पहले विश्व युद्ध के बाद से दुनिया में डॉलर का महत्व बढ़ता रहा है. जब अमेरिका के सहयोगी देश सामान के बदले सोना देने लगे, तो अमेरिका अधिकारिक तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण भंडार बन गया. युद्ध के बाद अनेकों देशों ने अपनी मुद्राओं को डॉलर के साथ जोड़ा और गोल्ड स्टैंडर्ड समाप्त हो गया तथा डॉलर दुनिया की सबसे पसंदीदा करेंसी बन गया. सभी देशों ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को डॉलर में रखना शुरू कर दिया, जिससे 1999 तक दुनिया के कुल विदेशी मुद्रा भंडारों में डॉलर का हिस्सा 71 प्रतिशत तक बढ़ गया. उस साल यूरोप में साझा करेंसी यूरो का प्रादुर्भाव हुआ और अधिकतर यूरोपीय देशों ने डॉलर के बदले यूरो रखना शुरू कर दिया. इससे रिजर्व करेंसी में डॉलर का हिस्सा घटने लगा और 2021 तक यह 59 प्रतिशत रह गया. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार डॉलर का वैश्विक रिजर्व करेंसी के रूप में हिस्सा 2023 में 58.41 प्रतिशत था.
महत्वपूर्ण बात यह है कि चाहे डॉलर का महत्व घटता गया हो, लेकिन वह अभी भी दुनिया की सबसे पसंदीदा करेंसी है. यूरो का हिस्सा अभी भी 20 प्रतिशत के आसपास ही है. अधिकांश अंतरराष्ट्रीय लेन-देन डॉलर में ही होते हैं. इस कारण से डॉलर लंबे समय से कभी भी खास कमजोर नहीं हुआ. भारतीय रुपये के संदर्भ में देखें, तो 1964 में जहां एक डॉलर 4.66 रुपये के बराबर था, वह अब 83.4 रुपये तक पहुंच चुका है. लेकिन कुछ समय से दुनिया के देशों में वि-डॉलरीकरण के संकेत मिल रहे हैं. डॉलर के लगातार मजबूत होने के कारण लगभग सभी देशों, खासतौर पर विकासशील देशों, को खासा नुकसान होता रहा है.
पिछले कुछ समय से भारत सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अंतरराष्ट्रीय भुगतानों में रुपये की भूमिका बढ़ाने का प्रयास लगातार हो रहा है. लगभग 20 देशों के साथ इस बाबत सहमति बनी है. उधर अंतरराष्ट्रीय उथल-पुथल और खास तौर पर रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण अमेरिका और यूरोपीय देशों के प्रतिबंधों के चलते लेन-देन में कठिनाई के कारण दूसरे देशों में भी स्थानीय करेंसियों में भुगतान के प्रयास तेज हो गये हैं. डॉलर के प्रति विमुखता इसलिए भी बढ़ी है कि अमेरिका ने रूस को आक्रमणकारी बताते हुए उसके तमाम डॉलर रिजर्व को जब्त कर लिया है. इससे दूसरे मुल्कों में यह भय व्याप्त हो गया है कि देर-सबेर अमेरिका उनके साथ भी ऐसा कर सकता है. तब उन मुल्कों के सामने भी रूस जैसी भुगतान की समस्या आ सकती है. ऐसे में तमाम मुल्क दोतरफा प्रयास कर रहे हैं- एक, स्थानीय करेंसियों में भुगतान और दो, डॉलर के स्थान पर सोने के भंडार में वृद्धि.
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अप्रैल के पहले सप्ताह तक 648.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. लेकिन इस बीच एक महत्वपूर्ण बात यह दिखी कि इस भंडार में सोने का हिस्सा 55.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें एक सप्ताह में ही 1.24 अरब डॉलर की वृद्धि हुई. बताया जा रहा है कि एक ही सप्ताह में सोने के भंडार में छह टन की वृद्धि हुई. पिछले साल की तुलना में भारत का स्वर्ण भंडार 13 टन ज्यादा है. दुनिया में आधिकारिक स्वर्ण भंडार की दृष्टि से भारत का स्थान नौवां है. वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में जहां विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों और अन्य संस्थाओं द्वारा 450.1 टन सोने की खरीद की गयी, जो 2022 में 1135.7 टन हो गयी.
वर्ष 2023 में केंद्रीय बैंकों ने 1037 टन सोने की खरीद की. गौरतलब है कि गहनों के रूप में सोने की मांग पहले के मुकाबले घटती जा रही है, जबकि निवेश के रूप में सोने की मांग बढ़ रही है. पिछले सालों में केंद्रीय बैंकों द्वारा सोने की खरीद में अभूतपूर्व वृद्धि ने दुनिया में सोने की मांग बढ़ा दी है. पिछले दो-तीन वर्षों में सोने की कीमत में भारी वृद्धि हुई है. वर्ष 2018 में सोने की औसत कीमत 1268.93 डॉलर प्रति औंस थी, जो 2024 में अब तक 2126.82 डॉलर प्रति औंस तक पहुंच चुकी है, यानी मात्र छह वर्षों से भी कम समय में सोने की कीमत में 67.6 प्रतिशत (लगभग 9.5 प्रतिशत वार्षिक) वृद्धि हुई है. वर्ष 1988 में सोने की कीमत 437 डॉलर प्रति औंस थी, जो 2018 तक बढ़कर 1268.93 तक पहुंची थी, यानी 30 सालों में 3.61 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि. लेकिन पिछले छह सालों में सोने की कीमतें 9.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही हैं. ऐसे में आर्थिक विश्लेषक वैश्विक मौद्रिक एवं वित्तीय परिस्थितियों में महत्वपूर्ण बदलावों की ओर इंगित कर रहे हैं.
पहला कारण यह है कि अमेरिका के केंद्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व- द्वारा ब्याज दर, जिसे फेड रेट भी कहते हैं, के घटने की संभावना व्यक्त की जा रही है. ब्याज दरें कम होने पर लोग वित्तीय परिसंपत्तियों के बजाय सोना खरीदने की ओर आकर्षित होंगे. ऐसे में यदि ब्याज दर गिरती है, तो सोने की मांग बढ़ेगी. दूसरा कारण यह बताया जा रहा है कि चीन समेत दुनियाभर के केंद्रीय बैंक अब ज्यादा से ज्यादा सोना खरीद रहे हैं. इस प्रवृत्ति के थमने की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है. तीसरा, दुनियाभर में सोने की कीमतों में वृद्धि की अपेक्षा की जा रही है. ऐसे में केंद्रीय बैंकों द्वारा ज्यादा सोना खरीदने की संभावनाएं और भी बढ़ रही हैं क्योंकि यदि केंद्रीय बैंक अपने विदेशी मुद्रा भंडार में सोने की मात्रा बढ़ाते हैं, तो बढ़ती सोने की कीमतों के साथ उनके विदेशी मुद्रा भंडार स्वयमेव बढ़ जायेंगे.
सोने की यह बढ़ती मांग कई सवाल खड़े करती है, जिसमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या अब डॉलर का वर्चस्व समाप्त हो रहा है. एक अन्य सवाल यह है कि क्या सोने का महत्व अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में भी बढ़ने वाला है. ऐसा होता है या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि विश्व वि-डॉलरीकरण की ओर बढ़ रहा है तथा उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ कई देश अपने विदेशी व्यापार को अपनी घरेलू मुद्राओं में निपटाने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में डॉलर के विकल्प में सर्वाधिक प्राथमिकता सोने को दी जा सकती है. दुनिया के कई देश अमेरिका द्वारा उनके विदेशी भंडारों के जब्त किये जाने के अंदेशे से भी आशंकित हैं क्योंकि रूस के साथ अमेरिका ऐसा कर चुका है. भारत और चीन सहित दुनिया में सोने की मांग बढ़ने का यह भी एक मुख्य कारण बन रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)