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Srikanth Movie Review: जिंदगी के संघर्षों से भागने की नहीं लड़ने की है प्रेरणादायी कहानी श्रीकान्त

Srikanth Movie Review: सिनेमा हमेशा से लोगों को प्रेरित करने का माध्यम रहा है. बोलैंट इंडस्ट्रीज के संस्थापक श्रीकांत बोल्ला के जीवन पर आधारित राजकुमार राव की फिल्म आज सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है. यहां पढ़ें पूरी रिव्यू...

फिल्म – श्रीकान्त
निर्देशक- तुषार हीरानंदानी
कलाकार-राजकुमार राव,ज्योतिका,अलाया एफ़,शरद केलकर,जमील खान और अन्य
प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- साढ़े तीन

Srikanth Movie Review: बायोपिक फिल्मों की फेहरिस्त में इस शुक्रवार सिनेमाघरों में दृष्टिबाधित उद्योगपति श्रीकान्त बोल्ला की ज़िंदगी पर्दे पर आ रही है. तुषार हीरानंदानी निर्देशित यह फिल्म श्रीकान्त के संघर्षों का महिमा मंडन करने के बजाय उनकी जिंदगी का जश्न मनाती है. आमतौर पर बायोपिक का मतलब हिन्दी सिनेमा में महिमा मंडन का दूसरा नाम होता आया है, लेकिन यह बायोपिक फिल्म श्रीकान्त को भगवान नहीं बनाती है बल्कि इंसान की तरह उसकी खूबियों के साथ-साथ खामियों को भी कहानी में सामने लाती है. जिस वजह से यह प्रेरणादायी कहानी दिल को और छू जाती है. फिल्म सशक्त तरीके से विकलांगो के प्रति समाज और सिस्टम को एक अलग नजरिया रखने की बात करती है.

जिंदगी के संघर्षों से भागने की नहीं लड़ने की है कहानी
यह फिल्म दृष्टिबाधित उद्योगपति श्रीकान्त बोल्ला (राजकुमार राव) की कहानी है. उसके जन्म से यह कहानी शुरू होती है. साउथ के मछलीपपट्टम में एक अति साधारण किसान परिवार में एक बच्चे के जन्म के बाद उसका पिता उसे जमीन में ज़िंदा गाड़ने जा रहा है, क्योंकि गांव वालों का मानना है कि उनका दृष्टि बाधित बच्चा उन पर ही नहीं बल्कि उसकी खुद की जिंदगी पर भी बोझ बनेगा, लेकिन उसकी बच्चे की मां बीच में आकर अपने पति के सामने गिड़गिड़ाती है और पिता का दिल भी पसीज जाता है. फिल्म का पहला ही दृश्य आपको दिल को छू जाता है. उसके बाद कहानी आगे बढ़ती है. दृष्टिबाधित होने के बावजूद वह अपने गांव के स्कूल का सबसे होनहार विद्यार्थी है. गणित के सवालों को वह मुंहजबानी हल कर देता है, लेकिन बच्चों की बुली का शिकार भी वह आये दिन होता रहता है. उसके पिता कहते हैं कि वह क्यों लड़ाई के दौरान भाग नहीं जाता है. जवाब में वह कहता है कि वह भाग नहीं सकता है सिर्फ़ लड़ सकता है. आगे की ज़िंदगी वह यही करता है .कॉलेज में जब उसे दृष्टिबाधित होने की वजह से साइंस में एडमिशन नहीं मिलता है ,तो वह भारतीय एजुकेशन सिस्टम पर ही केस ठोक देता है और वह सभी दृष्टिबाधित लोगों को साइंस पढ़ने की राह बना देता है .वह फिर से टॉप आता है लेकिन देश के तमाम आईआईटी कॉलेज से उसे ना सुनने को मिलता है .वह साफ़ कह देता है कि आईआईटी को मैं नहीं चाहिए,तो मुझे भी आईआईटी नहीं चाहिए और वह अमेरिका के एमआईटी में जाकर आगे की पढ़ाई पूरी करता है और वह अमेरिका में अपनी ज़िंदगी से बेहद खुश भी है .वह वही पर नौकरी करना चाहता है लेकिन अपनी प्रेमिका स्वाति (अलाया) के समझाने पर भारत वापस लौट आता है और ख़ुद की कंपनी शुरू करने की है, ताकि वह देश के दिव्यांग लोगों को आत्मनिर्भर बना सकें. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. सभी उसके बिजनेस आईडियाज को कचरा बोलते हैं. किस तरह से कचरा कहा जाने वाला आईडिया करोड़ों की कंपनी का टर्न ओवर बनता है. यह आगे की कहानी है. श्रीकान्त की एजुकेशनल जर्नी में टीचर (ज्योतिका) और बिजनेस जर्नी में बिज़नेसमैन रवि (शरद केलकर) उनका किस तरह से सपोर्ट सिस्टम बनते हैं. यह फिल्म यह भी बखूबी दर्शाती है.

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फिल्म की खूबियां और खामियां
हिन्दी सिनेमा के लोकप्रिय जॉनर में से एक बायोपिक का जॉनर बीते एक दशक में बना हुआ है लेकिन बहुत कम फिल्में ऐसी रही हैं, जो इंसान को इंसान रहने दे पायी हैं. इस कदर महिमामंडन करती नजर आयी हैं, जैसे आप इंसान नहीं भगवान को पर्दे पर देख रहे हैं. यह वाली फीलिंग कई बार आ जाती है. निर्देशक तुषार हीरानंदानी और उनके राइटर्स की टीम इसके लिए बधाई की पात्र हैं कि उन्होंने दृष्टिबाधित प्रेरणादायी श्रीकान्त की कहानी को सहजता और पूरी ईमानदारी से पेश किया है. कहीं भी मामला ओवर द टॉप नहीं होने पाया है. दृष्टिबाधित श्रीकान्त ने दिव्यांगता को अपना हथियार बनाकर किस तरह से सफलता हासिल की है. इसे कहानी के मेलोड्रामा में तब्दील होने के बहुत मौके हो सकते थे, लेकिन मेकर्स ने इस कहानी को इससे पूरी तरह से दूर रखा है. श्रीकान्त को कैसे दृष्टिबाधित होने के बावजूद श्रीकान्त बेहद सकारात्मक और चुटीला है और कहानी का पूरा ट्रीटमेंट भी वैसा है .फिल्म सिस्टम पर हालांकि सवाल भी उठाने से नहीं चूकती है. फिल्म बखूबी इस फर्क को भी दिखाती है कि हमारे सिस्टम में किस तरह से दृष्टिबाधितों के साथ अनदेखी होती है, जबकि विदेशों में किस तरह से उन्हें हर तरह से मुख्यधारा में जोड़ा गया है. आमलोगों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास करवाती है कि सिर्फ रोड क्रॉस करवाने से जिम्मेदारी खत्म नहीं होती है.


फिल्म में क्या है खामियां
खामियों की बात करें तो फिल्म का फर्स्ट हाफ जितना एंगेजिंग और प्रभावी है, सेकेंड हाफ में कहानी थोड़ी खिंच गयी है. उस पर थोड़ा और काम करने की जरूरत थी. कुछ सिचुएशंस में दोहराव दिखता है. गीत संगीत कहानी के अनुरूप है. पापा कहते हैं गीत इस फिल्म को एक अलग ही हाईं नोट्स पर ले जाता है. संवाद अच्छे बन पड़े हैं. बाकी के पहलू भी अच्छे हैं.

राजकुमार राव का शानदार अभिनय
अभिनय की बात करें तो राजकुमार राव ने श्रीकान्त के किरदार को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है. उनके चलने के ढंग से लेकर चेहरे के हाव भाव तक सभी को उन्होंने बेहद बारीकी के साथ अपनाया है. ज्योतिका भी अपने अभिनय से सशक्त उपस्थिति दर्शाने में कामयाब हुई है. विकलांग स्कूल से राजकुमार राव के किरदार को जब निकाल दिया जाता है और वह ज्योतिका के किरदार को सड़क पर मिलते हैं, जिस तरह से वह उनके चेहरे को साफ करती है. वह दृश्य बताता है कि वे अपने किरदार में किस कदर रच बस गयी हैं. शरद केलकर भी अपनी अभिनय से दिल जीतते हैं. अलाया एफ सहित बाकी के किरदार अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय करते हैं.

रिपोर्ट- उर्मिला कोरी

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