हो
होली हो और स्वाद की बात न हो, यह संभव ही नहीं. स्वाद चाहे दही-बड़े का हो, माल पुआ का या फिर गुझियों का, जुबान पर चढ़ने से पहले आंखें इसे पहचान लेती हैं. फिर व्यजनों के स्वाद का जादू सिर चढ़कर तारीफ के रंग घोलता है. होली में रंग लगाने के साथ-साथ स्वाद का रंग इसलिए भी घोला जाता है, क्योंकि मनुष्य के प्रेम भाव का रास्ता पेट से होकर ही जाता है. प्रेम भाव से बनाये गये व्यंजन नाराजगी को दूर कर देते हैं. होली में व्यंजनों का स्वाद समाज में समरसता के रंग घोलता है.
रंग मीठी बोली और प्रेम-स्नेह का
होली की फुहार में चारों तरफ प्रेम, स्नेह और अपनत्व बरसता है. लोगों से मिलना, अपनी बातें कहना और सामने वाले की बात सुनना, हमारे अंदर डिटॉक्स का काम करता है. हमारी बोली-भाषा, प्रेम-स्नेह से लबरेज हो, मधुरता के रंग में भीगी हो तो वह सामने वाले को अच्छाई और मधुरता के रंगों में डूबो देती है. हमारी बोली में मिठास, शीतलता हो, तो दूसरे के कानों में प्रेम-स्नेह घोल देगी. इसलिए इस होली को प्रेम-स्नेह के साथ मनायें और अंदर की कटुता को तिलांजलि दें.
रंग सामाजिक एकता का
होली समाज की उदासी को दूर कर उसमें उल्लास, मस्ती और सामाजिकता के रंग घोलती है. होली मन की मलिन भावनाओं के दहन का दिन है. अपनी झूठी शान, अहंकार और स्वयं के श्रेष्ठता बोध को होलिका के तमस में जलाने का अनुष्ठान है. तमाम वैमनस्य को रंग-अबीर से धो देने का यह अवसर है. असल मायने में होली तभी सार्थक है, जब समाज के सभी लोगों के दिल आपस में जुड़ जाते हैं, तब पूरे समाज में वसंत का आगमन हो जाता है.
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आधुनिक जीवनशैली में होली के कई रंग
हर साल फाल्गुन माह की पूर्णिमा तिथि पर होलिका दहन का रिवाज है, फिर अगले दिन चैत्र प्रतिपदा को रंग वाली होली खेली जाती है. मगर मन का मयूर तो वसंत पंचमी के आते ही नाचने लगता है. आधुनिक हो रही हमारी जीवनशैली में होली के कई रंग देखने को मिलते हैं.
हाइटेक डिजिटल होली
हाइटेक होली के लिए सबसे जरूरी है एक अच्छे मोबाइल और ठीक-ठाक डेटा पैक या वाई-फाई की. फिर क्या है, हफ्ते भर पहले से तमाम मैसेजिंग एप्प पर लोगों को होली की शुभकामनाएं, मीम्स, हैप्पी रील फारवर्ड करने का चलन है, जिसमें आप भी गोता लगा सकते हैं. यह चलन कहां से आयी और कहां तक जायेगी, अभी इसका अनुमान नहीं लगाया जा सका है.फेसबुक-इंस्टाग्राम पर होली वाली सेल्फी अपलोड करनी होती है, दूसरों के पोस्ट्स को लाइक करना होता है. नहीं करने पर लोग बुरा मान जाते हैं यहां ‘बुरा न मानो होली है’ का तुक्का भी काम नहीं करता. यहां शुभकामनाओं को पसंद आने पर लाइक और बहुत अधिक पसंद आने पर शेयर करना अलिखित कानून है!
स्कूल-कॉलेज और दफ्तर वाली होली
यह होली अपने लिए फागुन पूर्णिमा या चैत्र प्रतिपदा का इंतजार नहीं करती. स्कूल-कॉलेजों-दफ्तरों में शुरू हो जाती है होली के एक-दो दिनों पहले से. असली होली के दिन तो छुट्टी होती है, फिर उनके साथ होली क्यों न खेलें, जिनके साथ बीतता है साल भर का सबसे अधिक समय. इस होली का बस एक नुकसान यह है कि अच्छे कपड़े रंग दिये जाते हैं, मगर साल में एक बार दोस्तों के नाम एक जोड़ी कपड़ों का बलिदान अगर होली ले लेती है, तो इसमें कैसी नाराजगी!
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गाने-बजाने वाली होली
ढोलक-हारमोनियम-झाल या फिर डीजे बेस के साथ यह होली शुरू हो जाती होली के दो-तीन दिन पहले से. मंदिरों-प्रांगण, चौक-चौराहों पर या फिल्मों-टीवी कार्यक्रमों, रेडियो स्टेशनों पर. दरअसल, ये गाना-बजाना लोगों के मूड को होली के लिए तैयार करता है, जिसके बाद आप होली की मस्ती में गोते लगाते नजर आते हैं.
बुखार वाली होली
इस होली का चलन धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है. कई लोगों को होली का नाम सुनते ही बुखार चढ़ जाता है. रंगों से बचने के लिए, रंगों से एलर्जी होने या त्वचा खराब होने की बात कर कन्नी काटते हैं. यह जानकर होली खेलने का मन बनाये लोग मन मसोस कर रह जाते हैं. मगर कुछ ऐसे भी दबंग होलीबाज होते हैं, जो किसी की नहीं सुनते और होली में दबोच कर कहते हैं- ‘बुरा न मानो होली है!