Unsung Heroes: देश की आजादी के लिए प्राणों की परवाह किए बिना ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने वालों में बांका जिले के कई सपूतों के नाम गौरवबोध के साथ लिये जाते हैं. एक ओर जहां यह बांका शहीद सतीश की पटना सचिवालय में बलिदानी को लेकर चर्चित रहा, वहीं यह भूमि हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने वाले महेंद्र गोप के बलिदान पर गर्व करता है. यह गर्व का विषय है कि लक्ष्मीपुर के जमींदार जगन्नाथ देव द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जलाये गये विद्रोह की मशाल को परशुराम सिंह और भुवनेश्वर मिश्र ने भी जलाये रखा.
नामी कुश्तिबाज थे भुवनेश्वर मिश्र
अपने जमाने के नामी कुश्तिबाज रहे भुवनेश्वर मिश्र ने जयपुर डाकबंगला तथा जमदाहा कचहरी को जलवाया था और कईयों के नाक-कान कटवाये. उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़वाने वाले को 75 हजार का ईनाम देने का एलान किया गया था. 22 फरवरी, 1945 को भागलपुर के जज रामास्वामी ने महेंद्र गोप को फांसी तथा भुवनेश्वर मिश्र, ध्रुवराज शाही और केसर महतो को आजीवन कारावास की सजा सुनायी थी. यह खबर दैनिक ‘आर्यावर्त’ में 24 फरवरी, 1945 को छपी थी. महेंद्र गोप को फांसी दे दी गयी. बाकी तीन को जेल भेज दिया गया. उन्हें जेल से मुक्ति तब मिली, जब देश आजाद हुआ.
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कहां हुआ इनका जन्म
बौंसी से चांदन डैम जाने वाले मुख्यमार्ग से थोड़ा हट कर है एक गांव फागा. इसी गांव के एक मैथिल ब्राह्मण परिवार में भुवनेश्वर मिश्र का जन्म हुआ. उन्होंने इसी गांव में पूरी जिंदगी बितायी. इस लेखक के उनसे मुलाकात की थी और उनके संघर्षों की कहानी उनसे सुनी थी. आजादी के पूर्व दिनों को याद करते हुए बताया था कि स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदने से पूर्व अपने गांव से कुछ दूर जमदाहा सिपाही चौकी पर कुश्ती लड़ने जाते थे. वहां लक्ष्मीपुर रियासत के सिपाहियों ने इनका शरीर सौष्ठव देख कर एक बार मजाक में कहा था कि यदि आप कांग्रेसी बन कर आयेंगे, तो हमलोग फांड़ी छोड़ कर चले जायेंगे. तब वह रोज 20 सेर दूध पीते थे.
परशुराम सिंह के नेतृत्व में थे
इस इलाक़े के परशुराम सिंह एवं अन्य स्वाधीनता सेनानियों से इनकी मुलाकात हुई. तब तक क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू हो गयी थीं. परशुराम सिंह के नेतृत्व में सभी गोलबंद थे. यह समूह ‘परशुराम दल’ कहा जाता था. परशुराम दल की गतिविधियों का कार्यक्षेत्र भागलपुर से झरिया तक था. इन्हीं दिनों जमदाहा कचहरी में सरकार द्वारा छह कबुलियन सैनिकों को भेजा गया.
गोरी सरकार के छूटने लगे पसीने
इन सैनिकों ने बौंसी के जबड़ा गांव में जलाभिषेक करने जा रहे कुछ शिवभक्तों को मारा. इसी दिन भुवनेश्वर मिश्र के नेतृत्व में परशुरामी दल ने जमदाहा पहुंच कोहराम मचा दिया. सिपाहियों की बंदूकें छीन लीं. सैनिकों को नंगा कर भगा दिया. फांड़ी को तहस-नहस कर दिया. बकौल मिश्र, तब भारत छोड़ो आंदोलन का प्रभाव इस क्षेत्र में परवान पर था. सन 1942 में भुवनेश्वर मिश्र के नेतृत्व में दुर्गा मांझी ने बिज्जर में मशाल बांध कर जयपुर डाकबंगला फूंक दिया. इस खबर ने भी गोरी सरकार की भवें तिरछी कर दीं. ये फरार रहे.
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परशुराम सिंह की गिरफ्तारी हुए थे हताश
इस घटना के कुछ सप्ताह बाद ही मई, 1943 में परशुराम सिंह गिरफ्तार कर लिये गये. इस घटना के बाद महेंद्र गोप ने मोर्चा संभालकर और उग्र होने का संदेश दिया. इन्हीं दिनों गराई दियारा में हुई कांग्रेस की मीटिंग में महेंद्र गोप और श्रीधर सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया जिसका फरमान दिल्ली से आया था. इन कार्रवाई ने परशुराम दल को हताश कर दिया था फलतः महेंद्र गोप और श्री मिश्र का जोश कम पड़ गया.
ऐसे हुए भुवनेश्वर मिश्र गिरफ्तार
कुछ दिनों बाद ही एक भेदिया के गुप्त संदेश पर भुवनेश्वर मिश्र गिरफ्तार कर लिए गये. इनसे पहले महेंद्र गोप को गिरफ्तार कर लिया गया था. इनपर मुकदमा चला और सुनवाई के बाद इनको अन्य तीन सहयोगियों के साथ आजीवन कारावास की सजा महेंद्र गोप को फांसी की सजा सुना दी. इस वक्त ये पांचों भी भागलपुर के केंद्रीय कारावास में बंद थे. महेंद्र गोप की फांसी के बाद ये चार ही रह गये थे.
मिश्र का वजन 261 पाउंड
दस्तावेजों में दर्ज है कि जब ये अंग्रेजों के हाथ लगे थे, तब मिश्र का वजन 261 पाउंड था. लगभग साढ़े पांच वर्ष तक जेल में गुजारने के बाद आजादी का सूरज नयी लालिमा लिये उगा और स्वतंत्र भारतीय सरकार द्वारा सभी बंदी जेलों से रिहा कर दिये गये. इसी क्रम में श्री मिश्र भी बंद चाहरदीवारी से आजाद हो गये. बावजूद इसके, उन्हें गहरा दुख था कि दुख-सुख में साथ निभानेवाले उनके परम मित्र महेंद्र इस सुबह को नहीं देख पाये.
119 वर्ष की उम्र में हुआ उनका निधन
परशुराम दल के कमांडर श्री मिश्र का निधन 119 वर्ष की उम्र में वर्ष 2001 में फागा में हुआ. इस लेखक ने देखा है कि वे ऐसे व्यक्ति थे, जिनके पांव छू कर कई बड़े नेता गये. बिहार के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह ऐसे व्यक्ति थे, जो अपने क्षेत्र भ्रमण के दौरे पर जब भी आते, वक्त निकाल कर उनके घर पर पहुंच कर उनके पांव छू कर जाते थे. यह श्रद्धा और सम्मान था उनका कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी चंद्रशेखर सिंह उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाये थे.
- लेखक क्षेत्रीय इतिहासकार हैं.