11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Saharsa news : आज ही के दिन बागमती ने लील ली थी सैकड़ों यात्रियों की जान

Saharsa news :यह देश का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल हादसा था.

Saharsa news : 06 जून, 1981- दिन शनिवार. मानसी से सहरसा की ओर यात्रियों से खचाखच भरी नौ डिब्बों की पैसेंजर ट्रेन अपनी रफ्तार में जा रही है. यात्री अपने में व्यस्त हैं. कोई बात करने में मशगूल है, तो कोई मूंगफली खा रहा है. कोई नींद की झपकी ले रहा है, तो कोई उपन्यास पढ़ रहा है. उसी वक्त अचानक ट्रेन हिलती है. यात्री जब तक कुछ समझ पाते, तब तक ट्रेन बागमती नदी में समा जाती है और सैकड़ों यात्री असमय काल-कवलित हो जाते हैं. वह दिन याद करने के बाद आज भी लोगों की रूह कांप जाती है. यह देश का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल हादसा था, जिसमें एक झटके में सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये थे.

कैसे हुआ था हादसा

इस रेल दुर्घटना के कारणों पर यदि गौर करें, तो इस दुर्घटना से जुड़ी दो बातें प्रमुखता से लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी रहीं. पहली यह है कि 06 जून, 1981 शनिवार की देर शाम जब मानसी से सहरसा ट्रेन जा रही थी, तो इसी दौरान पुल पर एक भैंस आ गयी. यह देख ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, लेकिन बारिश होने की वजह से ट्रेन पटरी से उतर गयी और रेलवे लाइन का साथ छोड़ते हुए बागमती नदी में समा गयी. इस एक्सीडेंट से जुड़ी दूसरी थ्योरी यह है कि पुल नंबर 51 पर पहुंचने से पहले तेज आंधी और बारिश शुरू हो गयी थी. बारिश की बौछार खिड़की से अंदर आने लगी, तो यात्रियों ने ट्रेन की खिड़कियों को बंद कर दिया. इससे हवा के एक ओर से दूसरी ओर जाने के रास्ते बंद हो गये और तूफान के भारी दबाव के कारण ट्रेन बोगियाें समेत पलट कर नदी में जा गिरी. हालांकि, घटना के काफी वर्ष बीत जाने के बाद जब प्रभात खबर की टीम घटनास्थल के आसपास के गांवों का दौरा करने पहुंची, तो अधिकतर गांववालों ने दूसरी थ्योरी को सही बताते हुए कहा कि तेज आंधी में यात्रियों द्वारा खिड़कियों को बंद करना घातक साबित हुआ.

काल के गाल में समा गये थे सैकड़ों यात्री

06 जून 1981 काे जिस वक्त यह हादसा हुआ उस वक्त ट्रेन यात्रियों से खचाखच भरी थी.भीड़ ऐसी थी कि छत से लेकर ट्रेन में अंदर व पायदान तक लोग लटके हुए थे. उस दिन लगन भी जबरदस्त था. इस वजह से उस दिन अन्य दिनों के मुकाबले यात्रियों की भीड़ ज्यादा थी. मानसी तक ट्रेन सही सलामत गयी. शाम तीन बजे के लगभग ट्रेन बदला घाट पहुंचती है. थोड़ी देर रुकने के बाद ट्रेन धीरे-धीरे धमारा घाट की ओर प्रस्थान करती है. ट्रेन कुछ ही दूरी तय करती है कि मौसम खराब होने लगता है और तेज आंधी शुरू जाती है. फिर बारिश की बूंदे गिरने लगती हैं और थोड़ी ही देर में बारिश की रफ्तार बढ़ जाती है. तब तक ट्रेन रेलवे के पुल संख्या 51 के पास पहुंच जाती है. इधर, ट्रेन की खिड़कियों से बारिश की बौछार अंदर आने लगती है और यात्री फटाफट खिड़कियों को बंद कर लेते हैं. तब तक ट्रेन पुल संख्या-51 पर पहुंच जाती है. पुल पर चढ़ते ही ट्रेन एक बार जोर से हिलती है. ट्रेन के हिलते ही यात्री डर से कांप उठते हैं. अनहोनी के डर से ट्रेन के धुप्प अंधेरे में ईश्वर को याद करने लगते हैं, तभी जोरदार झटके के साथ ट्रेन ट्रैक से उतर हवा में लहराते हुए बागमती नदी में गिर जाती है.

मानवता भी हुई थी कलंकित

भारत की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी ट्रेन दुर्घटना से एक बदनुमा दाग भी जुड़ गया, जिसने मानवता को भी कलंकित कर दिया. उस दुर्घटना में जो बच गये, वे आज भी उस मंजर को याद कर सिहर उठते हैं. लोग बताते हैं ट्रेन की बोगियों के नदी में गिरने के साथ ही चीख-पुकार मच गयी थी. बहुत से यात्री चोट लगने या डूब जाने से नदी में विलीन हो गये. जो तैरना जानते थे, वे किसी तरह गेट और खिड़कियों से अपने और अपने प्रियजनों को निकाले. पर, इसके बाद जो वाकया हुआ, वह मानवता के दामन पर बदनुमा दाग बन गया. लोग बताते हैं कि घटनास्थल की ओर तैरकर बाहर आनेवालों से कुछ स्थानीय लोगों ने लूटपाट शुरू कर दी. यहां तक कि इसका विरोध करनेवालों को कुछ लोगों ने फिर से डुबाना शुरू कर दिया. उस दुर्घटना में बचे हुए कुछ यात्रियों का तो यहां तक आरोप है कि जान बचाकर किनारे तक पहुंची महिलाओं की आबरू तक पर हाथ डालने का प्रयास किया गया. कुछ लोग बताते हैं कि बाद में जब पुलिस ने बंगलिया, हरदिया और बल्कुंडा गांवों में छापेमारी की, तो कई घरों से टोकरियों में सूटकेस, गहने व लूट के अन्य सामान मिले थे. इससे यात्रियों के आरोपों की पुष्टि हुई थी. वहीं आज के समय में बदला व धमारा घाट के आसपास के ग्रामीण जहां इस बात को झूठ का पुलिंदा बताते हैं, तो कुछ दबी जुबान से इस बात पर सहमति भी जताते हैं.

मृतकों की संख्या पर कन्फ्यूजन

वर्ष 1981 के सातवें महीने का छठा दिन 416 डाउन पैसेंजर ट्रेन के यात्रियों के लिए अशुभ साबित हुआ और भारत के इतिहास की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में शुमार हुआ. इस दुर्घटना में पैसेंजर ट्रेन की सात बोगियां बागमती नदी में समा गयी थीं. हादसे के बाद तत्कालीन रेलमंत्री केदारनाथ पांडे ने घटनास्थल का दौरा किया था. रेलवे ने बड़े पैमाने पर राहत व बचाव कार्य चलाया. पर, रेलवे द्वारा घटना में दर्शायी गयी मृतकों की संख्या आज भी कन्फ्यूज करती है. कारण, सरकारी आंकड़े जहां मौत की संख्या सैकड़ो में बता रहे थे, वहीं अनधिकृत आंकड़ा हजारों का था. प्रभात खबर की टीम ने जब घटनास्थल के आसपास का दौरा किया, तो कई ग्रामीणों ने बताया कि बागमती रेल हादसे में मरनेवालों की संख्या हजारों में थी. ग्रामीणों ने बताया कि नदी से शव मिलने का सिलसिला ऐसा था कि बागमती नदी के किनारे कई हफ्तों तक लाशें जलती रही थीं. वहीं घायलों की संख्या की बात करें, तो यह संख्या भी हजारों में थी. बता दें कि यह हादसा विश्व की दूसरी सबसे बड़ी रेल दुर्घटना में शामिल है. विश्व की सबसे बड़ी ट्रेन दुर्घटना श्रीलंका में 2004 में हुई थी, जब सुनामी की तेज लहरों में ओसियन क्वीन एक्सप्रेस विलीन हो गयी थी. उस हादसे में 1700 से अधिक लोगों की मौत हुई थी.

हादसे को लेकर जो होती रही है चर्चा

आज से कई वर्ष पूर्व हुए इस रेल दुर्घटना से जुड़ी कई चर्चाएं होती रही हैं. उनमें से कुछ महत्वपूर्ण चर्चा आज भी लोगों की जुबान पर है. बताया जाता है कि हादसे के बाद बागमती नदी से शव इतनी ज्यादा संख्या में निकले थे कि प्रशासन ने कुछ दिनों के लिए पुल संख्या-51 के आसपास के ग्रामीणों और पशुओं को बागमती का पानी न पीने की सलाह दी थी. इसके साथ ही छह जून 1981 की शाम धमारा और बदला के आसपास तूफान का वेग इतना ज्यादा था कि छोटे-छोटे बच्चे एक जगह से उठ कर दूर जा गिरे. छह जून 1981 को ट्रेन में यात्रियों की भीड़ ज्यादा होने की मुख्य वजह शादी विवाह का जबरदस्त लग्न होना था. ट्रेन में अधिकतर यात्री शादी व बरात में जा रहे थे या लौट रहे थे.

रात-दिन चिताएं जलती रहीं

आसपास के ग्रामीण बताते हैं कि घटना के बाद लगभग एक महीने तक दिन-रात चिताएं जलती रहीं. बुजुर्ग बताते हैं कि इस दुर्घटना के अगले दिन सुबह से ही हेलीकॉप्टरों का पुल संख्या-51 के बगल के खेत में उतरना-उड़ना कई दिनों तक जारी रहा. ग्रामीण बताते हैं कि सेना और नेवी ने शवों को खोजने के लिए काफी मशक्कत की. सेना ने पानी के अंदर टाइमर विस्फोट कर शव निकालने की योजना बनायी थी. बता दें कि रेलवे के लिए 1981 अशुभ वर्ष के रूप में जाना जाता है. उस वर्ष जनवरी से दिसंबर तक भारत के विभिन्न हिस्सों में कई रेल दुर्घटनाएं हुई थीं. उस समय रेल की कमान केदारनाथ पांडे के हाथ में थी. इस रेल हादसे के बाद हर गोताखोर को एक शव निकालने पर कुछ पैसे देने को कहा गया था, लेकिन गोतोखोरों ने शव निकालने के बदले में पैसा लेने से मना कर दिया था.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें