Sri Yukteswar Giri Jayanti 2024: ‘मैं तुम्हें अपना अशर्त प्रेम प्रदान करता हूं,’ अपने निर्मल प्रेम के इस शाश्वत वचन के साथ, ‘ज्ञान के अवतार’ अर्थात् ज्ञानावतार स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने अपने आश्रम में युवा मुकुन्द का स्वागत किया. यही मुकुन्द कालान्तर में परमहंस योगानन्द के नाम से, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के संस्थापक, पश्चिम में योग के जनक, तथा अत्यन्त लोकप्रिय आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ ‘योगी कथामृत’ के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए. यद्यपि घटनाओं के दैवीय नाटक से ऐसा प्रतीत नहीं होता था, परन्तु समबुद्धि गुरुदेव को उनकी इस यात्रा का पहले से ही ज्ञान था और वे अनेक वर्षों से उत्सुकतापूर्वक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे.
…उनके अमूल्य विचार
जनवरी 1894 में प्रयागराज के पवित्र कुम्भ मेले में श्रीयुक्तेश्वरजी की भेंट हिमालय के अमर गुरु महावतार बाबाजी से हुई थी. यह जानते हुए कि योगानन्दजी पुनः अवतरित हो चुके हैं (मुकुन्द का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर में हुआ था), बाबाजी ने “पश्चिम में योग के प्रसार” के लिए प्रशिक्षण के लिए श्रीयुक्तेश्वरजी के पास एक युवा शिष्य भेजने का वचन दिया था. बाबाजी ने उनसे सनातन धर्म और ईसाई धर्म के धर्मग्रन्थों में निहित एकता पर एक संक्षिप्त पुस्तक लिखने के लिए भी कहा था. उन्होंने इन शब्दों के साथ उनकी सराहना की, “मैंने जान लिया था तुम्हें पूर्व और पश्चिम में समान रूप से रूचि है. समस्त मानवजाति के लिए व्याकुल होने वाले तुम्हारे अन्तःकरण की व्यथा को मैंने पहचान लिया था.” उनसे समानार्थी उद्धरणों द्वारा यह दिखाने के लिए कहा गया था कि “ईश्वर के सभी प्रेरित, ज्ञानी पुत्रों ने एक ही सत्य का उपदेश दिया है.”
श्रीयुक्तेश्वरजी का जन्म कब हुआ था?
श्रीयुक्तेश्वरजी ने अपनी स्वभावगत विनम्रता के साथ इस दैवी आदेश को स्वीकार किया, और अन्तर्ज्ञानात्मक बोध एवं गहन अध्ययन के साथ उन्होंने अल्पसमय में ही “कैवल्य दर्शनम् ” पुस्तक की रचना पूर्ण कर ली. महान् प्रभु यीशु के शब्दों को उद्धृत करते हुए, “उन्होंने दिखाया कि उनके उपदेशों में औ?र वेदवाक्यों में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं था.” इसके अतिरिक्त, पुस्तक के विभिन्न सूत्रों में श्रीयुक्तेश्वरजी मनुष्य के चित्त की पांच अवस्थाओं की व्याख्या करते हैं, अर्थात् अन्धकारयुक्त (मूढ़), गतियुक्त (विक्षिप्त), स्थिर (क्षिप्त), भक्तियुक्त (एकाग्र) तथा शुद्ध (निरुद्ध). वे स्पष्ट करते हैं कि, “चित्त की इन विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर मनुष्य का वर्गीकरण किया जाता है, तथा उसकी उन्नति की अवस्था निर्धारित की जाती है.” उनका जन्म 10 मई, 1855 को बंगाल के श्रीरामपुर में हुआ था और उनका पारिवारिक नाम प्रियनाथ कड़ार था. वे महान् योगी श्री लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे. आगे चलकर वे स्वामी सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गए और उन्हें स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि का नया नाम मिला.
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बाबाजी को दिया हुआ अपना वचन…
बाबाजी को दिया हुआ अपना वचन निभाते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी ने युवा योगानन्दजी को अपने आश्रम में एक दशक तक प्रशिक्षण प्रदान किया. योगानन्दजी ने अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” के एक प्रकरण, “अपने गुरु के आश्रम की कालावधि” में श्रीयुक्तेश्वरजी-बंगाल के सिंह-के साथ व्यतीत किये अपने जीवन का एक भावपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया है. वे लिखते हैं कि उन्होंने अपने गुरुदेव को कभी भी माया के किसी आकर्षण से ग्रस्त, या लोभ, क्रोध अथवा किसी के प्रति मानवीय अनुरक्ति की भावना में उत्तेजित नहीं देखा. उनकी आभा “सुखद शान्ति” की थी. उन्होंने अपने मार्गदर्शन में अनेक शिष्यों को सावधान करने के लिए इन शब्दों के साथ क्रियायोग (ईश्वर प्राप्ति के लिए ध्यान की प्राचीन वैज्ञानिक प्रविधि) के अभ्यास की आवश्यकता का स्मरण कराया, “माया का अन्धकार धीरे-धीरे चुपचाप हमारी ओर बढ़ रहा है. आओ, अपने अन्तर् में अपने घर की ओर भाग चलें.”
विश्वसनीयता, विचारशीलता और मौन प्रेम का अनुभव किया
जो शिष्य उनका परामर्श चाहते थे, श्रीयुक्तेश्वरजी उनके प्रति एक गम्भीर उत्तरदायित्व का अनुभव करते थे. वे उन्हें अपने प्रशिक्षण में कठोरता की अग्नि में तपाकर शुद्ध करने का प्रयास करते थे. इस अग्नि की तप्तता साधारण सहनशक्ति से परे होती थी, जब योगानन्दजी ने अपने गुरु के कार्य की अवैयक्तिक प्रकृति को समझा, तो उन्होंने उनकी विश्वसनीयता, विचारशीलता और मौन प्रेम का अनुभव किया. योगानन्दजी अपने प्रिय गुरुदेव के बारे में लिखते हैं, “उनके विलक्षण स्वभाव को पूरी तरह पहचानना कठिन था. उनका स्वभाव गम्भीर, स्थिर और बाह्य जगत् के लिए दुर्बोध्य था, जिसके सारे मूल्यों को कब के पीछे छोड़कर वे आगे बढ़ गए थे.
लेखिका: संध्या एस. नायर