Court: वर्ष 2016 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी. एस. ठाकुर ने कोर्ट में लंबित मामलों, खाली पड़े न्यायिक पदों और बुनियादी ढांचों से जुड़ी परेशानियों की चर्चा करते हुये भावुक हो उठे थे. उनका कहना था कि तमाम दुश्वारियों के चलते देश की न्यायिक व्यवस्था पर देशवासियों के भरोसे का बुरा असर पड़ रहा है. इसी तरह भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमन्ना ने अक्टूबर 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच की एनेक्सी बिल्डिंग के उद्घाटन के मौके पर कहा था कि “भारत की अदालतों में बढ़िया बुनियादी ढांचे की आवश्यकता से जुड़ी बातें हमारे ज़ेहन में हमेशा ही बाद में आती रही हैं. इसी मानसिकता की वजह से आज भी हमारे देश की अदालतें पुरानी और टूटी-फूटी इमारतों से चलाई जा रही हैं. ऐसे में अदालतों को प्रभावी रूप से अपनी भूमिकाओं के निर्वाह में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
आम आदमी की पहुंच से दूर होता कोर्ट :
शोधकर्ता शिशिर त्रिपाठी ने अपनी किताब “स्टैल्ड व्हील्स ऑफ जस्टिस” (न्याय के रुके हुये पहिये) में उन सारी बातों का जिक्र किया है, जिसके कारण आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान हो रहा है. लेखक के मुताबिक कोर्ट काफी खर्चीला हो गया है. अनऑफिशियली तौर पर एक एमपी को चुनाव लड़ने में 50 से 100 करोड़ रुपये खर्च करने होते हैं, उसी तरह से एक बड़े वकील के कोर्ट में अपीयर होने का खर्च ही 10 से 20 लाख रुपया होता है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा लोकतंत्र और न्याय प्रणाली कितनी खर्चीली है. भला इसमें आम आदमी को न्याय कैसे मिल सकता है? इस सब को एक बड़ा कारण न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास का न होना है. यदि इस पर गंभीरता से काम किया जाये, तो स्थिति को जल्द ही बदला जा सकता है.
चार करोड़ से ज्यादा मामले पेंडिंग :
नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड(NJDG) के मुताबिक आज देश भर के विभिन्न अदालतों में कुल लंबित मामलों की संख्या चार करोड़ 50 लाख से ज्यादा पहुंच चुकी है. 2023 तक 93220 केस 30 सालों से पेंडिंग है. वहीं 20 से 30 साल के पेंडिंग केसों की संख्या चार लाख 95 हजार दौ सौ सत्तावन है. साथ ही पांच लाख 88 हजार चार सौ सतहतर लोग अपनी जिंदगी की आधी उम्र पार कर जेल में न्याय का इंतजार कर रहे हैं. उसमें से 33726601 केस आपराधिक मामलों के एवं 10977331 केस सिविल के है. 10 साल से ज्यादा पेंडिंग केसों की संख्या 3230452 है. लंबित मामलों का एक बड़ा कारण न्यायाधीशों की कमी और कोर्ट में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. न्यायिक बुनियादी ढांचे के विकास न हो पाने का एक बड़ा कारण केंद्र और राज्यों की हिस्सेदारी भी है.हिस्सेदारी को लेकर राज्यों का भी अपना तर्क है. वर्तमान सरकार ने इस दिशा में काफी काम किया है, फंड भी केंद्र सरकार की ओर से भेजे जा रहे हैं, आवंटन में भी वृद्धि की गयी है, लेकिन फिर भी लोअर कोर्ट, ट्रायल कोर्ट में सुविधाओं का घोर अभाव है. नेशनल ज्यूडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन (NJIC) के मुताबिक मात्र 27 फीसदी ट्रायल कोर्ट में ही कंप्यूटर की सुविधा उपलब्ध है. कोर्ट रूम में महिलाओं के लिये शौचालय, स्वच्छ पेयजल, मेडिकल फैसिलिटी,आवास आदि की कमी है.
न्याय की आस में लग जाते हैं सालों साल :
लेखक ने कुछ केस का जिक्र करते हुये बताया है कि एक मामला सिविल से संबंधित बिहार के सीतामढ़ी से जुड़ा है. छह कट्ठा जमीन पर अपनी दावेदारी को लेकर 5 अगस्त 1967 को सीतामढ़ी के बनारस साह ने टाइटल सूट दायर किया था. यह मामला 19 साल तक ट्रायल कोर्ट में ही चलता रहा. ट्रायल कोर्ट ने 1986 में मामला खारिज कर दिया. फिर उन्होंने निचली अदालत में ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील किया. निचली अपीलीय अदालत ने 1988 में इस अपील पर फैसला वादी बनारस साह के पक्ष में दिया. प्रतिवादी कृष्ण कांत प्रसाद के वारिस पटना हाईकोर्ट चले गये. पटना हाईकोर्ट की एकलपीठ ने 1989 में फैसला सुनाते हुये अपील खारिज कर दी. आदेश सुनाते हुये न्यायाधीश ने कहा कि प्रथम अपीलीय अदालत के निष्कर्ष सही है और इससे कानून का कोई बड़ा सवाल खड़ा नहीं होता है. इसके बाद कृष्णकांत प्रसाद के वारिस ने सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटीशन दायर किया. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में 11 साल चला और तब सुप्रीम कोर्ट पटना हाईकोर्ट के फैसले को गलत बताया. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट का फैसला सही नहीं था. क्योंकि भूमि के टाइटल से संबंधित यह बेहद गंभीर विवाद था. जबकि हाईकोर्ट ने भूमि संबंधी विवाद को बहुत ही सामान्य माना था. सुप्रीम कोर्ट के 23 फरवरी 2000 के आदेश के तहत उच्च न्यायालय ने नये सिरे से विचार करने के लिये इस मामले को फिर से रिमांड पर लिया. हाईकोर्ट ने इस मामले पर विचार कर 9 साल बाद अगस्त 2009 में दूसरी अपील को भी खारिज कर दिया. प्रतिवादी ने फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में दायर किया. सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुये पाया कि वादी जब 5 अगस्त 1967 को मालिकाना हक और कब्जे को लेकर मुकदमा दायर किया था तब वह उस संपत्ति के मालिक नहीं थे. ना ही वह संपत्ति उनके कब्जे में था. वादी के मुकदमे दायर करने से पहले यानी 1958 से ही इस भूमि पर कब्जा प्रतिवादी का है और उनके पास इसका साक्ष्य भी है. इसलिये जमीन पर कृष्णकांत प्रसाद के वारिस का ही हक बनता है. इस तरह से यह मुकदमा 54 साल चला और जब फैसला आया तो वादी और प्रतिवादी ही नहीं उस पीढ़ी के भी कोई व्यक्ति फैसला सुनने को नहीं बचे थे.
जब मुकदमें का सामना किये बिना जेल में बिताये 54 साल :
इसी तरह से मचल लालुंग असम के मोरीगांव के लालुंग जनजाति के सदस्य थे, जिन्होंने मुकदमे का सामना किए बिना भारतीय जेल में 54 साल बिताये. उन्हें 1951 में “गंभीर नुकसान पहुंचाने” के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और तेजपुर के एक मनोरोग संस्थान में स्थानांतरित कर दिया गया, जहां उन्हें भुला दिया गया. जब उनके ऊपर आरोप लगा तब उनकी उम्र मात्र 23 साल थी. 54 साल तक केस की सुनवाई ही नहीं हुई, जब उन्हें जेल से रिहा किया गया, तब उनकी उम्र 77 साल हाे चुकी थी. इसी तरह का मामला कानपुर के उमाकांत मिश्रा का है जिन पर 29 साल के उम्र में चोरी का आरोप लगा और जब वह अदालत से बरी किये गये, तब उनकी उम्र 65 साल हो चुकी थी. इस तरह के मामले लाखों में कोर्ट में पेंडिंग है. यदि समय रहते न्यायिक बुनियादी ढांचे का विकास नहीं किया गया, तो मामला और अधिक गंभीर हो सकता है.