लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की ‘हैट्रिक’ का नारा दिया है. वैसा हुआ, तो विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस की भी ‘हैट्रिक’ होगी. दोनों बड़े दलों पर परिणामों का दूरगामी असर होगा, लेकिन कुछ दल और नेता तो ऐसे हैं, जिनका भविष्य ही इस चुनाव में तय हो जायेगा. राजनीति में किसी को खारिज नहीं करना चाहिए, पर बदलते परिदृश्य में कुछ नेताओं के लिए यह चुनाव निर्णायक साबित हो सकता है. हार के बाद उनका वजूद तो बचा रह सकता है, किंतु चुनावी राजनीति में प्रासंगिकता शायद ही बचे.
उत्तर प्रदेश में चमत्कारिक रफ्तार से बढ़ी बसपा अपने बूते सत्ता तक पहुंची. मायावती ने चार बार मुख्यमंत्री बनने का करिश्मा कर दिखाया. मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में असर के चलते केंद्रीय सत्ता की चाबी कभी बसपा के हाथ नजर आती थी. पार्टी को राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला और मायावती प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगीं. वे प्रधानमंत्री नहीं बन पायीं, पर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी शक्तिशाली राजनेता माना जाता है. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन में 19.3 प्रतिशत वोट की बदौलत 10 सीटें जीतने में सफल बसपा अकेले लड़ने पर 2022 के विधानसभा चुनाव में 12.88 प्रतिशत वोट और मात्र एक सीट पर सिमट गयी. उसके दस सांसदों में से ज्यादातर चुनाव से पहले हाथी का साथ छोड़ गये. यह चुनाव भी बसपा अकेले लड़ रही है.
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ ने बसपा से दोस्ती की कोशिश की थी. अखिलेश की मानें, तो ‘इंडिया’ मायावती को प्रधानमंत्री बनाना चाहता था. फिर क्यों मायावती ने ‘एकला चलो’ का फैसला किया? इसके जवाब में बहुत कुछ छिपा हो सकता है. पिछले लोकसभा चुनाव में यदि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन 15 सीटें जीतने में सफल हो गया था, तो बदलते राजनीतिक परिदृश्य में इस बार कांग्रेस के भी साथ होने पर ‘इंडिया’ उत्तर प्रदेश में बड़ी चुनौती पेश कर सकता था, जो भाजपा का सबसे बड़ा शक्ति स्रोत है. इसीलिए बसपा पर भाजपा की ‘बी टीम’ होने के आरोप लग रहे हैं.
भतीजे आकाश आनंद को बीच चुनाव उत्तराधिकारी के साथ ही नेशनल कॉर्डिनेटर पद से हटाने को भी मायावती की अबूझ राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है. बसपा की चार दशक की राजनीतिक कमाई क्यों दांव पर लगायी, यह मायावती बेहतर जानती होंगी, लेकिन सिमटता जनाधार उन्हें चुनावी राजनीति में अप्रासंगिक बना रहा है. इस चुनाव में बसपा चमत्कार नहीं कर पायी, तो राजनीतिक शोध का विषय बन कर रह जायेगी.
राष्ट्रीय लोकदल का भी सब कुछ दांव पर है. जवाहर लाल नेहरू से मतभेदों के चलते कांग्रेस से अलग भारतीय क्रांति दल बनाने वाले चौधरी चरण सिंह बाद में प्रधानमंत्री भी बने. हार-जीत होती रही, दल का नाम भी बदलता रहा, पर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा से भी आगे पंजाब, मध्य प्रदेश और ओडिशा तक फैले उनके जनाधार और क्षत्रपों पर सवालिया निशान नहीं लगा. उनके निधन के बाद, खासकर मंडल-कमंडल के ध्रुवीकरण के चलते वह जनाधार उनके बेटे अजित सिंह के दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक सिमट गया.
उनके पुत्र जयंत चौधरी में चरण सिंह की छवि देखने वालों को उम्मीदें बहुत थीं, पर उन्होंने जिस तरह पलटी मार मात्र दो सीटों के लिए सत्तापक्ष का दामन थाम लिया, उसके नतीजे किसान राजनीति के सबसे बड़े चौधरी की विरासत का भविष्य भी तय कर देंगे. वैसी ही चुनौती बिहार में चिराग पासवान के समक्ष है. रामविलास पासवान, लालू यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी चौधरी चरण सिंह की अगुवाई वाली लोकदल-समाजवादी राजनीतिक धारा से निकले. बिहार मंे कई लोगों की राजनीति लंबी नहीं बची है. लालू के वारिस के रूप में तेजस्वी ने खुद को स्थापित कर लिया है, पर पासवान की विरासत पर संकट है. पहले लोजपा भाई और भतीजे के बीच बंट गयी, तो अब चुनावी परीक्षा है.
महाराष्ट्र में शिवसेना तोड़कर भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे की असली परीक्षा इस चुनाव में है. यही हाल अजित पवार का है. पांच साल में अपने चाचा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दो बार तोड़ कर भाजपा की मदद से उप मुख्यमंत्री बनने वाले अजित महाराष्ट्र की राजनीति के ‘दादा’ बन पाये हैं या नहीं, यह फैसला हो जायेगा. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस के गठबंधन महाविकास अघाड़ी की सरकार गिराने और वैकल्पिक सरकार बनाने में भाजपा के लिए शिंदे और अजित की उपयोगिता थी.
यदि वे असफल रहे, तो भाजपा उनका बोझ नहीं ढोयेगी क्योंकि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव अक्तूबर में है. उसी समय हरियाणा में भी चुनाव है. वहां पिछली बार भाजपा बहुमत से चूक गयी और सत्ता की चाबी नयी बनी जननायक जनता पार्टी के हाथ चली गयी. उस चाबी के सहारे 10 विधायकों के नेता दुष्यंत चौटाला उपमुख्यमंत्री बन गये, लेकिन बीते मार्च वह गठबंधन टूट गया और बात भाजपा सरकार गिराने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने तक पहुंच गयी है. जजपा खुद बिखराव के कगार पर है. इसका भविष्य भी इस बार तय हो जायेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)