Independence Day 2024 : 15 अगस्त को भारत अपनी स्वतंत्रता के 78वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. स्वतंत्रता दिवस मौका है आजादी के महत्व को समझने का और उन बलिदानों और योगदानों को याद करने का जो आजादी की लड़ाई में लिए किए गए. 1857 के युद्ध को भारत की आजादी का पहला आंदोलन माना जाता है. हालांकि इससे पहले भी देश आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया और उसमें अहम योगदान दिया. संताल हूल जो 1855 में हुआ था, वह आदिवासियों की ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ाई थी.
1857 के आजादी के आंदोलन में भी झारखंड के आदिवासियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और अंग्रजों को कड़ी टक्कर दी थी. 1857 का विद्रोह ईस्ट कंपनी के खिलाफ भारतीयों की विरोध की पराकाष्ठा था. इस आंदोलन में विभिन्न वर्गों, शासकों, जमींदारों के साथ-साथ आदिवासियों ने भी अहम भूमिका निभाई थी और भारत से कंपनी शासन को उखाड़ फेंकने का भरसक प्रयास किया था. जो प्रामणिक दस्तावेजों मौजूद हैं, उसके अनुसार 1857 के विद्रोह में देश के अन्य राज्यों के आदिवासियों की तुलान में झारखंड के आदिवासियों का योगदान अधिक संगिठत और आक्रामक था.
झारखंड के संताल परगना में 12 जून 1857 को हुआ था बड़ा आंदोलन
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जो विद्रोह शुरू हुआ उसकी शुरुआत झारखंड के संताल परगना के देवघर जिले से हुई थी. देवघर के रोहिणी गांव में 12 जून 1857 को बड़ा आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन के नायक थे सैनिक अमानत अली, सलामत अली और शेख हारो (पांचवी इरेगुलर कैवेलरी के सैनिक). लेकिन इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मेजर मैकडोनाल्ड ने 16 जून, 1857 को इन नायकों को फांसी दे दी. लेकिन इन नायकों का विद्रोह बेकारी नहीं गया, इनके द्वारा शुरू किया गया आंदोलन झारखंड के अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैल गया. यह आंदोलन देवघर, रांची, हजारीबाग, चतरा, चुटूपालु में फैल गया. रांची के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, रामगढ़ बटालियन के जमादार माधो सिंह, डोरंडा बटालियन के जयमंगल पांडेय, विश्रामपुर के चेरो सरदार भवानी राय, टिकैत उमराव सिंह, पलामू के नीलांबर और पीतांबर, शेख भीखारी, नखलौट मांझी, ब्रजभूषण सिंह आदि क्रांतिकारियों की अगुवाई में झारखंड के आदिवासियों ने अहम योगदान दिया.
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को किया लामबंद
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव जो नागवंश राजा थे. उन्होंने बड़कागढ़ में अपनी जनता और आसपास के जमींदारों को अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद किया था और 1857 में उनके खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया. अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और रांची में ही उन्हें फांसी दी गई. सरकारी पत्राचार से पता चलता है कि संताल परगना में संताल और चोआर आदिवासियों की गतिविधियों से कंपनी शासन के सैनिक और असैनिक अधिकारी बेहद आतंकित थे और उनके द्वारा किये जाने वाले प्रतिवाद की आशंका से भयभीत रहते थे. इसलिए इससे निबटने के लिए उन्होंने आवश्यक तैयारियां करने का निर्देश जारी किया. छोटानागुपर में अन्य समुदायों के साथ हजारीबाग के संताल, सिंहभूम के कोल, पलामू के बिरीजया, खरवार, चेरो, भोगता, भुइयां आदि जनजातियों ने 1857 के समर में विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया. यह झारखंड के आधुनिक इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है. गोनो पिंगुआ, डबरू मांनकी, खरी तांती, टिबरू संताल, रूपा मांझी, रामबनी मांझी, अजुर्न मांझी, कोका कमार आदि आदिवासियों के अन्य प्रमुख नायक थे. इन आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने परंपरागत हथियारों से युद्ध किया था और उन्हें परेशान कर दिया था.
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