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पश्चिम एशिया संकट का भारत पर प्रभाव

भारत को अपने हितों, पश्चिम एशिया में शांति एवं स्थायित्व तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था को देखते हुए वर्तमान स्थिति में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका निभाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.

बीते साल अक्तूबर की शुरुआत से पश्चिम एशिया में जो संकट चला आ रहा है, उसमें सुधार के कोई संकेत नहीं हैं. पिछले दिनों इस्राइल और ईरान के बीच युद्ध की स्थिति बन गयी थी. गाजा में इस्राइल की कार्रवाई जारी है. दक्षिणी लेबनान और उससे सटे इस्राइली इलाके भी हिज्बुल्लाह और इस्राइल की बमबारी की चपेट में हैं. लाल सागर में यमन के हूथी लड़ाकों द्वारा अमेरिका, ब्रिटेन, इस्राइल समेत कुछ देशों के जहाजों के आवागमन पर लगायी गयी रोक भी बरकरार है.

वहां भी एक-दूसरे पर मिसाइलों और ड्रोनों से हमले हो रहे हैं तथा लाल सागर से जहाजों के आने-जाने में बड़ी मुश्किल हो रही है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के कारण इस्राइल और ईरान की तनातनी युद्ध में नहीं बदल सकी, लेकिन पश्चिम एशिया में मौजूदा हालात को देखते हुए क्षेत्रीय युद्ध की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है. जब तक इस्राइल और हमास की लड़ाई नहीं रुकती है तथा फिलिस्तीन के मसले का ठोस समाधान नहीं होता है, तब तक इस तरह की स्थितियां वहां बनती रहेंगी. यदि इस्राइल और ईरान के बीच लड़ाई होती है, तो इसकी चपेट में समूचा पश्चिम एशिया होगा. वैसे में इसका प्रभाव पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर पड़ेगा.


दुनिया के तेल और गैस के लगभग 50-60 प्रतिशत भंडार पश्चिम एशिया में हैं. भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए पश्चिम एशियाई देशों से होने वाले आयात पर निर्भर है. हालांकि अभी रूस से भी हम बहुत खरीद कर रहे हैं, लेकिन उस पर भी आर्थिक पाबंदियों का असर है. साथ ही, रूस से होने वाला आयात का एक हिस्सा भी अरब सागर से होकर आता है, जो लड़ाई की स्थिति में प्रभावित हो सकता है. इसके अलावा भी कुछ कारक हैं, जो रूसी आयात पर असर डाल सकते हैं.

इसलिए पश्चिम एशिया से होने वाला तेल और गैस का परंपरागत आयात हमारी ऊर्जा सुरक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. अरब सागर में उथल-पुथल से भारत के आयात और निर्यात को भी बड़ा नुकसान हो सकता है क्योंकि यह हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग है. एक बात और संज्ञान में आयी है कि जब से लाल सागर में हूथी हमले शुरू हुए हैं, तब से समुद्री लुटेरों की गतिविधियों में भी तेजी आयी है. हिंद महासागर में व्यावसायिक समुद्री जहाजों की रक्षा के लिए भारत ने दस नौसैनिक युद्धपोतों को तैनात किया है. हमारी नौसेना केवल भारत से जाने या यहां आने वाले जहाजों को ही नहीं, बल्कि इस समुद्री मार्ग का उपयोग कर रहे सभी जहाजों को सुरक्षा मुहैया करा रही है. विभिन्न कार्रवाइयों में कई लुटेरे पकड़े भी गये हैं, जिन पर भारत में मुकदमा भी चलाया जा रहा है.


जब तक संबद्ध पक्षों, विशेषकर इस्राइल के नेतृत्व, की समझ में बात नहीं आयेगी कि यह तनाव और उसके नतीजे सभी के लिए नुकसानदेह साबित हो रहे हैं, तब तक कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती है. इस्राइल चाहता है कि वह हमास को पूरी तरह खत्म कर दे. ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है. लगभग सात महीने की मौजूदा लड़ाई के बाद इस्राइल की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है और वह आज पूरी तरह अमेरिका के ऊपर निर्भर है.

मध्य-पूर्व के अन्य देशों में भी एक आंतरिक बेचैनी है. वे भी चाहते हैं कि शांति और स्थिरता बहाल हो. लेकिन, जैसा मैंने पहले कहा, जरूरी यह है कि इस्राइल समझे कि फिलिस्तीन के मसले का समाधान होना चाहिए. पश्चिम एशिया के विभिन्न देशों में हमारे देश के नब्बे लाख से अधिक लोग रहते हैं, जो बड़ी मात्रा में अपनी कमाई भारत भेजते हैं. उनकी सुरक्षा भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण विषय है. युद्ध की स्थिति में उन्हें सुरक्षित बाहर निकालना असंभव सी बात होगी. लीबिया के गृहयुद्ध के दौरान वहां से भारतीयों को निकालने के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि लाख-डेढ़ लाख लोगों को तो निकाला जा सकता है, पर इतनी बड़ी तादाद के लिए तुरंत व्यवस्था कर पाना बेहद मुश्किल होगा. इस तरह, हमारे लिए दोहरी चुनौती है- एक, हमारे आर्थिक हित और दो, खाड़ी देशों में कार्यरत हमारे लोग.


सामुद्रिक सुरक्षा मुहैया कराने में आज भारत अग्रणी देश के रूप में सामने आया है. पश्चिम एशिया में जो झगड़े हैं, उनके बारे में भारत की हमेशा से यह राय रही है कि आपसी बातचीत और कूटनीति से उनका शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए. लेकिन मेरा मानना है कि अब भारत को थोड़ा आगे आकर अपनी भूमिका निभाने की आवश्यकता है. यह महत्वपूर्ण है कि पश्चिम एशिया के सभी देश, चाहे इस्राइल हो, ईरान हो, फिलिस्तीन हो या खाड़ी के देश हों, भारत को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और उसे एक अच्छा दोस्त मानते हैं. उनकी भी भारत से अधिक योगदान की अपेक्षा है.

देखें, हम जो भी करेंगे, जरूरी नहीं है कि उसमें सफलता मिल जाए, लेकिन जब हम कूटनीति और संवाद की बात करते हैं, तो क्यों नहीं हम कुछ और सक्रिय होकर ऐसी स्थिति पैदा करने में मददगार बनें, जिससे शांति प्रक्रिया को एक आधार मिले. यह मेरी राय है, बाकी सरकार अच्छी तरह से समझती है कि उसकी क्या भूमिका हो सकती है या क्या होनी चाहिए.
हमारे लिए पश्चिम एशिया बहुत महत्वपूर्ण है. वहां स्थिति बिगड़ती है, तो ऊर्जा आपूर्ति प्रभावित होगी. हालांकि कुछ समय से हमारे देश में तेल और गैस के दामों में स्थिरता रही है, पर मुद्रास्फीति की चिंताएं बनी हुई हैं, जैसा कि भारतीय रिजर्व बैंक ने भी रेखांकित किया है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में अगर भाव बढ़ेंगे, तो हमारे ऊपर भी दबाव बढ़ेगा.

फिर प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा और उनकी कमाई का अहम मसला भी है. इसके साथ ही, सामुद्रिक वाणिज्य का प्रश्न भी है. ये सभी मुद्दे हमारे लिए स्थायी चिंता के विषय हैं. इसीलिए, मेरा आग्रह है कि भारत को अपने हितों, पश्चिम एशिया में शांति एवं स्थायित्व तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था को देखते हुए वर्तमान स्थिति में सक्रिय और सकारात्मक भूमिका निभाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.

जैसा कि मैंने पहले कहा, पश्चिम एशिया में भारत की बहुत अच्छी साख है. अगर हम कुछ कहेंगे, तो उसे ध्यान से सुना जायेगा. ऐसी कोशिशों का भविष्य जो हो, पर इतना तो तय है कि इससे वैश्विक मंच पर, विशेषकर पश्चिम एशिया में, भारत का प्रभाव बढ़ेगा. ऐसी आशा रखनी चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि तनाव एक सीमा से आगे न बढ़े, पर ऐसी आशाएं अक्सर टूट जाती हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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