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अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी का जोखिम

वैश्विक वित्तीय बाजार में चल रही मौजूदा तेज हलचल अचानक उभरे उस भय को दिखाती है कि अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने लंबे समय तक मुख्य ब्याज दर को उच्च स्तर पर बनाये रखा है

US economy: वैश्विक वित्तीय बाजार में चल रही मौजूदा तेज हलचल अचानक उभरे उस भय को दिखाती है कि अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने लंबे समय तक मुख्य ब्याज दर को उच्च स्तर पर बनाये रखा है, जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी का जोखिम बढ़ सकता है. ताजा चेतावनी बीते शुक्रवार को जुलाई महीने में रोजगार की स्थिति के रूप में सामने आयी, जिसे श्रम विभाग ने जारी किया है. इसमें बताया गया है कि बेरोजगारी दर 4.1 प्रतिशत से बढ़कर 4.3 प्रतिशत हो गयी है.

हालांकि तुलनात्मक रूप से यह दर निम्न स्तर पर है, पर तीन साल में यह सबसे अधिक है. जुलाई के महीने में रोजगार के 1,14,000 नये अवसर पैदा हुए, जबकि विश्लेषकों को आशा थी कि 1,79,000 नये रोजगार पैदा होंगे. बीते जून में 1,79,000 रोजगार के मौके पैदा हुए थे. रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद बाजार में अफरातफरी मच गयी. इसकी एक वजह यह थी कि इससे कथित ‘साम रूल’ की स्थिति उत्पन्न हो गयी. बीते लगभग छह माह की अवधि में इस स्थिति में कमी आयी थी. ऐसी अपेक्षाओं के साथ कि फेडरल रिजर्व अमेरिकी अर्थव्यवस्था में कठिनाइयों को कमतर करने के प्रयास कर सकता है, अनिश्चितता फिर बढ़ने लगी है.


‘साम रूल’ संज्ञा फेडरल रिजर्व के एक पूर्व अर्थशास्त्री क्लाउडिया साम के नाम पर आधारित है. इस नियम के तहत यह रेखांकित किया गया है कि 1970 के बाद से मंदी की स्थिति हमेशा तब पैदा हुई है, जब बेरोजगारी दर के तीन माह के औसत में पिछले साल के कम दर से आधा प्रतिशत की बढ़ोतरी हो जाती है. इस नियम के पीछे तर्क यह है कि बेरोजगारी सतत बनी रह सकती है. लोगों के हाथ से रोजगार जाता है, तो वे अपने खर्च में कटौती करने लगते हैं. कम खर्च की वजह से दूसरी कंपनियों पर असर पड़ता है क्योंकि उत्पादों की अपेक्षित बिक्री नहीं होती है. ऐसा होने पर वे नये रोजगार मुहैया नहीं करा पातीं. अनेक मामलों में कंपनियों को छंटनी भी करनी पड़ती है ताकि उनके घाटे या मुनाफे में कमी की भरपाई हो सके.


लेकिन मौजूदा स्थिति में यह जरूरी नहीं है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी का सामना करना पड़ेगा. अर्थशास्त्री क्लाउडिया साम ने भी इस पर संदेह जताया है कि अर्थव्यवस्था मंदी के कगार पर है. इस नियम को तब लागू किया जाता है, जब कंपनियां रोजगार में कटौती करना शुरू कर देती हैं, जिससे बेरोजगारी दर में बढ़ोतरी होती है. वर्तमान समय में ऐसा लगता है कि बेरोजगारी इसलिए नहीं बढ़ रही है कि कंपनियां रोजगार के मौके घटा रही हैं, बल्कि बेरोजगारी दर में बढ़ोतरी की वजह अधिक संख्या में लोगों का रोजगार बाजार में आना है.

इनमें से सभी को तुरंत रोजगार नहीं मिल पा रहा है. कुछ विशेषज्ञों का अभी भी मानना है कि ‘सॉफ्ट लैंडिंग’ हो सकती है यानी कुछ मंदी आ सकती है. इस स्थिति में मुद्रास्फीति में कमी आती है, पर व्यापक आर्थिक परिदृश्य में गिरावट नहीं आती. लेकिन अधिक परेशानी की आशंकाएं भी बढ़ी हैं. अन्य अनुमान भी ऐसे ही हैं. गोल्डमैन सैस के अर्थशास्त्रियों ने बीते सप्ताहांत में कहा था कि अगले साल तक मंदी आने के आसार 25 प्रतिशत हैं. ताजा आंकड़ों के जारी होने से पहले यह अनुमान 15 प्रतिशत ही था. ऐसी भविष्यवाणियां पहले लगातार गलत साबित हुई हैं, इसलिए उनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण वे कारक हैं, जिनके आधार पर ऐसे अनुमान लगाये जा रहे हैं.


अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पास अब वह शक्ति नहीं बची है, जिसकी सहायता से वह हाल के उतार-चढ़ाव से उबरती रही है. परिवारों के पास वह नकदी नहीं बची है, जो कोरोना महामारी के दौरान जमा हुई थी, और वैसी कृत्रिम मांग की स्थिति भी नहीं है, जहां नकदी खर्च की जा सके. कारोबारों के पास पहले से खाली पड़े रोजगार नहीं हैं और न ही वे अधिक उत्पादन की स्थिति में हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मंदी अवश्यंभावी ही है यानी अर्थव्यवस्था में वास्तविक कमी आने के आसार नहीं हैं. लेकिन इससे यह जरूर इंगित होता है कि हालिया वर्षों की तुलना में आर्थिक स्थिति एक नाजुक मोड़ पर है. अधिकतर मानकों के हिसाब से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो रही है, पर ठिठक नहीं रही है.

उपभोक्ता व्यय, व्यक्तिगत आय और नौकरियों में वृद्धि ठोस रूप से सकारात्मक है. इन्हीं पैमानों पर नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च मंदी के प्रारंभ एवं अंत का निर्धारण करता है. मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) में वृद्धि दूसरी तिमाही में पहले से अधिक रही है और तीसरी तिमाही में भी इसके बढ़ने की उम्मीद है. उत्पादन में वृद्धि और सेवा क्षेत्र में बढ़त के रुझान हैं. साथ ही, मुद्रास्फीति में उत्साहजनक सुधार आया है. यदि अर्थव्यवस्था में और कमजोरी आती है, तो इससे ब्याज दरों में कटौती के लिए आधार मिलेगा. तब यह चिंता नहीं रहेगी कि दाम फिर से बढ़ने लगेंगे.


पिछले सप्ताह फेडरल रिजर्व के प्रमुख जेरोम पॉवेल ने संकेत दिया था कि सितंबर में होने वाली बैठक में दरों में कटौती की जा सकती है. उन्होंने रोजगार आंकड़े आने या स्टॉक मार्केट में गिरावट से पहले ऐसा इंगित किया था. निवेशकों का मानना है कि यह कटौती निश्चित है. कुछ निवेशक तो उससे पहले ही दरों में कमी की उम्मीद कर रहे हैं, पर ऐसा होना संभव नहीं लगता. नीति-निर्धारकों के समक्ष चुनौती यह है कि दो साल तक अर्थव्यवस्था की गति धीमी करने की कोशिश के बाद अब वे उसे एक स्तर तक लाने का महीन प्रयास कर रहे हैं.

ऐसा करने में वे अपूर्ण और कभी कभी विरोधाभासी आंकड़ों का सहारा ले रहे हैं तथा ऐसे उपाय अपना रहे हैं, जो ऐसे समायोजन के लिए उचित नहीं हैं. यूरोपीय संघ और चीन की अर्थव्यवस्थाओं की गति भी शिथिल पड़ रही है. जर्मनी तो लंबे समय से ढलान पर है, जिसकी एक वजह चीन के उपभोक्ता बाजार में घटती मांग है. दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों की मुख्य उलझन अब यह है कि कब नीतिगत दरों में कटौती की जाए तथा नीतिगत कठोरता लंबे समय तक बनाये रखने और अर्थव्यवस्थाओं को मंदी के कगार पर जाने से बचा जाए. फेडरल रिजर्व के लिए समस्या कुछ अधिक गंभीर है क्योंकि उसे मुद्रास्फीति का प्रबंधन भी करना है और रोजगार के लिए स्थितियां बनानी हैं. बाकी केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति पर नजर रखे हुए हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनौतीपूर्ण दौर में आगामी महीनों में अमेरिका के नीति-निर्धारक क्या करते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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