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पढ़ने की उम्र में पेट के लिए कबाड़ चुन रहे बच्चे

सरकारी दावे के बावजूद बरवाडीह में प्रखंड में दर्जनों बच्चे पढ़ने की उम्र में कूड़े के ढेर से कबाड़ चुन रहे हैं.

संतोष कुमार, बेतला़

सरकारी दावे के बावजूद बरवाडीह में प्रखंड में दर्जनों बच्चे पढ़ने की उम्र में कूड़े के ढेर से कबाड़ चुन रहे हैं. सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया, ताकि गरीबों के बच्चों को भी बेहतर शिक्षा मिल सके. गरीबों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लाया गया. इतना ही नहीं गरीबों के सहायतार्थ कई योजनाएं चलायी गयी, बावजूद इसके बेतला क्षेत्र में गरीबों के बच्चे आज भी कूड़े के ढेर में अपना भविष्य तलाश रहे हैं. उनकी रोजी-रोटी इसी कूड़े की ढेर पर टिकी हुई है. कूड़े के ढेर में कबाड़ चुनकर ही वे अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं. कबाड़ चुनने के कारण कई बच्चे गंभीर बीमारियों की चपेट में भी आ जाते हैं, पर उनके पास कोई विकल्प नहीं है. उनके पास कोई दूसरा साधन भी तो नहीं है. कूड़े के ढेर से लोहा, शीशा व प्लास्टिक की बोतल, लकड़ी का सामान व कागज चुनने वाले ये बच्चे सामाजिक व प्रशासनिक उपेक्षा के शिकार हैं. कूड़े-कचरे के बीच जीविकोपार्जन के लिए कबाड़ चुनना इनकी नियति बन गयी है. बाल श्रम अधिनियम के तहत बच्चों को काम लेना कानूनी अपराध है, पर कूड़े-कचरे के ढेर में भविष्य तलाशने वाले बच्चों को इस अधिनियम से कोई लेना देना नहीं है. उनकी यही दिनचर्या है और जीने का साधन भी यही है. कूड़े कचरे के ढेर से कबाड़ चुनकर यह बच्चे अपना तो पेट भरते ही हैं. साथ ही घर चलाने में परिजनों की भी सहायता करते हैं. पेट की आग बुझाने के लिए यह बच्चे अपना बचपन कूड़े- कचरे के ढेर में कबाड़ चुनने में ही गंवा देते हैं. सुबह होते ही ये बच्चे पीठ पर प्लास्टिक का बोरा लिए कबाड़ चुनने के लिए निकल पड़ते हैं. इनके जमात में कई बच्चे शामिल रहते हैं. इन बच्चों के स्वास्थ्य सुरक्षा की कोई गारंटी लेने को तैयार नहीं है. इन नौनिहालों के प्रति सरकारी महकमा बिल्कुल उदासीन दिखाई देती है. कबाड़ से चुने गये सामान को ले बच्चे कबाड़ी वालों के पास जाते हैं. कबाड़ी वाले इन्हें कुछ पैसे देकर उनका सामान खरीद लेते हैं. यह पैसा न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम होता है.

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