दरभगा. श्रीराम कथा सत्संग के सातवें दिन आचार्य वेदानंद शास्त्री ने अयोध्या की आंतरिक कलह के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी दी. कहा कि इससे जनमानस को यह सीख मिलती है कि अप्राकृतिक रूप से किसी को कोई भी ऐसा वचन या वरदान मांगने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिससे भविष्य में मुसीबत खड़ी हो जाए. राजा दशरथ ने रानी केकई को दो वरदान मांगने के लिए कहा था. वह वरदान ही उस साम्राज्य पर अभिशाप बनकर टूट पड़ा. वैसे तो जिन्हें यह राम कथा समझ में आती है, वे इसे विधि का विधान समझ कर समझौता कर लेते हैं. परंतु, मानव को सोंच समझकर कोई भी कदम उठाना चाहिए. यहां दो बातें स्पष्ट होती है एक तो श्रीराम की मर्यादित व्यवहार और पिता की आज्ञा का पालन और दूसरी तरफ भरत जी का अपने बड़े भाई के प्रति निश्चल प्रेम और भक्ति. वैसे तो मानव स्वभाव से ही स्वार्थी होता है, परंतु चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षाएं या उनके माता द्वारा तैयार की गयी स्थिति को भरत जी ने ऐसे ही टाल दिए. गुरु से मंत्रणा करते हुए राम जी को वापस अयोध्या बुलाने की जिद कर बैठे. चित्रकूट जाने के क्रम में रास्ते में जिन जिन लोगों से भगवान श्रीराम ने मुलाकात की थी, उनके प्रति भरत श्रद्धा, सद्भाव एवं प्रेम की भावना को प्रदर्शित करते हैं. राम जी को यह सब कुछ पता है, फिर भी उन्होंने जनमानस को अपने भाई की प्रेमा भक्ति और स्नेह दिखाया. प्रेमबस श्री राम उनकी बातों को मानने के लिए तैयार थे, परंतु पिता को दिए गए वचनों को निभाना भी आवश्यक था. उन्होंने परिवार एवं साम्राज्य की मर्यादा और पुरुषार्थ को दिखाने के लिए टाल दिए. अंततः भरत जी को अपनी चरण पादुका देते हुए उन्हें सांत्वना दिये. भरत उसी चरण पादुका को अपने जीवन का आधार बनाकर एक त्यागी और बनवासी की तरह 14 वर्षों तक तपस्या की. इस प्रकरण से हमें सीख मिलती है कि हमें किसी भी प्रकार का लोभ और स्वार्थ अपने जीवन में नहीं लाना चाहिए. स्वार्थ रहित जीवन में ही प्रभु की भक्ति होती है.
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