हाजीपुर. दिसंबर माह से जून माह तक गंडक नदी की रेत को हरियाली से भरने वाले किसान इन दिनों मौसम की मार का कहर झेल रहे है. मौसम का साथ नहीं मिलने और नदी में अचानक बेमौसम पानी आ जाने के कारण किसानों की तरबूज, ककड़ी, खीरा, कद्दू आदि सब्जी की फसल सूख गयी. जो फसलें बची हुई है भी उसमें उम्मीद के अनुरूप उत्पादन नहीं हो सका. जिससे किसानों को लागत भी नहीं निकल पा रहा है. इस समस्या से किसान काफी चिंतित है. इन किसानों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है. मालूम हो कि रेत से निकलने वाली लाल-लाल मीठे तरबूज, ककड़ी और खीरा गर्मी के मौसम में लाखों लोगों के गले ही तर नहीं कर रहे, बल्कि किसानों की किस्मत भी बदलते हैं. जिले के अलावा सोनपुर के सैकड़ों किसान रेत पर खेती कर साल भर से संजोए अपने छोटे-मोटे सपने को पूरा करते हैं. इस मौसम में तरबूजों की लाली उनके घर में खुशहाली लेकर आती है. पांच से छह महीने के कठिन परिश्रम के बाद जब बालू के पेट से मीठे फल निकलते हैं, तो किसान खुशी से भर जाते हैं. बालू को वरदान बना कर जिले के परिश्रमी किसानों ने न केवल खुद की तकदीर संवारी है, बल्कि खेती-किसानी को एक नया आयाम दिया है. हाजीपुर से रेवा तक, गंडक नदी के किनारे बालू की रेत पर हजारों एकड़ में तरबूज, खीरा और ककड़ी की खेती होती है. जिले के इस्माइलपुर, हरौली, चांदी, धनुषी, घटारो, बसंता समेत दर्जनों गावों के किसान परिवार इस खेती से जुड़े हुए हैं. लेकिन इस वर्ष किसानों को लागत के अनुरूप उत्पादन नहीं होने से मायूसी है. यूपी के किसानों ने सिखाया खेती के गुर : लगभग चार दशक पहले उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर के किसानों ने यहां आकर गंडक की रेत पर तरबूज की खेती शुरु की थी. वे अपने पूरे परिवार के साथ आकर महीनों डेरा डालते थे और फसल समाप्त हो जाने के बाद वापस लौट जाते थे. तब यहां के किसान इस खेती को कौतूहल से देखते थे. वे सिर्फ हुनर लेकर आये और यहां के श्रम व साधन के सहारे गंडक की उजली रेत को हरी लत्तियों से पाट दिया. कुछ वर्षों बाद उन किसानों ने आना बंद कर दिया. जिले के किसान उनकी सोहबत में यह हुनर सीख चुके थे. लिहाजा, इन किसानों ने खुद ही यह खेती शुरु कर दी. हालांकि शुरुआत में कम ही किसानों ने इसमें दिलचस्पी दिखायी, लेकिन बाद में तरबूज उत्पादन से किसानों की माली हालत बदलती देख बड़ी संख्या में किसान इस ओर आकर्षित हुए. इस तरह होती है तरबूज की खेती : तरबूज की खेती के लिए जाड़े के दिनों में यानि नवंबर-दिसंबर के मध्य में नाली बनाकर पौधों की रोपनी शुरु होती है. इसके लिए रेत पर एक फुट के ब्यास में ढाई-तीन फुट गहरे गड्ढ़े खोदे जाते हैं. इन गड्ढ़ों में अल्प मात्रा में रासायनिक खाद और जैविक खाद डाल कर गड्ढ़ों को सतह तक भर दिया जाता है. एक सप्ताह बाद उस पर बीजों के अंकुर रोप दिये जाते हैं. पौधे रोपने के एक से डेढ़ महीने बाद पानी की सतह तक गोलाकार गड्ढ़े खोद कर जैविक खाद से ऊपरी सतह तक भर दिया जाता है. उसके बाद समय-समय पर कीटनाशक और पानी का छिड़काव करते रहना पड़ता है. पौधे लगाने के बाद फूस की जाली बना कर उन्हें घेर दिया जाता है. ठंड के प्रकोप से पौधों को सुरक्षित रखने और उन्हें फैलने के लिए बालू पर जंगल बिछाये जाते हैं. कुछ महीने बाद ये पौधे फल देने लगते हैं. हालांकि इस बार मनोनुकूल फसल नहीं होने से किसानों में मायूसी हैं. सदर क्षेत्र के हरौली से होती है सप्लाई : सदर प्रखंड का छोटा सा बाजार हरौली तरबूज की सबसे बड़ी मंडी है. क्षेत्र के विभिन्न हिस्सों से तरबूज की खेप इसी मंडी में पहुंचती है. यहां से इसकी सप्लाई दूर-दूर तक होती है. सीजन में लगभग दो सौ गाड़ियां यहां से प्रत्येक दिन खुलती हैं. हरौली मंडी से ये तरबूज बिहार के अनेक हिस्सों में तो जाते ही हैं, टाटा, धनबाद, सिलीगुड़ी, जलपाईगुड़ी की मंडियों तक इनका कब्जा है. नेपाल में भी इसकी सप्लाई होती है. इस तरह वैशाली के किसानों की मेहनत से उगाए गये तरबूज देश-प्रदेश की मंडियों में मिठास घोलते हैं. क्या कहते है किसान : फसल लगाने के कुछ दिन बाद नदी में अचानक पानी आ जाने के कारण बहुत से किसानों की फसल बर्बाद हो गयी. जो कुछ बची हुई फसल है, उसमें भी उम्मीद के अनुरूप फल नहीं लगे है. जिससे नुकसान हुआ है. – रिंकू देवी, किसान एक छोटी नाली में खेती करने में करीब 6 हजार और बड़ी नाली में करीब 20 हजार रुपये लागत आती है. फसल अच्छा होने पर छोटी नाली से करीब 20 हजार और बड़ी नाली से करीब 70 हजार रुपये की कमाई होती है. लेकिन इस वर्ष लागत भी ऊपर नहीं हो रहा है. – शंभू सहनी, किसान मौसम का साथ नहीं मिलने के कारण फसल अचानक सूखने लगी. फसल को बचाने के लिए दवा का छिड़काव किया गया, लेकिन उत्पादन बहुत अच्छा नहीं हो सका. सरकार को रेत पर खेती करने वाले किसानों को मदद करनी चाहिए. – आकाश कुमार, किसान
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