भारत की समस्या यह है कि यहां कराधान पर्याप्त नहीं है. यह कई बार कहा जा चुका है. सरकार द्वारा प्रकाशित आर्थिक समीक्षा में ऐसा कहा गया है और संसद में एक पूर्व विदेश मंत्री इसे रेखांकित कर चुके हैं. यहां कम कराधान का तात्पर्य कर और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के निम्न अनुपात से है, करों की दर से नहीं. ये दरें बहुत अधिक हैं. उच्च व्यक्तिगत आयकर 42 प्रतिशत है, तो मध्यम वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) 18 प्रतिशत है.
जीएसटी एक अप्रत्यक्ष कर है, जिसे सभी लोग, धनी या गरीब, अपने उपभोग पर देते हैं. चूंकि यह कर देने वाले की आय पर निर्भर नहीं है, इसलिए यह अनिवार्यत: प्रतिगामी है. अचरज की बात नहीं कि जीएसटी संग्रहण का बड़ा हिस्सा कम आय वाले लोगों से आता है, जो इसके अनुचित होने को रेखांकित करता है. हमें आयकर और उपभोग कर दोनों की आवश्यकता है, पर जीएसटी दरें बहुत कम होनी चाहिए. आयकर पर निर्भरता बढ़नी चाहिए और दरें आय श्रेणी के हिसाब से बढ़नी चाहिए. सात लाख रुपये से कम की वार्षिक आय पर कर नहीं देना होता है. यह बड़ी छूट दुर्भाग्यपूर्ण है. यह छूट सीमा देश में प्रति व्यक्ति आय से चार गुना अधिक है.
अमेरिकी लोग पांच हजार डॉलर की आय से ही आयकर देने लगते हैं, जो उनके प्रति व्यक्ति आय का दसवां हिस्सा है. भारत को आयकर का दायरा अवश्य बढ़ाना चाहिए. आर्थिक समीक्षा के अनुसार, हर सौ मतदाता में केवल सात लोग आयकर दाता हैं.
हमारे सामने बढ़ती आर्थिक विषमता की चुनौती भी है. वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की हालिया रिपोर्ट ने सौ साल के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर बताया है कि देश में आय और संपत्ति की विषमता अभी सर्वाधिक है. विषमता से लड़ना गरीबी से लड़ने जैसा नहीं है. भारत में गरीबी का अनुपात गिरता जा रहा है, पर अभी भी ऐसे लोग हैं, जो गरीबी रेखा के आसपास ही हैं. एक बीमारी पूरे परिवार को उस रेखा से नीचे धकेल सकती है.
इसीलिए गरीबी दर 15 प्रतिशत होने के बावजूद 80 करोड़ लोगों के लिए मुफ्त राशन जैसी खाद्य सुरक्षा योजनाएं चल रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में विषमता घटाना भी शामिल है. इस दिशा में आयकर दायरा बढ़ाकर और जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों के बोझ को घटाकर आगे बढ़ना चाहिए. अवसरों की विषमता को प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में अधिक उच्च गुणवत्ता एवं मात्रा मुहैया कराकर कम किया जा सकता है. लेकिन सरकारी बजटों में इन सामाजिक प्राथमिकताओं पर खर्च आनुपातिक रूप से घटता जा रहा है.
इसका मतलब है कि हमें अधिक कर संग्रहण चाहिए. यहीं संपत्ति कर पर चर्चा आती है. अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी का दावा है कि दुनिया के सबसे धनी दो सौ लोगों पर मामूली कर लगाकर सामाजिक खर्च के लिए खरबों डॉलर जुटाये जा सकते हैं. ऐसा भारत में भी किया जा सकता है
संपत्ति का निर्धारण मुश्किल है, खासकर अगर वह रियल इस्टेट के रूप में हो. लोगों में छुपाने की प्रवृत्ति भी होती है. कर देने से बचने की कोशिश भी होती है. धनी लोगों और सबसे अधिक आयकर देने वालों में भी साम्य नहीं है. कितने अरबपति ऐसे हैं, जो सबसे अधिक आयकर भी देते हों? ऐसे में संपत्ति कर लगाने का कोई उचित तरीका है क्या? स्पेन, नॉर्वे, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड और फ्रांस जैसे देशों में संपत्ति कर व्यवस्था है. ये सब धनी देश हैं और उनकी वित्तीय व्यवस्था भी बहुत विकसित है. आप यह नहीं कह सकते कि भारत एक गरीब या मध्यम आय देश है, इसलिए संपत्ति कर पर चर्चा अभी नहीं हो सकती. जिन देशों में सबसे अधिक अरबपति हैं, उनमें भारत भी है.
अगर उन पर 0.1 प्रतिशत सालाना कर लगा दिया जाए, इससे न वे अपनी संपत्ति से अलग होंगे, न रोजगार सृजन बंद करेंगे और न ही देश में निवेश बंद करेंगे. देश से पूंजी पलायन का कारण संपत्ति कर नहीं होता. किसी भी लोकतंत्र के लिए असीमित संपत्ति का केंद्रण होना अच्छा नहीं है. हमारे गणराज्य के राजनीतिक एवं सामाजिक समता के सिद्धांत तथा बढ़ती आर्थिक विषमता में बड़ा विरोधाभास है. इसीलिए हमें आय और संपत्ति की विषमता को नियंत्रित करने की आवश्यकता है. कोई आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था विषमता से पीछा नहीं छुड़ा सकती है.
लेकिन यह औद्योगिक प्रदूषण की तरह है. आधुनिक जीवन कुछ उत्सर्जन के बिना असंभव है. लेकिन ऐसा एक समय आता है, जब एक समाज के रूप में हम कहते हैं कि अब बहुत हो चुका. अन्यथा बिगड़ती विषमता सामाजिक अस्थिरता, बंद रिहायशी इलाकों में बढ़ोतरी, अपराध में वृद्धि और अंततः निवेशकों के पलायन का कारण बनती है. कब विषमता असह्य और अत्यधिक है, यह हम सभी को मिलकर तय करना है.
भारत में बचत का आधा हिस्सा ही शेयर, बॉन्ड, बीमा और बैंक खातों में है, शेष रियल इस्टेट या सोने के रूप में है. रियल इस्टेट की कीमत का खुलासा खरीद-बिक्री के समय ही होता है, जिस पर स्टांप ड्यूटी लगती है. ऐसी खरीद-बिक्री कभी-कभार ही होती है, तभी राज्य स्तर पर स्टांप ड्यूटी का संग्रहण कम है.
वित्तीय बचत का अच्छा डाटा हमारे पास है, इसलिए इस हिस्से पर संपत्ति कर लगाना संभव है, जिसकी एक सीमा, मसलन सौ करोड़ रुपये से अधिक, हो सकती है. कर 0.1 प्रतिशत जैसा बहुत कम हो सकता है. इसका उद्देश्य केवल वित्तीय संसाधन जुटाना नहीं है.
नारायण मूर्ति, बिल गेट्स, वारेन बफे, निखिल कामथ, रिचर्ड ब्रांसन जैसे कई धनिकों ने अधिक कर लगाने का स्वागत किया है. ब्रिटिश उद्यमी इयान ग्रेग ने एक लेख में लिखा है कि धनिकों पर अधिक कर लगाया जाना चाहिए और ट्रिकल डाउन व्यवस्था (ऊपर से नीचे धन आने की प्रक्रिया) विफल हो चुकी है.
ये धनी लोग केवल कहने के लिए ऐसा कह रहे हैं या उनमें सच में करुणा है? दोनों बातें हो सकती हैं और शायद वे लोग समाज को ऐसी तबाही से बचाना चाहते हों, जहां जाकर लोग अपना गुस्सा बहुत धनी लोगों पर उतारने लगें. ब्रिटेन में कोरोना काल में आकलन किया गया था कि धनिकों पर मामूली कर लगाकर सरकार अरबों पाउंड जुटा सकती है.
संपत्ति कर से इस तरह का धन संग्रहण संभावित है. जहां ऐसे कर की व्यवस्था है, उन देशों की प्रक्रिया और अनुभव से सीखा जा सकता है तथा वित्तीय संपत्ति पर मामूली कर लगाकर इसकी शुरुआत की जा सकती है. रियल इस्टेट और सोने को अभी छोड़ा जा सकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)