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बांग्लादेश सिर्फ आरक्षण की आग में नहीं धधक रहा, ये राजनीतिक कारण भी हैं…

Bangladesh Student Protest : पाकिस्तान सरकार ने बांग्लादेश में रजाकारों से मुखबिरी का काम कराया और इनके जरिए बांग्लादेशियों को यातनाएं भी दी थीं. रजाकारों को बांग्लादेश में देशद्रोही के तौर पर देखा जाता है.

Bangladesh Student Protest : 2018 में खत्म की गई आरक्षण व्यवस्‍था बीती 1 जुलाई को बांग्लादेश में वापस लौट आई. इसके बाद बांग्लादेशी युवा सड़कों पर उतर आए. आंदोलन इतना उग्र है कि शेख हसीना की सरकार हिल गई है. देश में कर्फ्यू लगा है. आंदोलन के 20 दिन बाद यानी 21 जुलाई को उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया गया. आरक्षण विरोधी आंदोलन में अबतक 151 लोगों की जान जा चुकी है और 1500 से अधिक घायल हैं. शुरुआत में सिर्फ छात्र ही आंदोलन में कूदे थे, पर अब आम आदमी भी इस आंदोलन में शामिल हो गया है. अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया है, जिसे आंदोलनकारियों की बड़ी जीत माना जा रहा है, संभव है कि देश में शांति बहाल हो.

आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान अबतक जो स्थिति रही उसमें बांग्लादेशी पीएम न सिर्फ इस विवाद को सुलझाने में असफल दिखाई दीं, बल्कि उनका बयान- आरक्षण स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को नहीं, तो क्या रजाकारों के बच्चों को दिया जाएगा? देश में लगी आग में घी डालने का काम कर दिया है. उनके बयान में रजाकारों का जिक्र है. यह वे लोग हैं, जिन्हें बांग्लादेश में देशद्रोही के तौर पर देखा जाता है. असल में जब देश का गठन हुआ, तो अलग देश की मांग करने वालों के अलावा बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान ही रहने देने के समर्थक भी थे. तब पाकिस्तान सरकार ने बांग्लादेश में रजाकारों से मुखबिरी का काम कराया और इनके जरिए बांग्लादेशियों को यातनाएं भी दी थीं. तब से रजाकारों को बांग्लादेश में देशद्रोही के तौर पर देखा जाता है. अब जब शेख हसीना ने आरक्षण के खिलाफ लड़ रहे आंदोलनकारियों के लिए “रजाकार” शब्द का प्रयोग किया तो वे और भड़क गए, क्योंकि यह उनके अस्तित्व से जुड़ा मामला था.

बांग्लादेश में उभरे इस विवाद के पीछे क्या है वजह? क्यों देश में कर्फ्यू लगाने की नौबत आई. क्यों सरकार और आम लोग आमने-सामने हैं? एक-एक करके समझते हैं… 

आंदोलनकारियों पर बोलते हुए रजाकार शब्द ही क्यों बोलीं शेख हसीना?

असल में बांग्लादेश में एक धारा आज भी है, जो यह मानती है कि बांग्लादेश ने पाकिस्तान से अलग होकर ठीक नहीं किया. इस विचार के आधार पर देश में राजनीति भी होती है. अब, जब शेख हसीना ने आरक्षण के विरोधियों के बारे में बोलते हुए रजाकार शब्द का इस्तेमाल किया है तो इस प्रमुख मसले पर राजनीति भी शुरू हो गई है. इस धारा को मानने वाले भी भड़क गए है. अब लड़ाई महज नौकरियों में आरक्षण के बजाए राजनीतिक भी हो गई है.

क्या है बांग्लादेश में आरक्षण का इतिहास, क्या है 30% आरक्षण विवाद

16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बना. विदेशी मामलों के जानकार प्रो सतीश कुमार बताते हैं कि स्वतंत्र राष्ट्र के लिए जिन लोगों ने लड़ाई लड़ी उन्हें और उनके बच्चों को 1972 में सरकारी नौकरियों में 30% आरक्षण देने की घोषणा की गई. बाद में वहां महिलाओं के लिए 10%, पिछड़े इलाकों के लोगों के लिए 10%, इंडिजिनस को 5% और विकलांगों के लिए 1% सीट आरक्षित कर दी गई. इससे सरकारी नौकरियों की कुल 56% सीट आरक्षित हो गईं.

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आर्थिक उदारीकरण ने और घटा दीं बांग्लादेश में सरकारी नौकरियां

प्रो सतीश कुमार ने बताया कि बांग्लादेश की सरकार ने जबसे आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाई है वहां सरकारी नौकरियां बहुत सीमित हो गई हैं. इसकी वजह है प्राइवेटाइजेशन. प्राइवेटाइजेशन की वजह से सरकारी नौकरियों में रिक्तियां काफी कम हो गई है, जिससे वहां के युवाओं में गुस्सा है. उन्हें नौकरी चाहिए, लेकिन प्राइवेटाइजेशन और आरक्षण की वजह से उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है. 2018 में भी बांग्लादेश में आरक्षण के खिलाफ आंदोलन हुआ था, उस वक्त शेख हसीना ने आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर दिया था, लेकिन 2021 में कुछ लोग आरक्षण फिर से लागू करवाने के लिए कोर्ट पहुंचे और तीन साल की सुनवाई के बाद एक जुलाई 2024 को हाईकोर्ट ने आरक्षण को फिर से बहाल कर दिया. इस फैसले के बाद से वहां छात्र सड़कों पर उतरे हैं. हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ 16 जुलाई को अटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसपर रविवार 21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अपना बड़ा फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए बांग्लादेश में सिर्फ सात प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की है, जिसमें पांच प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानियों के लिए और दो प्रतिशत अन्य श्रेणियों के लिए आरक्षित होंगे.

सबसे बड़ा विवाद स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के 30% आरक्षण पर

बांग्लादेश में जो 56% आरक्षण है उसमें से सिर्फ 30% पर ही युवाओं को एतराज है, 26% आरक्षण को वे स्वीकार कर रहे हैं. युवाओं का कहना है कि स्वतंत्रता सेनानी या तो अब रहे नहीं या बहुत बूढ़े हो चुके हैं. उनकी दूसरी पीढ़ी के बाद अब तीसरी पीढ़ी भी आरक्षण का लाभ उठा रही है. आखिर यह कबतक जारी रहेगा?

बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन के पीछे राजनीतिक वजह भी है. चूंकि शेख हसीना खुद स्वतंत्रता सेनानी परिवार से आती हैं. उनके पिता और पहले प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रमान थे. तख्ता पलट में उनके पिता और 3 भाइयों की हत्या हुई थी, इसलिए वो स्वतंत्रता सेनानियों से साॅफ्ट कार्नर रखती हैं, वहीं विपक्षी खालिदा जिया का स्वतंत्रता सेनानियों से कोई मोह नहीं है. इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि विपक्ष भले ही सामने नहीं आ रहा पर वह आंदोलनकारियों के साथ है.

आज कैसा है बांग्लादेश का समाज

बांग्लादेशी समाज एकदम वैसा ही मुसलमान समाज है, जैसा की भारत का. कहने का मतलब है कि वहां भी मुसलमानों में जाति होती है, जबकि अन्य देशों में मुसलमानों में जाति नहीं होती. यह बताना इसलिए जरूरी है कि आरक्षण का एक हिस्सा जाति आधारित भी है. हालांकि इस वाले हिस्से पर अधिक विवाद नहीं है. बांग्लादेश में करीबन 26% आरक्षण महिलाओं और जाति विशेष पर है. इस पर अधिक विवाद नहीं है.

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बांग्लादेश की हिंसा का भारत का क्या होगा असर

भारत और बांग्लादेश के बीच मधुर संबंध है. भारत ने हमेशा बांग्लादेश की मदद की है. जब पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर अत्याचार किया था, तब भी हजारों लोग यहां शरणार्थी के रूप में आ गए थे, जिन्हें भारत ने शरण दी थी. बांग्लादेश में अगर यही स्थिति रही और हिंसा और बढ़ी तो सुरक्षित स्थानों की तलाश में वहां से शरणार्थी हमारे देश के पूर्वी राज्यों में आएंगे, जिससे समस्याएं बढ़ेंगी. भारत पर आर्थिक बोझ भी बढ़ेगा. चकमा और रोहिंग्या मुसलमान इसके उदाहरण हैं. इस वजह से भारत की सुरक्षा पर भी खतरा उत्पन्न होता है. इसलिए जरूरी यह है कि भारत अपने स्तर से यह कोशिश करे कि बांग्लादेश में शांति कायम रहे.

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