भारत जैव विविधता वाला देश है. दक्षिण से लेकर उत्तर तक यहां की जलवायु कई भागों में विभाजित दिखती है. पश्चिमी भारत में यदि भीषण गर्मी और शुष्कता है, तो पूर्वी भारत दुनिया में सबसे अधिक बारिश वाले क्षेत्र में शुमार है. वैसे तो वर्तमान विश्व जैव विविधता के संरक्षण को लेकर कोई खास संवेदनशील नहीं दिख रहा है, लेकिन हाल में ब्राजील में संपन्न आम चुनाव में जैव विविधता महत्वपूर्ण मुद्दों में शामिल था. वहां उसी पार्टी की जीत हुई, जिसने जैव विविधता के संरक्षण के लिए काम करने की बात कही. जलवायु परिवर्तन के इस दौर में प्रकृति संरक्षण के साथ ही साथ जैव विविधता के संरक्षण को लेकर लोगों में जागृति देखने को मिल रही है. भारत में भी इसकी सुगबुगाहट है. ऐसे में जैव विविधता के संरक्षण को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की जरूरत है. हमें अपने कृषि विकास नीति में भी इसे जोड़ना होगा. यदि उस दिशा में प्रयास करना है, तो प्रथम कदम के तौर पर किसानों को खेती के साथ मधुमक्खी पालन के आधुनिक तकनीक का प्रशिक्षण जरूरी हो जाता है. यह हमारे लिए मात्र रोजगार का साधन भर नहीं होगा, अपितु इसके माध्यम से हम अपनी जैव विविधता का संरक्षण भी कर सकते हैं. झारखंड जैसे राज्य के लिए तो यह बेहतर वैकल्पिक रोजगार का साधन उपलब्ध करा सकता है. झारखंड में विभिन्न प्रकार के पौधों के अतिरिक्त औषधीय पौधे भी बहुतायत में पाये जाते हैं, जिसके फूलों के माध्यम से आसानी से मधुमक्खी पालन हो सकता है. इससे अतिरिक्त आमदनी तो होगी ही, जैव संरक्षण को लेकर एक नया माहौल भी बनेगा.
मधुमक्खियों द्वारा जहां शहद एकत्र किया जाता है, वहीं विभिन्न पौधों में परागण के आदान–प्रदान से बीजों की संख्या में भी वृद्धि होती है, जिससे विभिन्न प्रकार के पौधे जंगलों में अपनी संख्या बनाये रखने में सक्षम होते हैं. विशेषज्ञों की मानें, तो यदि मधुमक्खियां खत्म हो जाएं, तो जीवन की संभावना की कल्पना नहीं की जा सकती. मधुमक्खी एक सामाजिक कीट है क्योंकि इसके परिवार में रानी, श्रमिक एवं नर मधुमक्खी पाये जाते हैं. मधुमक्खी से शहद निकालने एवं पालन करने की प्रथा काफी पुरानी है क्योंकि मधुमक्खियों का वर्णन सभी धार्मिक ग्रंथों, जैसे वेदों, महाभारत, बाइबल एवं कुरान, में मिलता है. शहद प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला मीठा पदार्थ है, जो निर्दोष एवं हानिरहित है. इसलिए इसे हम पृथ्वी का अमृत भी कह सकते हैं. प्राचीन काल से इसका उपयोग खाने, धार्मिक कार्यक्रमों एवं औषधीय कार्यों में किया जाता रहा है. इसका महत्व बढ़ने के कारण इसे पालने के लिए सर्वप्रथम 1789 में स्विट्जरलैंड के निवासी फ्रांसिस ह्यूबर ने बॉक्स बनाकर मधुमक्खी पालन की शुरुआत की. धीरे-धीरे इसमें कई परिवर्तन हुए, जो आज कृषि आधारित कुटीर उद्योग के रूप में उभर कर सामने आया है.
भारत की बड़ी ग्रामीण आबादी में छोटे एवं मझोले किसानों की संख्या ज्यादा है. मधुमक्खी पालन ग्रामीण गरीब, भूमिहीन मजदूर एवं ग्रामीण युवाओं के लिए स्वरोजगार एवं अतिरिक्त आय का प्रमुख साधन बन सकता है. सरल होने के कारण अशिक्षित व्यक्ति भी इसे आसानी से कर सकता है. इस व्यवसाय को 5-10 बक्सों से कम पूंजी में शुरू किया जा सकता है. यह व्यवसाय इतना प्रभावशाली है कि तीन से पांच वर्षों में कोई भी व्यक्ति 100 से 150 बक्सों का मालिक बन सकता है तथा प्रतिवर्ष लाखों रुपये की आमदनी कर सकता है. इस व्यवसाय में बिजली, इमारत या जमीन की आवश्यकता न के बराबर पड़ती है. इसके लिए कच्चे माल की भी कोई आवश्यकता नहीं होती है. इस व्यवसाय के खड़े होने से गांव के कुछ लोग मधुमक्खी पालन में काम आने वाले औजार, बक्सा, मधु निष्कासन यंत्र इत्यादि बनाकर कुटीर उद्योग खड़ा कर सकते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्र में नये प्रकार की रोजगार क्रांति आ सकती है. मधुमक्खी अपना भोजन, जिसमें मधु एवं पराग प्रमुख हैं, तीन किलोमीटर क्षेत्र से एकत्र करती हैं. इसका लाभ परोक्ष तौर पर फसलों को होता है.
विश्व भर में लगभग पांच करोड़ मधुमक्खी कॉलोनियां हैं. ऐसा अनुमान है कि विश्व में लगभग 14 लाख मीट्रिक टन शहद का उत्पादन होता है. कुल 15 देश इस वैश्विक उत्पादन में लगभग 90 प्रतिशत का योगदान करते हैं. चीन शहद का सबसे बड़ा उत्पादक है, जहां दुनिया के कुल उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत शहद होता है. अमेरिका, अर्जेंटीना, यूक्रेन आदि भी शहद उत्पादन में योगदान देते हैं. भारत में मुख्यतः चार प्रकार की मधुमक्खियां पायी जाती हैं. यहां लगभग 20 लाख कॉलोनियां हैं तथा वन्य मधुमक्खियों से मिलने वाले शहद को शामिल करते हुए अनुमानत: प्रति वर्ष लगभग 80,000 मीट्रिक टन शहद का उत्पादन होता है. भारत में लगभग 13,809 मधुमक्खी पालक एवं 1,84,769 कालोनियां पंजीकृत हैं. भारत के पास चीन से बड़ी जैव संपदा है. यहां शहद उत्पादन की अपार संभावना है. यदि उन संपूर्ण संभावनाओं का दोहन किया जाए, तो हमारी बड़ी आबादी को अतिरिक्त आमदनी का साधन भी उपलब्ध हो जायेगा और हम बिना किसी बड़े प्रयास के अपने जैव विविधता का संरक्षण करने में भी सफल हो पायेंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)