गांधी जी ने 1909 में कहा था कि शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की एकमात्र चिंता पद पर बने रहने की होती है, जिसके कारण वे न्याय के प्रति कम रुचि दिखाते हैं. अंग्रेजी शासन खत्म होने के बाद कई दशक बाद 21वीं सदी में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है. संविधान में गांधी के आदर्शों का अनुमोदन करते हुए प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा है कि जज राजकुमार नहीं हैं. न्यायाधीश लोगों की सेवा करने और अधिकार दिलाने वाले होते हैं, इसलिए वे सही और समझने योग्य फैसले लिखने की जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. अशिक्षित लोग तो पढ़ नहीं सकते, लेकिन औसत शिक्षित लोगों के लिए भी अदालती फैसलों को समझना मुश्किल होता है. प्रधान न्यायाधीश के बयान के चार अहम पहलुओं पर स्वस्थ चर्चा जरूरी है.
पहला- जज राजकुमार नहीं होते. जिला अदालतों में मजिस्ट्रेट और जजों की नियुक्ति परीक्षा और इंटरव्यू से होती है. लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति होती है. मोदी सरकार को यदि तीसरा कार्यकाल मिला, तो जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक आयोग के कानून को नये सिरे से बनाने की कोशिश होगी. नियुक्ति प्रणाली के साथ-साथ जजों को हटाने के लिए बनाये गये कठिन महाभियोग प्रक्रिया की आलोचना भी होती है. संविधान लागू होने के 74 साल बाद अभी तक किसी भी जज को महाभियोग से नहीं हटाया गया है.
कई रिटायर्ड जजों ने न्यायिक व्यवस्था में सामंतवाद की आलोचना की है. दूसरा- न्यायाधीश लोगों की सेवा करने और अधिकार दिलाने के लिए होते हैं. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला आया है, जिसके अनुसार वकीलों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे से बाहर रखा गया है. साल 1996 में आईएमए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टरों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में लाने का फैसला दिया था. अब उस पर भी पुर्नविचार की बात हो रही है.
वकीलों ने यह तर्क दिया था कि मुकदमों में क्लाइंट और वकीलों के अलावा जजों का तीसरा पक्ष शामिल रहता है. इसलिए उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत वकीलों की जिम्मेदारी नहीं बननी चाहिए. लेकिन प्रधान न्यायाधीश ने अपने बयान में जजों को सर्विस प्रदाता बताया है. इससे उलझनें बढ़ सकती हैं. गलत या देर से फैसले देने वालों जजों के खिलाफ अयोग्यता, भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता के आधार पर वेतन वृद्धि या प्रोन्नति रोकने या बर्खास्तगी जैसे दंडात्मक प्रावधानों की मांग बढ़ सकती है.
तीसरा- जज लोगों को अधिकार दिलाते हैं. दिल्ली शराब घोटाले के एक आरोपी अमनदीप सिंह ढल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के नये फैसले के अनुसार जमानत का जल्दी निपटारा नहीं होने से लोगों को बेवजह जेल में रहना पड़ता है. न्यूजक्लिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को अवैध ठहराते हुए उनकी रिहाई का फैसला दिया है. उन्हें आठ महीने जेल में रहना पड़ा. उनकी अवैध गिरफ्तारी और संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए पुलिस और जांच एजेंसियों के साथ जिला अदालतों और हाईकोर्ट के जजों की भी जिम्मेदारी बनती है. पचास दिन की कैद के बाद अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत दी है. इस फैसले को नजीर मानते हुए पंजाब हाईकोर्ट ने कांग्रेस के एक नेता को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दिया है. लेकिन सुनवाई फिर टलने की वजह से हेमंत सोरेन को चुनाव प्रचार का हक नहीं मिल पा रहा है. अंतरिम जमानत पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही तरीके से आगे बढ़ाया जाये, तो हजारों लोगों को जेल के बंधन से मुक्ति मिल सकती है. क्या जमानत की अर्जी के बगैर अंतरिम जमानत मिल सकती है? अगर जेल से वोट डालने का अधिकार नहीं है, तो फिर चुनाव प्रचार का संवैधानिक अधिकार कैसे मिल सकता है? क्या नेताओं को आम जनता से ज्यादा अधिकार हासिल हैं? ऐसे अनेक बिंदुओं पर न्यायिक एकरूपता आये, तो आरोपियों को जिला अदालतों और हाईकोर्ट से जमानत मिलने में आसानी रहेगी.
चौथा- सरल और समझ में आने वाले फैसलों के अनेक पहलू हैं. फैसलों का मुख्य आधार कानून हैं, जो जटिल होने के साथ अंग्रेजी भाषा में हैं. भारी दस्तावेज और लंबी सुनवाई के बाद दुरुह और विरोधाभासी फैसलों से मुकदमेबाजी का मर्ज बढ़ता जाता है. कई जज कानून से ज्यादा वकील के चेहरे और आरोपी की हैसियत के अनुसार फैसला देते हैं. कई फैसलों में व्यक्तिगत आग्रह प्रभावी होते हैं, जिससे विवाद के साथ न्यायपालिका की साख भी गिरती है. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश सुंदरेश की बेंच ने अहम फैसला दिया है कि सजा देने के बारे में सभी अदालतों में स्पष्ट और समान नीति होनी चाहिए. जजों की मनमर्जी से सजा होना कानून सम्मत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले देश का कानून माने जाते हैं, लेकिन कई बार जज ही उन पर अमल नहीं करते. हरियाणा में सामुदायिक भूमि के मामले में 1967 के फैसले को दरकिनार कर 2022 में दो जजों ने गलत फैसला दिया था. सही फैसले तर्कसंगत और स्पष्ट तरीके से दिये जाते हैं, जबकि मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए गलत फैसलों में जटिल भाषा का इस्तेमाल होता है.
संविधान पीठ के फैसले सबसे ज्यादा दुरुह होते हैं. उन मामलों में लंबी-चौड़ी सुनवाई और बड़े फैसलों से जजों का मान-मर्दन होता है. लेकिन ऐसे बड़े फैसलों से जमीनी तौर पर आम जनता को सीमित लाभ मिलता है. साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की एक संविधान पीठ के बड़े फैसले के बावजूद निजता के अधिकार के बारे में कोई कानूनी स्पष्टता नहीं है. इसी तरीके से मुंबई में निजी संपत्ति के अधिग्रहण से जुड़े अनुच्छेद 39-बी के मामले में नौ जजों की संविधान पीठ ने कई दिन तक सुनवाई करने के बाद फैसला रिजर्व रखा है. लेकिन उसके पहले ही दो जजों की बेंच ने एक अहम फैसला देकर अनुच्छेद 300-ए के तहत संपत्ति के अधिकार से जुड़े सात पहलुओं को संवैधानिक मान्यता दी है. जमानत के मामलों में हफ्तों सुनवाई के बाद बड़े और जटिल फैसले आते हैं, जिससे मुख्य मामले की मेरिट पर प्रभाव पड़ता है. आम लोगों से जुड़े मामलों के जल्दी निपटारे के चक्कर में पूरी फाइल पढ़ने की बजाय जज दो पन्ने का संक्षेपण लेना पसंद कर रहे हैं. इससे भारी-भरकम चार्जशीट और निचली अदालतों के दस्तावेज बेमानी हो जाते हैं. फैसलों में तकनीक के इस्तेमाल की बहुत बातें हो रही हैं. लेकिन इसके बारे में नियम और कानून के बगैर फैसले लिखने का चलन बढ़ा, तो अन्याय और अराजकता बढ़ सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)