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सहयोगी दलों के सहारे है कांग्रेस पार्टी

चार दशक से पार्टी में नेतृत्व पैदा करने का तंत्र कमजोर होता जा रहा है. उसके पास एक ऐसा नेता नहीं है, जो विभिन्न जातियों, आस्थाओं और सामाजिक समुदायों से बने समावेशी भारत के साथ सफलता से जुड़ सके.

मार्क ट्वेन ने कहा था कि आपके पास बस अज्ञान और विश्वास होना चाहिए, आपकी सफलता सुनिश्चित है. उन्हें यह पता होगा. वे मिसिसिपी के एक नाव, जिसके वे कप्तान थे, पर पेशेवर जुआरी थे और उन्होंने धनी होने की नीयत से बच्चों के लिए एक नया खेल ईजाद करने की कोशिश भी की थी. लगभग 139 साल पुरानी कांग्रेस अभी भी भाई-बहन के लिए बच्चों का खेल है, जो ऐसे विश्वास से अपनी श्रेष्ठता दावा करते हैं, जो केवल असली अज्ञानी के बूते की बात है.

पार्टी के राजनीतिक डीएनए में इस कमी ने उसकी विरासत और हैसियत को बिगाड़ दिया है, जिसका श्रेय गांधी परिवार के तीन सदस्यों को जाता है. अब पार्टी का नया दर्शन है- न्यूनतम नया अधिकतम है. उसका नया चुनावी हिसाब है कि भरोसे के साथ कम सीटों पर लड़ो और जीत की दर बेहतर करो. पहली बार लोकसभा के लिए कांग्रेस 330 से कम उम्मीदवार उतार रही है. क्या पार्टी ने यह मान लिया है कि वह अपने दम पर बहुमत नहीं हासिल कर सकती है? अभी तक कांग्रेस ने अपने सभी प्रत्याशियों की घोषणा भी नहीं की है.

धीरे-धीरे सूची जारी करने की नयी रणनीति यह इंगित करती है कि पार्टी को समझ में आ गया है कि वह अब अखिल भारतीय खिलाड़ी नहीं रही. पार्टी की आंतरिक संरचना वंश, हार, दलबदल और वास्तविकता से मुंह मोड़ने के कारण बिगड़ चुकी है. इस कारण प्रतिभा का अकाल है, संगठन लकवाग्रस्त है और वैचारिक अस्थिरता है. कुछ दशक पहले तक हर सीट पर कांग्रेस में 25 से अधिक दावेदार होते थे. अब इसे 200 से अधिक क्षेत्रों में एक भी जीतने लायक उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा है. अजीब है कि पार्टी अपने सामाजिक और राजनीतिक नुकसान से अनजान बनी हुई है.


अपने भविष्य को लेकर पार्टी की बेपरवाही एक पहेली है. नरेंद्र मोदी के ‘अच्छे दिन’ को नकार कर कांग्रेस का सिकुड़ता शीर्ष अपने क्षेत्रों से लिपटकर अपने ‘अच्छे दिन’ की आशा कर रहा है. सहयोगियों की बैसाखी के सहारे पार्टी अपना उद्धार करना चाहती है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस को मजबूरन सहयोगियों को अधिक सीटें देनी पड़ी है. पार्टी ने समान विचार के दलों से गठबंधन कर अपनी मौजूदगी बनाये रखने के लेफ्ट के सूत्र को अपना लिया है.

लेकिन कांग्रेस उत्तर भारत के अन्य राज्यों और कर्नाटक में सहयोगियों के लिए बहुत उदार नहीं रही है. उसका लक्ष्य जीत की दर बेहतर करना है, भले वोट शेयर में कमी आये. कांग्रेस नेतृत्व अविजित होने के भ्रम से मुक्त नहीं हुआ है. उसका दावा है कि उसने सहयोगी दलों को अधिक सीटें इसलिए दी क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उसकी हिस्सेदारी बड़ी है.

उसे यह समझना बाकी है कि उसका अस्तित्व बस नाम का है और कई राज्यों में वह अवांछित विकल्प है. कई राज्यों में उसके पास थोड़े नेता और कार्यकर्ता बचे हैं. इस चुनाव में कांग्रेस द्वारा कम सीटों पर लड़ने की संभावित वजह यही हो सकती है- न करिश्माई नेता, न नारा और न नीति. चार दशक से पार्टी में नेतृत्व पैदा करने का तंत्र कमजोर होता जा रहा है. उसके पास एक ऐसा नेता नहीं है, जो विभिन्न जातियों, आस्थाओं और सामाजिक समुदायों से बने समावेशी भारत के साथ सफलता से जुड़ सके. इंदिरा गांधी ने पार्टी को दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, उच्च जातियों एवं वर्गों के एक इंद्रधनुषी सामाजिक गठबंधन में तब्दील कर दिया था. उनके बाद राजीव, सोनिया या राहुल उसकी चमक को वापस न ला सके.


राजीव ऐसे पहले गांधी थे, जो लगातार दुबारा जनादेश हासिल न कर सके. साल 1989 में कांग्रेस के 510 उम्मीदवारों में से केवल 197 लोकसभा पहुंच सके थे. कांग्रेस 1991 में भी बहुमत हासिल नहीं कर सकी. इसके 505 उम्मीदवारों में से 244 ही जीत पाये थे. पीवी नरसिम्हा राव ने समर्थन जुटाकर अल्पमत की सरकार पांच साल चलायी, जो आधुनिक भारत में पहली बार हुआ था. लेकिन 1996 में कांग्रेस को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. उसके 529 प्रत्याशियों में से केवल 140 ही जीते.

सीताराम केसरी की अध्यक्षता में 1998 में कांग्रेस को 141 सीटें ही मिलीं. सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी को अपने दिन बहुरने की आशा थी, पर 1999 में उसे 114 सीटें ही मिलीं. लेकिन सोनिया ने अपनी प्रतिभा दिखाते हुए बड़ा गठबंधन बनाया, जिसने वाजपेयी सरकार को परास्त कर दिया. साल 2004 में कांग्रेस ने 417 उम्मीदवार खड़े किये, जिनमें 145 जीते. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2009 में भी इसने अच्छा प्रदर्शन किया. तब 440 उम्मीदवारों में से 206 को जीत हासिल हुई. उसके बाद से पार्टी ढलान पर है और अधिकतर राज्यों में इसने अपने वरिष्ठ नेताओं को खो दिया है.

दृढ़ निश्चयी और आक्रामक मोदी के आने से पार्टी और गांधी परिवार के लिए मुश्किलें बहुत बढ़ गयीं. साल 2014 में लोकसभा में कांग्रेस की सीटें सिकुड़कर 50 से भी कम हो गयीं और विपक्ष के नेता का पद भी उसे नहीं मिल सका. साल 2019 में राहुल, जिनके पास अध्यक्ष पद पाने के लिए केवल वंश से होने की योग्यता थी, के नेतृत्व में सीटों की संख्या 44 से बढ़कर 52 ही हो पायी. राजनीति में 20 साल से होने के बावजूद राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर और पार्टी के भीतर अभी स्वीकार्यता हासिल करनी है. उनके समर्थक इस तथ्य से आशान्वित हैं कि दो सफल यात्राओं से उनकी लोकप्रियता बढ़ी है. उनके और मोदी के बीच अंतर थोड़ा कम हुआ है, पर अभी भी वह बहुत बड़ा है.


यह स्पष्ट है कि कांग्रेस इस आम चुनाव को कोई जादू रचने के लिए नहीं लड़ रही है क्योंकि उसके पास मानव संसाधन, बाहुबल और धन का अभाव है. सरकार ने उसके बैंक खातों पर पाबंदी लगा दी है. उसके समर्पित दानदाताओं की संख्या उसके नेताओं की तादाद से भी तेजी से घटती जा रही है. यह चुनाव उसके लिए इस बार अधिक सीटें जीतकर बाद के युद्ध में राजमुकुट पर दावा करने की लड़ाई है.

संसद में मौजूदा स्कोर को बरकरार रख कर भी सफलता का दावा किया जा सकता है. पार्टी लोकतंत्र बचाने की बात करती है, पर उसके निराशाजनक प्रदर्शन ने लोकतंत्र को कमजोर ही किया है, जहां आज नाम का भी एक भरोसेमंद विपक्ष नहीं है. इस असंतुलन को कांग्रेस को ही ठीक करना है. वह अज्ञान से प्रेरित होने से इनकार कर सकती है. अपनी कमियों को स्वीकार कर वह अपनी जमीनी हकीकत को लेकर आश्वस्त हो सकती है. तब सफलता भी मिल सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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