Bihar: प्रभात किरण हिमांशु, छपरा (सारण ). सारण जिले में तीन हजार से अधिक ऐसे हुनरमंद हैं. जिनके हाथों को अब काम नहीं है. कल तक अपनी हुनर की बदौलत सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही नहीं बल्कि देश के कई प्रदेशों में अपनी चमक बिखेरने वाले छपरा के स्वर्ण आभूषण बनाने वाले कारीगर अब हाशिये पर हैं. इनकी पहचान अब धीरे-धीरे समाप्त हो रही है. वहीं इनकी आने वाली पीढ़ी भी कारीगरी सीखने में रुचि नहीं दिखा रही है. जिससे अब इनका हुनर समाप्त होने के कगार पर भी है.
राजस्थान, यूपी, एमपी और महाराष्ट्र तक थे मशहूर
कभी अपनी कारीगरी के दम पर बिहार समेत राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में आभूषणों की चमक बिखेरने वाले स्वर्णकार आज बुनियादी सुविधाओं के अभाव में अपना हुनर भूलते जा रहे हैं. हॉल मार्किंग की अनिवार्यता के बाद इन हुनरमंदों को व्यापक स्तर पर न तो बड़ा बाजार मिल सका है और नाही इनकी कारीगरी को उचित कीमत व सम्मान मिल रहा है. रोजीरोटी के लिए संघर्षरत जिले के 3000 से भी अधिक कारीगर इसी उम्मीद में हैं कि उनके बनाये आभूषणों को लोकल बाजार में विस्तार मिलेगा साथ ही इन आभूषणों की लोकल ब्रांडिंग हो सकेगी. लेकिन शोरूम कल्चर के बढ़ने तथा डिजाइनर गहनों की डिमांड ने इनके रोजगार पर असर डाला है.
बाला, चूड़ी व झुमका की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है छपरा
छपरा के पुराने कारीगर संजय प्रसाद, अशोक कुमार, रमेश प्रसाद, अजीत सोनी आदि ने बताया कि छपरा की सोनारपट्टी पूरे बिहार में बाला, चूड़ी व झुमका की कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है. एक जमाने में देश के अलग-अलग राज्यों से स्वर्ण व्यवसायी और बड़े जमींदार यहां के कारीगरों द्वारा बनाये गये बाला, हसुली, चूड़ी, पहुंचारी जैसे आभूषण खरीदने आते थे. वक्त के साथ बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों का निर्माण हुआ और हाथों की कारीगरी से ज्यादा लोगों में फैशनेबुल गहनों का शौक बढ़ा. छपरा में लगभग 400 कारीगरी की दुकानें हैं. जिनमे तीन हजार कारीगर काम करते हैं. यूपी, झारखण्ड, व बिहार के अलग-अलग प्रांतों में अभी भी इनके द्वारा बनाये गये गहनों की डिमांड है. लेकिन मौजूदा दौर में बड़े ब्रांडों के आगे इन कारीगरों के द्वारा बनाये गये गहनों की डिमांड कम हुई है. जिससे इनके रोजीरोटी पर असर पड़ा है.
कारीगरों का रजिस्ट्रेशन व स्किल डेवलपमेंट जरूरी
छपरा जिला स्वर्णकार संघ के सचिव संजीत स्वर्णकार बताते हैं कि स्थानीय कारीगरों के पास पूंजी का अभाव है. कारीगर सरकार से रजिस्टर्ड भी नहीं है. ऐसे में पूंजी के अभाव में अपने हुनर को पहचान दिला पाने में असमर्थ हैं. इनके द्वारा बनाये गये आभूषण बाजार में तो बिकते हैं लेकिन उसकी ब्रांडिंग करने वाला कोई नहीं है और उचित कीमत उपलब्ध हो सके इसकी भी व्यवस्था नहीं है. इसके अतिरिक्त इन हुनरमंदों के स्किल को डेवलप करने को लेकर भी स्थानीय स्तर पर कोई उचित अवसर नहीं है. यदि इनके हुनर को निखारने और रोजगार के समुचित अवसर देने की व्यवस्था हो जाये तो स्थानीय बाजार में समृद्धि आयेगी.
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अवसर के अभाव में नयी पीढ़ी नहीं सीख रही कारीगरी
बीते तीन-चार दशक से कारीगरी करने वाले बुजुर्ग कारीगरों ने बताया कि युवा पीढ़ी इस हुनर को सीखने के लिए तैयार नहीं है. कारीगरों के बच्चे अब यह हुनर नहीं सीखना चाहते. कारीगरों ने बताया कि पहले हमारे दुकान में 10 से 12 युवक सीखा करते थे और सीखने के बाद कहीं दूसरे जगह जाकर अपना खुद का रोजगार शुरू करते थे. लेकिन अब सीखने वालों की कमी हो गयी है. हमारे बच्चे भी इस काम से दूर भाग रहे हैं. बच्चों का कहना है कि इसमें अब कोई स्कोप नहीं दिख रहा है. यदि सरकार ने मजबूत पहल नहीं की तो आभूषणों की कारीगरी की यह कला कुछ सालों बाद लुप्त हो जायेगी. इसे बचाना जरूरी है.