चौक चौराहा से
गोपी कुंवर
लोहरदगा. चुनाव में दीवार लेखन एवं नारों का बहुत प्रभाव पड़ता था. आज जो 65-82 उम्र के हैं, जिन्होंने देश का चौथा चुनाव सन 1967 फिर पांचवां 71 इस तरह 84 तक देखा है तथा उन्हीं की जुबानी बात बताते हैं कि चुनाव प्रचार का बड़ा साधन दीवार लेखन होता था.परंतु पेंटर नहीं रहते थे, बल्कि समर्पित कार्यकर्ताओं में तथाकथित पेंटर भी रहते थे एवं दूसरे कार्यकर्ता पेंटर बनने का असफल प्रयास करते रहते थे, लेकिन जोश, जज्बा और समर्पण पार्टी के प्रति 100% रहती थी. लिखावट हेतु रंग में भी अमीरी गरीबी का भेदभाव रहता था. लाल मिट्टी का रंग गरीब पार्टी या निर्दलीय प्रत्याशी इस्तेमाल करते थे,क्योंकि यह सस्ता होता था तथा समृद्ध पार्टी नील इस्तेमाल किया करते थे. ब्रश के स्थान पर सखुआ या नीम के दातुन के कुच्ची और यदि राम दातुन मिल जाए तो अति उत्तम समझा जाता था क्योंकि उससे लिखने पर लिखावट अच्छी बनती थी. फिर रात को खाना खाकर अभिभावक को बगैर बताए दबे पांव लालटेन, ढिबरी, टॉर्च, रंग कूची लेकर निकल जाते थे. पेंटिंग के लिए पानी होटल के बाहर बने सीमेंट के ड्रम/नाद या फिर मवेशियों के प्यास बुझाने के लिए घर के बाहर रखे गये नाद से पानी का इस्तेमाल होता था.पूरी एकाग्रता के साथ लिखने के बावजूद भी सुबह में वह घोड़े की टांग की तरह अक्षर दिखाई पड़ते थे पर मंशा लोगों के समझ में आ जाती थी कि चुनाव चिन्ह क्या है तथा प्रत्याशी कौन है. वैसे रात में ये लोग कई विरोधियों के दीवाल में भी बड़े-बड़े अक्षरों से लिखने में परहेज नहीं करते थे.उनके पीछे भावना यही रहती थी कि अमुक ने दल बदल लिया तथा उसका मार्केट खराब करने का कुत्सित प्रयास किया जाता था.साथ ही साथ चिढ़ाने, चुस्की लेने तथा गाली सुनने का अलौकिक आनंद उठाने का मिजाज रहता था. अब उस विरोधी का रिएक्शन जानने के लिए अहले सुबह दूर से देखा जाता था कि वह कितना गाली बक रहा है? तथा किस-किस पर संदेह कर रहा है? फिर पीड़ित भिंगा बोरा लेकर दीवाल को रगड़ रगड़कर सफाई करते थे कि कहीं दूसरे दल वाले अपने की नजर ना पड़ जाए और सफाई भी देनी पड़ती थी.कई बार तो घरों में भी संदेश भिजवा दिया जाता था कि “बेटवा के समझाव, दुकान दउरी में बइठाव, फालतू के उछल कूद नय करें,नइ जिततउ. और उस संदेश में अपनापन तथा घरइया एवं समय नष्ट न करने वाली भावना रहती थी,न की आक्रोश. परंतु ये मानने वाले नहीं रहते थे और फिर जानबूझकर उन दीवारों में दोबारा पेंट कर देते थे और दूसरे दिन लड़ाई/ झगड़ा/ मारपीट होना अवश्यंभावी रहता था.पहले के युवाओं में स्लोगन अपनी पुरी बौद्धिक क्षमता के अनुसार बनाया करते थे.मोहल्ले में ऐसे भी समर्थक रहते थे जो अपने दीवारों में बड़े-बड़े अक्षरों से चुनाव चिन्ह पूरे उत्साह के साथ बनवाने को अधिकार से आग्रह करके बगल वाले विरोधी पार्टी के ऊपर हावी रहना चाहते थे.उसे समय लोहे से बना 2×2फीट का चदरा भी आने लगा था ,जिस पर चुनाव चिन्ह व पार्टी का नाम कटिंग करके लिखा रहता था.मात्र उस पर पुताई कर देने से ही दीवाल में पार्टी और चिन्ह अंकित हो जाता था.बाद के कालखंड में प्रोफेशनल पेंटर तथा पेंट आने लगे.परंतु रात के अंधेरे में एकाग्रता के साथ स्लोगन गढ़ना तथा लिखना वह सब बहुत अद्भुत तथा यादगार लम्हे हैं.जहां कार्यकर्ता चाहे वह किसी भी दल के क्यों न हो पार्टी के प्रति मर मिटने को तैयार रहते थे.पहले लोग अपवाद स्वरूप प्रोफेशनल कार्यकर्ता रहते थे परंतु अब अपवाद स्वरूप पहले जैसे कार्यकर्ता मिलते हैं.अब चुनाव में मैनेजमेंट /धनबल हावी है.जहां त्याग,तपस्या,वफादारी, समर्पण का कोई स्थान नहीं है.अब तो सोशल मीडिया इतना हावी है कि लोग उसी मे सबकुछ कर लेते हैं.