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परशुराम जयंती : क्या है टांगीनाथ धाम का इतिहास, जानें इस पौराणिक स्थल के बारे में सब कुछ

टांगीनाथ धाम के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने सीता को जीतने के लिए जनकपुर में धनुष तोड़े, तो वहां पर मौजूद भगवान परशुराम धनुष टूटने से काफी क्रोधित हो गये थे.

दुर्जय पासवान, गुमला: सनातन धर्म में परशुराम जयंती का बड़ा महत्व है. देश के विभिन्न इलाकों में शुक्रवार यानी आज के दिन बड़े धूमधाम से मनायी जा रही है. झारखंड के गुमला जिला से भगवान परशुराम का खास रिश्ता है. क्योंकि यहीं पर उन्होंने भगवान शिव की अराधना की थी. आज ये स्थान टांगीनाथ धाम से प्रसिद्ध है. दूर दूर से लोग यहां पूजा अर्चना के लिए आते हैं. टांगीनाथ धाम के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने सीता को जीतने के लिए जनकपुर में धनुष तोड़े, तो वहां पर मौजूद भगवान परशुराम धनुष टूटने से काफी क्रोधित हो गये थे. उनका आक्रोश चरम पर था.

इस दौरान लक्ष्मण से उनकी लंबी बहस हुई थी. लेकिन बाद उन्हें पता चला कि भगवान श्रीराम ही स्वयं नारायण हैं और नारायण ने ही धनुष तोड़ा है. इसके बाद परशुराम को अपने ऊपर आत्मग्लानी हुई. वे वहां से निकल गये और पश्चताप करने के लिए झारखंड व छत्तीसगढ़ राज्य के सीमा पर स्थित पर्वत श्रृंखला गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के मझगांव में पहुंचे. यहां वे भगवान शिव की स्थापना कर आराधना करने लगे.

जिस स्थान पर वे आराधना कर रहे थे. उसी के बगल में उन्होंने अपना परशु अर्थात फर्शा को गाड़ दिया. इसिलए इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ा. झारखंड प्रदेश में फर्शा का अर्थ टांगी होता है. आज भी भगवान परशुराम के पदचिन्ह यहां मौजूद है. कहा जाता है कि लंबे समय तक भगवान परशुराम यहां पर रहे. वहीं, यहां पर मौजूद त्रिशुल के बारे में कहा जाता है कि यह 17 फीट नीचे जमीन में धंसा है. सबसे आश्चर्य की बात कि इसमें कभी जंग नहीं लगता है.

खुले आसमान के नीचे धूप, छावं, बरसात, ठंड का कोई असर इस त्रिशूल पर नहीं पड़ता है. आज भी यहां से लोगों की श्रद्धा जुड़ी हुई है. टांगीनाथ धाम की ख्याति केवल राज्य में ही नहीं बल्कि पूरे देश में है. त्रिशूल के पीछे एक अन्य मान्यता यह है कि भगवान शिव ने शनिदेव के अपराध के लिए यहां पर त्रिशूल फेंक कर लक्ष्य भेदा था. यह त्रिशूल डुमरी प्रखंड के मझगांव के चोटी में जाकर गिरा. त्रिशूल जमीन के नीचे गड़ गया. लेकिन उसका अग्र भाग जमीन के ऊपर रह गया, जो आज भी मौजूद है.

त्रिशूल जमीन के नीचे कितना गड़ा है. यह कोई नहीं जानता है. लेकिन कहा जाता है कि यह 17 फीट तक नीचे है. जमीन के ऊपर स्थित त्रिशूल के अग्र भाग में कभी जंग नहीं लगता है. लंबे अरसे तक उपेक्षित रहने के बाद अब टांगीनाथ के विकास पर झारखंड सरकार ध्यान दे रही है. परंतु टांगीनाथ धाम में छिपे रहस्य से अभी तक पूरी तरह पर्दा नहीं उठ पाया है. यहां यत्र तत्र शिवलिंग बिखरे हुए हैं. टांगीनाथ में स्थित प्रतिमाएं उत्कल के भुवनेश्वर, मुक्तेश्वर व गौरी केदार में प्राप्त प्रतिमाओं से मेल खाती है. ऐसे में अभी तक टांगीनाथ धाम के निर्माण की तिथि का पता नहीं चल पाया है. टांगीनाथ के बगल में ही नेतरहाट की तराई है.

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डुमरी थाना के मालखाना में है खुदाई से मिले आभूषण

टांगीनाथ धाम में कई पुरातात्विक व ऐतिहासिक धरोहर है, जो आज भी साक्षात है. यहां की कलाकृतियां व नक्कासी, देवकाल की कहानी बयां करती है. गुमला से 75 किमी दूर डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं. सावन व महाशिवरात्रि में यहां हजारों की संख्या में शिवभक्त आते हैं. लेकिन यहां कई ऐसे पुरातात्विक स्रोत है, जिसका अध्ययन किया जाये, तो गुमला जिले को एक अलग पहचान मिलेगी. 1989 ई. में पुरातत्व विभाग ने टांगीनाथ धाम के रहस्य से पर्दा हटाने के लिए अध्ययन किया था. यहां जमीन की भी खुदाई की गयी थी. उस समय भारी मात्रा में सोना व चांदी के आभूषण सिहत कई बहुमूल्य समान मिले थे. लेकिन किसी कारणों से खुदाई पर रोक लगा दिया गया. इसके बाद टांगीनाथ धाम के पुरातात्विक धरोहर को खंगालने के लिए किसी ने पहल नहीं की. टांगीनाथ धाम की खुदाई से हीरा जड़ा मुकूट, चांदी का सिक्का (अर्ध गोलाकार), सोना का कड़ा, कान की बाली सोना का, तांबा का टिफिन जिसमें काला तिल व चावल मिला था, जो आज भी डुमरी थाना के मालखाना में रखा हुआ है.

टांगीनाथ को स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने बनाया है

टांगीनाथ धाम में यत्र तत्र सैंकड़ों की संख्या में शिवलिंग है. बताया जाता है कि यह मंदिर शाश्वत है. स्वयं विश्वकर्मा भगवान ने टांगीनाथ धाम की रचना की थी. वर्तमान में यह खंडहर में तब्दील हो गया है. लेकिन यहां की बनावट, शिवलिंग व अन्य स्रोतों को देखने से स्पष्ट होता है, कि इसे आम आदमी नहीं बना सकता है.

टांगीनाथ धाम में लोहरा जाति निवास नहीं करते हैं

त्रिशूल के अग्र भाग को मझगांव के लोहरा जाति के लोग काटने का प्रयास किया था. त्रिशूल तो नहीं कटा. लेकिन कुछ निशान जरूर हो गया. इसकी कीमत लोहरा जाति को उठाना पड़ा. आज भी इस इलाके में 10 से 15 किमी की परिधि में कोई भी लोहरा जाति के लोग निवास नहीं करते हैं. अगर कोई प्रयास करता है तो उनकी मृत्यु हो जाती है

छत्तीसगढ़ व पलामू से सटा हुआ है

टांगीनाथ धाम, इसका पश्चिम भाग छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिला व सुरगुजा से सटा हुआ है. वहीं उत्तरी भाग पलामू जिले व नेतरहाट की तराई से घिरा हुआ है. छोटानागपुर के पठार का यह उच्चतम भाग है, जो सखुवा के हरे भरें वनों से आच्छादित पहाड़ी श्रृंखला से घिरा हुआ है.

टांगीनाथ धाम में देख सकते हैं ये सारी चीजें

टांगीनाथ पहाड़ पर शिवलिंग, दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी, भगवती लक्ष्मी, गणेश, अर्धनारीश्वरी, विष्णु, उमा, महेश्वर, सूर्यदेव, हनुमान के मूर्ति हैं. इसके अलावा सुंदर व मनोहारी वृषभ, सिंह, गज की पत्थर निर्मित प्रतिमा, छोटे छोटे ढांचों में बने पलस्तर मूर्तियां, पत्थर से निर्मित नाली, पीसने की सिलवट, पौराणिक ईंट, असुर कालीन ईंट है.

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