17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

महर्षि अरविंद: क्रांति से अध्यात्म की ओर

गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर ने महर्षि अरविंद के बारे में कहा था- ‘आपके पास शब्द हैं और हम इसे आपसे पाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं. भारत आपके स्वर के माध्यम से विश्व से संवाद करेगा.’ उग्र राजनीतिक सोच के शुरुआती पैरोकार अरविंद ब्रिटिश शासन की समाप्ति चाहते थे. पर एक महत्वपूर्ण दार्शनिक के रूप में उनकी विरासत, जिसने भारत को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में गढ़ने में योगदान दिया, अमूल्य है.

Maharishi Arvind: आज जब भारत इतिहास के अहम मोड़ पर खड़ा है, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक धरोहर से संबंधित राजनीतिक सक्रियता पर आधारित मजबूत भारत के लिए अरविंद के विचार विशिष्ट प्रारूप उपलब्ध कराते हैं. वे क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रणी नेता बन गये थे और अग्रेजी अखबार ‘बंदे मातरम’ में निर्भीक लेख लिखा करते थे. उन्होंने ‘धर्म’ नामक एक साप्ताहिक पत्र भी शुरू किया था. अपने लेखों में वे स्वराज या स्वतंत्रता का संदेश प्रसारित करने का प्रयास करते थे. वे ब्रिटिश शासन के अत्याचारों का विरोध करने वाले संगठन अनुशीलन समिति के संस्थापकों में थे. इसी संस्था की गतिविधियों से जुड़े मामले में उन्हें जेल जाना पड़ा था.

अरविंद भारत में जन्मे थे, पर उनकी शिक्षा इंग्लैंड में हुई थी, जहां आयरलैंड और इटली के राष्ट्रवादियों से प्रेरित उनके राजनीतिक विचार विकसित हुए. भारत की स्वतंत्रता में रुचि उन्हें 1893 में भारत ले आयी. बड़ौदा में सरकारी नौकरी करते हुए उन्होंने भारतीय इतिहास, दर्शन और बांग्ला साहित्य का गहन अध्ययन किया. स्वराज और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार के उनके विचार स्वतंत्रता संघर्ष के मूल सिद्धांत बने. राजनीतिक सक्रियता और दार्शनिक तर्क का उनका समन्वय स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण का बौद्धिक आधार बना. वर्ष 1905 के बंगाल विभाजन के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पुद्दुचेरी चले गये, जहां उन्होंने अपने महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दिया.

अरविंद घोष केवल एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, वे मनुष्य से जुड़ीं विभिन्न समस्याओं, ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उच्च मानवीय मूल्यों के विकास को लेकर कहीं अधिक चिंतित थे. अपने दार्शनिक अभियान में उन्होंने प्रमुख यूरोपीय दार्शनिकों के साथ-साथ भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं का भी संज्ञान लिया. पाश्चात्य भौतिकवाद और भारतीय दर्शन की आदर्शवादी परंपराओं के विचारों का समन्वय कर एक विशिष्ट विश्व-दृष्टि प्रदान की. अरविंद ने भारतीय बौद्धिक इतिहास का गहन चिंतन किया था, जिसके कारण वे ऐसा दर्शन गढ़ सके, जिसमें भौतिक दुनिया और पराभौतिक जगत परस्पर संबद्ध हैं. उनका चिंतन ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके वर्तमान स्वरूप से संबंधित बुनियादी प्रश्नों पर केंद्रित था. उन्होंने बताया कि यह संसार ऐसे तत्वों से निर्मित है, जिनका विकास विभिन्न स्तरों पर हुआ है तथा इस प्रक्रिया की यात्रा साधारण पादप रूपों से होकर जंतुओं तक तथा फिर मानव मस्तिष्क तक होती है. अंतत: यह उस रूप में पहुंचती है, जिसे महर्षि अरविंद ने ‘अति मानस’ की संज्ञा दी.
अरविंद का मानना था कि तत्व, मूल रूप में, आत्मा है, जो विकसित होकर अपने को उद्घाटित करता है. आत्मा को उन्होंने सर्वोच्च और पूर्ण सत्य के रूप में चिह्नित किया. उनके अनुसार, मानस से अति मानस की यात्रा आध्यात्मिक रूपांतरण की एक प्रक्रिया है और योग इस प्रक्रिया को गति देने की मुख्य तकनीक है. उन्होंने ‘पूर्ण योग’ की अवधारणा दी, जिसमें योग के चार परंपरागत तकनीक समाहित हैं- कर्म, भक्ति, ज्ञान और राज. इस प्रक्रिया से व्यक्ति ‘अति मानस’ स्तर तक पहुंच सकता है, जो ‘आनंद’ की अवस्था होती है. इसे अरविंद ने आत्मज्ञान और मानवता की सेवा के लिए महत्वपूर्ण माना. उनके दर्शन ने जोर दिया कि ‘पदार्थ’ और ‘आत्मा’ अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि क्रमिक विकास की प्रक्रिया में परस्पर संबंधित हैं. इस दृष्टि ने उन्हें भौतिकवाद को आध्यात्म के साथ जोड़ने में मदद की. उन्होंने कहा कि मानवीय प्रयास अस्तित्व के आध्यात्मिक पहलू को पूर्ण करने की दिशा में होना चाहिए, जिससे अंतत: समूची मानवता लाभान्वित होती है. उनकी दृष्टि पूर्ण प्रगति की थी, जहां जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक आयाम मानव विकास और उच्च चेतना की तलाश में एकात्म हैं. आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की अवधारणा अरविंद की दृष्टि के केंद्र में थी.

बांग्ला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के विचारों पर आधारित इस दृष्टि को अरविंद ने विस्तार दिया. उनका कहना था कि राष्ट्र को केवल उसकी भूमि या जनसंख्या से नहीं समझा जा सकता है. वे भारत को मातृ देवी के रूप में देखते थे. उन्होंने स्वतंत्रता के लिए कार्य करने और देश को माता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए युवाओं का आह्वान किया. भारत की तत्कालीन स्थिति को देखते हुए अरविंद का मानना था कि मातृभूमि को स्वतंत्र कराना उसकी संतानों का सबसे बड़ा दायित्व है, भले ही इसके लिए कोई भी बलिदान करना पड़े.

अरविंद राष्ट्र को एक महती ‘शक्ति’ के रूप में देखते थे, एक ऐसी जीवंत उपस्थिति, जिसके करोड़ों अंग हैं. उन्होंने यह अवधारणा दी कि वैश्विक समुदाय का आध्यात्मिक नेता बनने के लिए भारत की स्वतंत्रता आवश्यक है. अरविंद मानते थे कि राष्ट्रवाद एक तरह की ‘धार्मिक साधना’ होनी चाहिए. उनका कहना था कि राष्ट्रवाद एक धर्म है, जिसके माध्यम से लोग अपने राष्ट्र और राष्ट्रवासियों में ईश्वर को देखने की कोशिश करते हैं. उनकी मान्यता थी कि हिंदू सनातन धर्म में एक सार्वभौमिक दर्शन- खुला, विविध और विभिन्न आचारों एवं दृष्टियों का समावेश- समाहित है. व्यक्तिगत स्व-चेतना के माध्यम से व्यक्ति राष्ट्रीय एवं आध्यात्मिक विकास की व्यापक प्रक्रिया में योगदान दे सकता है.

अरविंद की दृष्टि में, मानवता के लिए आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक बनने के नियति द्वारा निर्धारित भूमिका के निर्वाह के लिए भारत को आवश्यक रूप से स्वतंत्र होना होगा. इसलिए भारत के अमृत काल को एक राष्ट्रीय दृष्टि के रूप में देखने से परे एक व्यावहारिक प्रारूप की तरह देखना चाहिए, जिससे वह मनुष्यता का आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक बनने की भूमिका संभाल सके, जैसा अरविंद की दृष्टि थी. स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन में ये सभी तत्व थे. उसमें भले के लिए शांतिपूर्ण वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के उभार के आयाम भी शामिल थे. अरविंद के अनुसार, ऐसे विचार में दृष्टि और कार्य समन्वित हैं. इस प्रकार, भारत विचारकों से कहीं अधिक साधकों का राष्ट्र है. अमृत काल को साकार कर ही हम अरविंद को सच्चा सम्मान दे सकते हैं. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें