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कोसी नदी पर पुल का काम करती है नावें, पढ़िए नावों के जुगाड़ पुल की कहानी…

कोसी नदी पर नावें पुल का काम करती है. आस पास के लोगों का कहना है कि बाढ़ के समय और बरसात के समय यह नावें ही लाइफ लाइन की भूमिका के रुप में काम करती है

कोसी नदी ट्रैक्टर पर नाव ले जाते तो देखा जाता है, पर नाव पर ट्रैक्टर ले जाते देखना बाढ़ प्रभावित इलाकों में ही संभव है. बाढ़ प्रभावित कुशेश्वरस्थान पूर्वी के चौकियां, उसरी, जिमराहा, विशुनिया में यह दृश्य आम है. यहां के लोगों को दैनिक कार्य समेत शादी व भोज कार्य के लिए सामान की खरीदारी कर कुशेश्वरस्थान बाजार से कमला बलान तटबंध तक गाड़ी से सामान लाना होता है. फिर तटबंध से घर तक जाने के लिए नाव पर ट्रैक्टर चढ़ाकर कोसी नदी पार कराया जाता है. दो नावों को जोड़ कर उसपर चार चक्का वाहन या ट्रैक्टर चढ़ाकर नदी पार किया जाता है.


400 से 500 सौ रुपये देना पड़ता खेवा
ग्रामीणों ने बताया कि खाली गाड़ी या ट्रैक्टर को नाव से नदी पार कराने पर 200 से 300 रुपये देना पड़ता है. सामान लोड ट्रैक्टर को पार कराने पर 400 से 500 सौ रुपये देने पड़ते हैं. बताया कि उन लोगों के लिए यही नाव पुल का काम करता है. नाव से ही लाेड गाड़ी नदी पार कराते हैं.

घर तक गाड़ी चली जाती यही बड़ी बात
वाहन मालिकों ने बताया कि रुपये तो लगता है, लेकिन घर तक गाड़ी चली जाती है. विमल पंडित ने बताया कि बाढ़ के समय लोगों को घरेलू सामान की खरीदारी कर घर ले जाने में काफी परेशानी होती है. सबसे अधिक परेशानी शादी या यज्ञ आदि के कार्य के लिए सामान ले जाने में आती है. लोग कुशेश्वरस्थान बाजार से सामान ट्रैक्टर पर लोड कर कमला बलान तटबंध तक आते हैं. फिर तटबंध से घर तक ले जाने के लिए लाेड ट्रैक्टर को नाव से नदी पार कराना पड़ता है.

स्कूल टाइम नहीं नाव टाइम से ऑन-ऑफ होता है

स्कूल टाइम नहीं नाव टाइम से शिक्षकों की ऑन-ऑफ होता ड्यूटी शिक्षक देवेंद्र राय, घनश्याम ठाकुर ने बताया कि स्कूल जाने के लिए नाव ही एक मात्र माध्यम है. इसके लिये घाट पर इंतजार करना पड़ता है. कभी-कभी समय पर नाव नहीं मिलती है, तो स्कूल जाने में भी लेट हो जाता है. वहीं स्कूल टाइम के बाद नाव नहीं मिलने पर घर आने में काफी शाम हो जाती है.

किसानों को पशुचारा जुटाने में छूटता पसीना

ग्रामीण सरोज कुमार, राजेश राय ने बताया कि बाढ़ का पानी पूरा फैल जाने पर सबसे ज्यादा मवेशी चारा को लेकर परेशानी होती है. कहा कि वे लोग तो कैसे भी जीवन-यापन कर लेते हैं, परंतु मवेशी के चारा लाने में काफी कठिनाई होती है. इस समय तटबंध के गर्भ में बसे चौकियां, बल्थरबा, पोखर सहित दर्जनों गांवों के लोग तटबंध पर झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं.

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