रांची. थैलेसीमिया बच्चों को माता-पिता से अनुवांशिक तौर पर मिलने वाला रक्त रोग है. इस कारण शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है. इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है. इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की भारी कमी होने लगती है. ऐसे में उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की आवश्यकता होती है. मरीज को हर 25-30 दिन पर अस्पताल जाकर इस प्रक्रिया से गुजरना होता है. झारखंड में बड़ी संख्या में ऐसे मरीज हैं, जिन्हें पर्याप्त उपचार की आवश्यकता होती है. राजधानी का सदर अस्पताल आज के दौर में ऐसे प्रीमियर संस्थान में शुमार हो चुका है, जहां थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चों के उपचार की सुविधा मौजूद है. यहां थैलेसीमिया से पीड़त बच्चों की मदद के लिए कई संगठन और लोग भी आगे आते रहते हैं. वहीं झारखंड में आठ साल पहले गुजरात की तर्ज पर बड़े पैमाने पर सिकल सेल स्क्रीनिंग को लेकर पायलट प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, लेकिन रांची सदर अस्पताल को छोड़कर कहीं भी बड़े पैमाने पर उपचार की सुविधा मौजूद नहीं है. रांची सदर अस्पताल ऐसे मरीजों की न केवल स्क्रीनिंग और क्लीनिकल परीक्षण कर रहा है, बल्कि इसका प्रसार आगे नहीं हो, इसके लिए माता-पिता के बीच काउंसलिंग कर उन्हें जागरूक भी कर रहा है.
40 बेड के डे केयर में उपचार की सुविधा
रांची सदर अस्पताल के ब्लड बैंक में एडवांस तकनीक से ब्लड की जांच होती है. यहां एक हजार बच्चे रजिस्टर्ड हैं. अस्पताल के 40 बेड के डे केयर में मरीजों के उपचार की सुविधा है. यहां रोजाना 10 से 15 यूनिट ब्लड उपलब्ध कराकर मरीजों को बीमारी से लड़ने में मदद की जाती है. को-ऑर्डिनेट कर रहे डॉक्टर बताते हैं कि मरीजों को नियमित दवाइयों के साथ-साथ बार-बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन (खून की कमी को पूरा) करना पड़ता है. जिसका परिवार पर बहुत ही भावनात्मक और आर्थिक बोझ पड़ता है.
जागरूकता से बचाव
संभव
चिकित्सक बताते हैं कि थैलेसीमिया बीमारी की रोकथाम और इलाज के लिए सरकार की ओर से किये जा रहे उपायों की जानकारी सबसे जरूरी है. शादी विवाह के बाद परिवार बढ़ाने की योजना बनाने के पहले थैलेसीमिया कैरियर को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है. जागरूकता से अपने बच्चों में इस बीमारी के होने की आशंका को समझने में मदद मिलेगी और आप प्रसव पूर्व परीक्षण कराकर इस बीमारी से मुक्त बच्चे को जन्म दे सकते हैं.
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