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बहुपक्षीय संबंध की ओर भारत की विदेश नीति

सोवियत संघ के पतन, नयी आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उत्थान, यूरोपीय संघ के गठन, सर्वशक्तिमान देश के रूप में अमेरिका का उदय तथा इस्राइल-फिलिस्तीनी संघर्ष से हाल में पैदा हुए नये सवाल वैश्विक राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में बड़े बदलाव के कारण रहे हैं या बन रहे हैं.

डॉ आरके पटनायक

प्रोफेसर, गोखले इंस्टिट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स, पुणे

भारत की भू-आर्थिक एवं भू-राजनीतिक आकांक्षाएं बढ़ रही हैं. इसी के साथ एक ऐसा मोड़ आया है, जहां नेहरू युग में स्थापित मान्यताओं को चुनौती मिल रही है, जो साढ़े सात दशक के गणराज्य की यात्रा में सशक्त हुई हैं. गाजा में जनसंहार की आरोपी इस्राइल की नेतन्याहू सरकार से बढ़ती निकटता में यह परिवर्तन सबसे अधिक परिलक्षित हो रहा है. इस बड़े नीतिगत बदलाव को लेकर भारत में सर्वसम्मति नहीं है. विदेश नीति, भू-राजनीति और भू-आर्थिक मामलों में सर्वसम्मति की आवश्यकता कम ही महसूस की जाती है क्योंकि देश में ये गर्मागर्म बहस के विषय नहीं होते.

एक सामान्य नागरिक या छात्र आम तौर पर इनके बारे में गहराई से नहीं सोचता. फिर भी बदलाव के महत्व को रेखांकित की आवश्यकता है क्योंकि इस पर सहमति या चर्चा का अभाव है. यह बदलाव वैश्विक मामलों के एक कठिन दौर में घटित हो रहा है. बीते 30 मई को जारी रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट (2023-24) में भू-राजनीतिक तनावों के गहरे होने, भू-आर्थिक बिखराव बढ़ने तथा वैश्वीकरण के पीछे हटने की स्थिति पर जोर दिया गया था. इस रिपोर्ट में ‘भू-राजनीति’ और ‘भू-आर्थिकी’ का उल्लेख 16 बार किया गया है. इससे इंगित होता है कि अर्थशास्त्र राजनीति से बहुत गहरे तौर पर प्रभावित हो रही है. इससे पता चलता है कि व्यापार, पूंजी प्रवाह और विदेशी मुद्रा बाजार, तेल के दाम, वैश्विक वित्तीय बाजार, मुद्रास्फीति आदि इस तरह से परस्पर जुड़े हुए हैं कि वैश्वीकरण के सिद्धांतों से पीछे हटने से नयी एवं गंभीर आर्थिक चुनौतियां पैदा होंगी.

ये चुनौतियां ऐसे दौर में आ रही हैं, जब दुनिया तनावों से जूझ रही है और सीमाओं के बंद होने, राष्ट्रीय एजेंडा का प्रभाव बढ़ने और मजबूत राष्ट्र-राज्य की प्राथमिकताएं जैसे तत्वों के वैश्वीकरण एवं बहुपक्षीय व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होने की आशंकाएं गहरी होती जा रही हैं. कुछ दिन पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की उप प्रबंध निदेशक गीता गोपीनाथ ने रेखांकित किया है कि व्यापार और निवेश का प्रवाह भू-राजनीतिक हितों के अनुरूप हो रहा है. उन्होंने कहा कि 2017 और 2023 के बीच व्यापारिक तनाव के कारण अमेरिकी आयात में चीन का हिस्सा आठ प्रतिशत तथा चीन के निर्यात में अमेरिका का हिस्सा लगभग चार प्रतिशत घटा है. यूक्रेन युद्ध तथा रूस पर पाबंदी की वजह से रूस और पश्चिम का सीधा व्यापार ध्वस्त हो चुका है. भू-राजनीतिक तनाव नयी बात नहीं है. अतीत में भी इसके असर विदेश व्यापार, पूंजी प्रवाह, मुद्रा प्रवाह और श्रम प्रवासन में देखे गये हैं. सोवियत संघ के पतन, नयी आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उत्थान, यूरोपीय संघ के गठन, सर्वशक्तिमान देश के रूप में अमेरिका का उदय तथा इस्राइल-फिलिस्तीनी संघर्ष से हाल में पैदा हुए नये सवाल वैश्विक राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था में बड़े बदलाव के कारण रहे हैं या बन रहे हैं. ऐसे प्रभाव अंतरराष्ट्रीय शांति, सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता के लिए खतरा बन रहे हैं. दुनिया की आर्थिक व्यवस्था ऐसी स्थिति में जा रही है, जहां विकास और कल्याण संबंधी कार्यक्रमों पर खर्च के बजाय रक्षा के मद में अधिक खर्च होगा.

वर्ष 1990 में एडवर्ड लटवाक ने ‘भू-अर्थव्यवस्था’ शब्द-युग्म का पहली बार प्रयोग किया था. उनका कहना था कि शीत युद्ध की वैचारिक शत्रुता का स्थान विश्व भर में आर्थिक प्रतिस्पर्धा ने लिया है, जहां व्यापार एवं वित्त सैन्य शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं. भू-अर्थव्यवस्था ज्ञान की एक शाखा के रूप में भू-राजनीति से निकली है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध राजनीति संबंधों से निर्देशित होते हैं. साल 1894 में ई कॉबहम ब्रीवर ने उपनिवेशों के संदर्भ में कहा था कि ‘व्यापार झंडे का अनुसरण करता है और झंडा व्यापार का.’ अब इसका उपयोग राजनीति और अर्थव्यवस्था के सह-प्रवाह को रेखांकित करने के लिए किया जाता है. फिर भी, कुछ लोग कह सकते हैं, औपनिवेशीकरण की स्थिति बदली नहीं है क्योंकि वैश्विक व्यापार नयी औपनिवेशिक शक्ति है, जिसमें भारत में एक हिस्सा चाहता है. ब्रिक्स देशों में चीन एक नयी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है. चीन ने भू-राजनीति में भी अपने लिए जगह बनायी है. चीनी मुद्रा रेनमिंबी को मुद्रा कोष द्वारा मुद्रा बास्केट में शामिल करना इसे इंगित करता है. चीन का विदेशी मुद्रा भंडार 3.2 ट्रिलियन डॉलर (अप्रैल 2024) है, जो विश्व व्यवस्था में उसकी बढ़ती वित्तीय शक्ति का परिचायक है. कच्चे तेल के भंडार (भू-आर्थिक क्षमता) और शक्तिशाली सेना (भू-राजनीतिक क्षमता) के साथ भू-राजनीतिक रूप से संवेदनशील है.

भू-राजनीति के संदर्भ में भारत की स्थिति अमेरिका और रूस दोनों से सद्भावपूर्ण संबंध रखने की प्रतिबद्धता है. इसका संकेत रूस के साथ भारतीय मुद्रा में व्यापार फिर से शुरू करने से मिलता है. अमेरिका के साथ भारत का व्यापार 2022-23 में अपने कुल विदेशी व्यापार का 24.44 प्रतिशत रहा था. चीन के साथ भारत का यह आंकड़ा उस वर्ष 17.18 प्रतिशत था. इस पृष्ठभूमि में भारत को देशों के किस समूह में रखा जा सकता है? क्या भारत का झुकाव अमेरिका की ओर है या चीन की ओर, या फिर वह गुट-निरपेक्ष है या वह कहीं भी एवं किसी से भी सहभागिता के लिए तैयार है?

आधिकारिक तौर पर भारतीय विदेश नीति का उद्देश्य परंपरागत गुट-निरपेक्ष सोच से हटते हुए बहुपक्षीय संबंधों की ओर बढ़ना है. यह 2022-23 के विदेश व्यापार डाटा से भी इंगित होता है. अमेरिका और चीन को अलग कर दें, तो 2022-23 में दूसरे देशों के साथ भारत का व्यापार 58.38 प्रतिशत रहा था, जिसमें यूरोपीय संघ के साथ 21.70 प्रतिशत और तेल निर्यातक देशों के साथ 33.4 प्रतिशत व्यापार हुआ था. एक दशक पहले (2013-14) में अमेरिका और चीन को हटाकर दूसरे देशों के साथ भारत के कुल व्यापार का 83.3 प्रतिशत व्यापार होता था. इससे स्पष्ट होता है कि अमेरिका और चीन के साथ भारत का व्यापार बढ़कर एक दशक में 41.62 प्रतिशत (2022-23) हो गया, जो 2013-14 में केवल 16.7 प्रतिशत था. यह झुकाव को इंगित करता है.

संक्षेप में कहें, तो व्यापार विशेषज्ञता और वैश्वीकरण से जो क्षमता हासिल की गयी थी, अब वह खतरे में है. मुद्रा कोष का कहना है कि भरोसा बहाल करना कठिन काम है और इसमें समय लग सकता है, पर बिखरती दुनिया में बेहद खराब नतीजों को रोका जाना चाहिए तथा आर्थिक जुड़ाव के फायदों को सहेजा जाना चाहिए. आशंका से भरे इस परिदृश्य में भारत अपने को फिर से खोज रहा है और जो हम बदलाव देख रहे हैं, वे बेहद नाटकीय हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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