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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का आकर्षण और मधुर यादें

Shri Krishna Janmashtami: कृष्ण का जीवन विपत्तियों से भरा हुआ भी है, जहां अपने ही सगे मामा के डर से उन्हें जन्म लेते ही माता-पिता से अलग होना पड़ता है. जन्म भी कहां हुआ- कारागार में. फिर महाभारत का युद्ध.

Shri Krishna Janmashtami : श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उस इलाके का त्योहार है, जिसे ब्रज प्रदेश कहा जाता है. ब्रज में कृष्ण पले-बढ़े, गोपियों के साथ रास रचाया, कालिया नाग का वध किया, उससे पहले जन्म के बाद मामा कंस के डर से मथुरा से गोकुल पहुंचा दिये गये, फिर गोकुल से मथुरा गये. श्रीकृष्ण भारतीय मानस में एक ऐसे देवता हैं, जो सिर्फ अपनी पूजा ही नहीं करवाते, जीवन के राग-रंग को भी भरपूर जीते हैं. सूरदास, रसखान जैसे महाकवियों की रचनाओं से इसे समझा जा सकता है.

कृष्ण का जीवन विपत्तियों से भरा हुआ भी है, जहां अपने ही सगे मामा के डर से उन्हें जन्म लेते ही माता-पिता से अलग होना पड़ता है. जन्म भी कहां हुआ- कारागार में. फिर महाभारत का युद्ध. ऐसी कई घटनाएं उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करती हैं, फिर भी वे प्रणय के देवता हैं. ब्रज प्रदेश में कृष्ण जन्माष्टमी एक अनोखा पर्व है. वृंदावन या मथुरा में पग-पग पर बजते संगीत की मधुर धुनें इसे और आकर्षक बनाती हैं. एक समय में जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा रेडियो पर लाइव प्रसारण होता था. तब टीवी के इतने चैनल नहीं थे, इसीलिए लोग इस प्रसारण को खूब सुनते थे.


कृष्ण का जन्मदिन हो, उनकी बाल लीलाओं का वर्णन हो, माखन चोरी की दृश्यावली हो और अपना बचपन याद न आए, ऐसा हो नहीं सकता. सबसे ज्यादा ध्यान झांकियों का आता है. सब बच्चे अपने-अपने घरों में झांकियां सजाते थे. इसकी तैयारी हफ्तों पहले शुरू हो जाती थी. जिसके पास जो खिलौना होता था, जैसे फुटबॉल, गुजरिया, शेर, घोड़ा, गुड़िया, रेलगाड़ी, कारें, साइकिलें, काठ की बैलगाड़ी, बांसुरी, प्लास्टिक या मिट्टी के तोते, कबूतर, मोर, कठपुतलियां, सिलाई मशीन, लट्टू, सिपाही, सब झांकियों में सजाये जाते थे. कृष्ण जी और गुजरियाएं लाकर उनका मंदिर सा बनाया जाता था. दरवाजों पर और झांकियों के इर्द-गिर्द जिसे जो फूल मिल गया, उसकी सजावट की जाती थी. घर में बना गोले और खरबूजे के बीजों का पाग, पंजीरी, चरणामृत बारह बजे, जब कृष्ण जी का जन्म होता था, उन पर चढ़ाये जाते थे. इसी का प्रसाद बंटता था.


शाम से ही बच्चों में यह बेचैनी शुरू हो जाती थी कि मोहल्ले के लोग उनकी झांकियां देखने आ रहे हैं कि नहीं. बहुत से बच्चे अपने रिश्तों के चाचा, ताऊ, बुआ, दादी, चाची, ताई आदि को बुला कर लाते थे और उनसे तारीफ सुनना चाहते थे. वे एक-दूसरे की झांकी भी देखने जाते थे. फिर अनुमान लगाया जाता था कि किसकी झांकी सबसे अच्छी सजी थी. इन झांकियों में बच्चे अपनी कल्पना से तरह-तरह की घटनाओं का चित्रण भी करते थे. कहीं गुजरिया कुएं से पानी भर रही हैं, तो किसी ने उसकी मटकी फोड़ दी या किसी बैलगाड़ी में औरतें और बच्चे बैठ कर जा रहे हैं, कोई मोर नाच रहा है, तो कोई तोता मिट्ठू पटे बोल रहा है. कृष्ण के जन्म से सम्बंधित मनोहर दृश्यावलियां भी होती थीं. सभी झांकियों में एक दृश्य समान होता था, वह था झूले में पालने में लेटे शिशु कृष्ण.


कृष्ण जन्माष्टमी बच्चों की रचनात्मकता और कहानी कला, चित्रकला को बढ़ाने का एक साधन भी थी. इनका भरपूर इस्तेमाल वे झांकियां सजाने में करते थे. झांकियां उन्हें एक तरह की मार्केटिंग विद्या भी सिखाती थीं कि कैसे अड़ोसी-पड़ोसी के सामने अपनी झांकी को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करें. इसमें प्राय: परिवार के लोगों का समर्थन भी उन्हें मिलता था. बड़े भाई-बहन या माता-पिता अथवा वे दोस्त, सहेलियां, जो अपने घर में किसी वजह से झांकियां नहीं सजा रहे हैं, उनकी भी मदद मिलती थी. बच्चों को इस काम में कई-कई दिन लगते थे. कई बार तो अड़ोस-पड़ोस के बच्चे वहीं सो जाते थे, जिस बच्चे के घर में झांकी सजाने आये. तब पड़ोस में आज की तरह का अविश्वास का भाव नहीं था कि अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई संकट महसूस करें. इसके अलावा जिस घर में बच्चे देर रात तक हैं और सो गये हैं, उनके खान-पान आदि का ध्यान उस घर के बड़े रखते थे, जहां बच्चे होते थे.


याद आता है कि फर्रुर्खाबाद रेलवे स्टेशन के पास के थाने में बहुत सुंदर झांकियां सजायी जाती थीं. थाने का परिसर खूब बड़ा था, इसलिए झांकियां सजाने, उनके लिए तरह-तरह के सामान, कपड़ों आदि को इकट्ठा करने में कई-कई दिन लगते थे. इसलिए स्टेशन पर रहने वाले बच्चे छुट्टी के दिन सवेरे से जाकर और स्कूल जाने के दिन लौटकर शाम तक वहां झांकी सजाने में पुलिस वालों की मदद करते थे. पुलिस वाले भी इन बच्चों का बहुत ध्यान रखते थे. उन्हें खिलाते-पिलाते थे. रात हो जाने पर बच्चों को घर तक छोड़कर भी जाते थे. थाने में सजायी इन झांकियों की ख्याति इतनी अधिक थी कि लगभग पूरा शहर इन्हें देखने उमड़ पड़ता था और लंबी लाइनें लग जाती थीं. इनमें स्त्री-पुरुष दोनों होते थे. आज वक्त बदल गया है. न वे दिन रहे, न वे बच्चे, न बड़े. कम से कम महानगरों में किसी को इतना समय नहीं कि झांकी सजाये. जो देखो, वो टीवी पर देख लो. लेकिन मथुरा-वृंदावन में अब भी मंदिर खूब सजते हैं. लोग इन्हें देखने और दर्शन करने आते हैं. वहां का मधुर संगीत हफ्तों कानों में बजता रहता है.

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