छपरा. नब्बे के दशक तक शहर के सरकारी बाजार और साढ़ा ढाला के नजदीक स्थित चूड़ी बाजारों की रौनक देखने लायक होती थी. गांव से लेकर शहर तक की माहिलाएं यहां चूड़ियों के साथ श्रृंगार के अन्य सामान खरीदने आया करती थीं. तब माहिलाओं को महीने में एक या दो बार घर से बाहर निकलकर अपने जरूरत के सामान खरीदने का मौका मिलता था. खरीदारी के दौरान उन चूड़ियों की खनक के बीच सामाजिक सरोकार से जुड़ी बातों को भी नया स्वर मिलता था. शादी ब्याह के सीजन में जब कभी भी चुनाव की तिथियां तय होती थीं तब यह बाजार अक्सर आधी आबादी की चुनावी चर्चाओं का केंद्र बनता था. जब चुनाव का समय आता था तब इस बाजार में श्रृंगार प्रसाधनों की खरीद-बिक्री के साथ चुनावी चर्चा भी हुआ करती थी. तब बाजार आकर ही महिलाओं को घंटे दो घंटे एक दूसरे से बातचीत का अवसर मिलता था. बातचीत के क्रम में महिलाओं के बीच आपसी मंत्रणा होती थी. चुनाव के समय प्रत्याशियों के बैनर व पोस्टर भी इन बाजारों में चारो तरफ लगाये जाते थे जिससे महिलाओं को अपने उम्मीदवारों को जानने और समझने का मौका मिलता था. शहर के मौना निवासी बुजुर्ग शारदा देवी बताती है कि महीने में एक बार आसपास की माहिलाएं चूड़ी बाजार जाती थीं. चूड़ियों की खरीदारी भी होती थी और आपस में घर परिवार से लेकर समाज तक की चर्चा की जाती थी. जब चुनाव आता तब चूड़ी बाजार की गली में भी प्रत्याशी आते थे. पुरुष प्रत्याशियों के साथ उनकी महिला समर्थक भी होती थी. वह हमसे वोट की अपील करती थीं. मोहन नगर की सरोज देवी बताती हैं कि ऐसा नही था कि इन बाजारों में आयी माहिलाएं सिर्फ शौक-श्रृंगार की ही चर्चा करती थी बल्कि अपने मुहल्ले से जुड़ी बातें, सड़क, पानी और बिजली जैसे मुद्दे भी इन बाजारों में छाये रहते थे. चूड़ी बाजार आयी माहिलायएं शिक्षा और मनोरंजन से जुड़ी बातें भी किया करती थी. वहीं चुनाव के समय उम्मीदवारों से जुड़ी जानकारियां भी यहां साझा हुआ करती थीं. आज समय के साथ शहर के चूड़ी बाजार गुमनाम होते जा रहे हैं. कुछ दुकानों से चूड़ियों की खनक तो सुनाई पड़ती है लेकिन समाजिक सरोकार के स्वर अब नही गूंजते.
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