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World Theatre Day 2024: रंगमंच का क्रेज आज भी पटना में है बरकरार, पृथ्वीराज कपूर ने दी थी खास पहचान

पटना के रंगमंच का इतिहास वर्षों पुराना रहा है. यहां की कई नाट्य संस्थाएं न केवल देश स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी हैं. बल्कि, यहां से प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले रंगकर्मी आज सिनेमा जगत में अपनी अमिट छाप छोड़ रहे हैं और देश-दुनिया में अपनी पहचान बना रहे हैं. बुधवार को ‘विश्व रंगमंच दिवस’ था. यह हर वर्ष 27 मार्च को मनाया जाता है. इस मौके पर शहर के विभिन्न रंगमंच पर कई नाटकों की प्रस्तुति होती है और कई आयोजन होते हैं. पर, होली की छुट्टी की वजह से ‘रंगमंच दिवस’ पर इस वर्ष नाटकों की प्रस्तुति नहीं हुई. फिर भी आपको पटना के थियेटर व इससे जुड़े कलाकारों से रूबरू करा रही है, जूही स्मिता की रिपोर्ट.

World Theatre Day 2024 हर घर में टीवी और हर हाथ में मोबाइल फोन होने पर, भले ही आज के युवाओं की दिलचस्पी नाटकों को देखने में न हो, फिर भी पटना के विभिन्न नाट्य मंचों पर नाटकों की प्रस्तुति बदस्तूर जारी है. थोड़े बहुत ही सही पर इसके नियमित दर्शक हैं, जो नाटकों को देखने पहुंच ही जाते हैं. यहां दो बेहद खास रंगशालाएं हैं. पहला कालिदास रंगालय और दूसरा प्रेमचंद रंगशाला. इसके अलावा भारतीय नृत्य कला मंदिर और रवीन्द्र भवन में भी समय-समय पर कई नाटकों का मंचन होता रहा है.

बता दें कि 1961 से पहले रूपक सिनेमा के बगल में कला मंच के अस्थाई मंच पर नाटकों का मंचन हुआ करता था. उस दौरान पृथ्वीराज कपूर भी अपनी टीम के साथ नाटक करने पटना पहुंचे थे. 1977-78 में नाटक ‘आधे-अधूरे’, 1984 में ‘महाभोज’, ‘अंधा युग’, ‘असाढ़ का एक दिन’ की प्रस्तुति ने पटना रंगमंच को नयी ऊंचाई और खास पहचान दी. पटना के वरिष्ठ रंगकर्मियों का कहना है कि 60-70 के दौर में पटना में सप्ताह में पांच दिन कालिदास रंगालय के खुले मंच पर नाटकों का मंचन होता था. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) के हॉल में रविवार या अन्य छुट्टी के दिन नाटकों का मंचन किया जाता था. पर ये परंपरा कुछ वर्षों बाद बंद हो गयी.

कभी कविगुरु टैगोर भी आया करते थे
पटना में रंगमंच की शुरुआत 20 के दशक में हुई थी. उस दौरान शहर के गिने-चुने कलाकार बांग्ला और अंग्रेजी नाटकों का मंचन करते थे. उस वक्त न कोई प्रेक्षागृह था और न ही कोई बड़ा भवन. ज्यादातर नाटकों का मंचन खुली जगह में किया जाता था. 1923 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर रंगमंच के लिए पटना आये थे. गांधी मैदान के समीप एलफिस्टन सिनेमा हॉल में उनके नाटक का मंचन किया गया था. बहुत कम लोग जानते थे कि एलफिस्टन सिनेमा हॉल में पहले अंग्रेजी नाटकों का भी मंचन होता था. पारसी व्यवसायी मदान के अधिग्रहण के बाद यह एलफिंस्टन सिनेमा हॉल हो गया. पहले यहां मूक फिल्में दिखायी जाती रहीं. 1930 में मदान ने एलफिंस्टन सिनेमा हॉल को बेच दिया.

1961 में हुई थी बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना
70 से अधिक नाटकों के लेखक एवं निर्देशक अनिल कुमार मुखर्जी ने 1961 में पटना के रंगकर्मियों को एकत्र कर बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना की थी.1978 में भवन की नींव पड़ी. 1983 में कालिदास रंगालय का प्रेक्षागृह तैयार हुआ.फिलहाल पटना का कालिदास रंगालय पटना के रंगकर्मियों का गढ़ है. यहां साल भर में 250 से ज्यादा नाटकों का मंचन होता है. इसके अलावा प्रेमचंद रंगशाला, रवींद्र भवन और भारतीय नृत्य कला मंदिर में भी मंचीय प्रस्तुति होती हैं.

ये है मुख्य नाट्य संस्थाएं
– इप्टा
– प्रांगण
– प्रयास
– प्रेरणा
– बिहार राज्य थिएटर
– अभियान सांस्कृतिक मंच
– अक्षरा आर्ट्स
– निर्माण कला मंच

पटना के कई कलाकार बॉलीवुड में बजा रहे डंका
पटना रंगमंच से जुड़े रहने वाले कई रंगकर्मी आज सिनेमा जगत में अपनी पहचान बना, दुनियाभर में नाम कमा रहे हैं. इनमें संजय त्रिपाठी, आशीष विद्यार्थी, संजय मिश्र, रामायण तिवारी मनेर वाले, विनोद सिन्हा, अखिलेन्द्र मिश्र, विनीत कुमार, अजीत अस्थाना, दिलीप सिन्हा, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार, अखिलेंद्र मिश्रा आदि शामिल हैं. वहीं पटना में समी खान, वी वासुदेव, श्याम सागर, सुबोध गुप्ता, सतीश आनंद, सुमन कुमार, संजय उपाध्याय, अरविंद रंजन दास, विजय बिहारी, तनवीर अख्तर, परवेज अख्तर आदि हैं.

कलाकारों ने कहा, सुविधाएं तो मिली पर आगे नहीं बढ़ पा रहा रंगमंच
1. नाटकों का स्वर्णकाल था 1970-90 का दौर
– प्रमोद कुमार त्रिपाठी, वरिष्ठ रंगकर्मी

1979 में मैंने रंगमंच की शुरुआत की थी. उस दौर में हम नाटक को देखकर सीखते थे. नाटक देखने का दौर कह सकते हैं. अभी तो नाटक देखने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है, उस वक्त गुरु-शिष्य की परंपरा प्रबल थी जिसमें अनुशासन, समय की प्रतिबद्धता ज्यादा थी. लोग टिकट घुमकर काटते थे. खगौल में जब रंगमंच होता था तो वहां पर मौजूद सिनेमा घरों में भीड़ नहीं होती थी. 1980 के दौर में जितने भी कलाकार हुए काफी चर्चित हुए. आज का रंगमंच संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के अनुदान पर टीका है. सरकार ने सुविधाएं दी हैं, लेकिन हमारे दौर और आज के दौर में बड़ा फर्क है.   

रंगमंच का दूसरा नाम ऊर्जा और धैर्य है
– अखिलेंद्र मिश्रा, फिल्म व टेलीविजन अभिनेता

मैंने अपने रंगमंच की शुरुआत आठवीं कक्षा से की थी. अपने गांव में दुर्गा पूजा के मौके पर मुझे हिंदी-भोजपुरी नाटक करने का मौका मिलता था. गौना के रात नाटक में बाल विवाह को लेकर अभिनय करने का मौका मिला. 1979 में छपरा में कॉलेज के दिनों में राजेंद्र बाबू के बड़े भाई महेंद्र प्रसाद की संस्था से जुड़कर नाटक किया. 1981 में पटना में इंजीनियरिंग की तैयारी के दौरान आइएमए हॉल और कालिदास में नाटक देखने के साथ-साथ अभिनय और डायरेक्ट का मौका मिला. 1983 में मैं मुंबई चला गया, जहां बाम्बे इप्टा से जुड़कर रंगमंच कर करता रहा.   

पैशन के लिए थिएटर से जुड़ी, तो बढ़ता गया लगाव
– मोना झा, रंगकर्मी

बचपन में पिता और बड़ी बहन के साथ नाटक देखने जाती थी. स्कूल में भी कई नाटकों में अभिनय किया. 1984 में इप्टा से जुड़ना हुआ और अभिनय का सफर शुरू हुआ. हमारे समय में नाटक पैशन की तरह था, इसमें कोई प्रोफेशनली इन्वॉल्व नहीं थे. रोजी-रोटी कमाने के लिए रंगमंच नही था. 40 सालों से इस क्षेत्र से जुड़ी हुई हूं ऐसे में पिछले 15-20 सालों में मैंने देखा कि हजारों के तदाद में कलाकार मिले, जो इस पेशे को कमाने का जरिया बना रहे हैं. मुंबई और एनएसडी की ओर रुख कर रहे हैं. हमारे यहां बदलाव हुए हैं, पर आज भी कई कमियां हैं.  

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