Caste in society and politics: समाजशास्त्रियों का मानना है कि भारत में जाति और राजनीति का आपसी गठजोड़ कम-से-कम 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से हुआ है. जाति की पहचान सत्ता के विचारों से निर्धारित होती है. यह पहचान ऐसी है कि इसे कभी बदला नहीं जा सकता है, जबकि जातिगत पहचानें ‘दी’ नहीं जाती हैं, बल्कि सामाजिक-सह-राजनीतिक रणनीतियों के अनुसार निर्मित एवं विकसित होती हैं. जातिगत पहचान ऐसी है कि यह जीवनभर आपका पीछा करती रहती है. यही कारण है कि जाति और राजनीति का महत्व दिन-ब-दिन बढ़ता गया क्योंकि जाति एक जटिल अस्तित्वगत निर्माण है. कई जाति-विरोधी आंदोलनों और संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद जाति भारतीय मानस में रोजमर्रा की जिंदगी के हिस्से के रूप में मौजूद है. वैश्वीकरण के आगमन के बाद भी जाति नये रूपों में सामाजिक और आर्थिक विषमता एवं बहिष्कार तथा हिंसा को बढ़ावा देती है. तथ्य बताते हैं कि किस प्रकार वंचित तबकों की पहचान व आवाज को राजनीति ने संसद में आकार देने का काम किया है तथा इनमें नये अर्थ भर दिये गये हैं, जो जातीयकरण की प्रक्रिया के अनुसार हुआ है.
यह सब चुनावी राजनीति तथा सकारात्मक भेदभाव के राजकीय कार्यक्रमों जैसी सार्वजनिक नीतियों के कारण हुआ है, जबकि संविधान विरोधी समुदायों को लगता है कि डॉ आंबेडकर ने तो संविधान में आरक्षण की नीति का प्रावधान केवल 10 वर्ष के लिए किया था, लेकिन जातिगत राजनीति के कारण इसे बढ़ावा दिया जा रहा है, पर इन समुदायों को यह ध्यान रखना होगा कि समाज में आज भी सामाजिक-आर्थिक विषमता मौजूद है. संविधान विरोधी समुदाय यह भी तर्क देते रहते हैं कि भारतीय राजनीति में जातिवाद बढ़ता जा रहा है. शायद ये समुदाय समझने में विफल प्रतीत होते हैं कि संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था की गयी है, तभी इन वर्गों के इतने सांसद और विधायक चुनकर आते हैं. यदि राजनीतिक आरक्षण नहीं होता, तो विधायिका में जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की संख्या दिखती है, शायद वह संख्या नहीं होती.
उत्तर भारत के अधिकतर बुद्धिजीवी, जो जातिगत ढांचे में फिट होते हैं, वे बिहार व उत्तर प्रदेश को जातिगत राजनीतिक वर्चस्व, दमनकारी जाति और सामाजिक संरचनाओं की कहानियों में डूबा हुआ राज्य मानते हैं, जबकि उन्हें याद रखना चाहिए कि इन राज्यों में 1990 के पहले राजनीति में एक खास वर्ग का वर्चस्व था. आंकड़े बताते हैं कि 1990 से पहले बिहार में 19 मुख्यमंत्रियों में से छह मुख्यमंत्री अनुसूचित जाति एवं पिछड़े वर्ग से थे तथा वे सभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये. उत्तर प्रदेश में 1990 के पहले 14 मुख्यमंत्री बने, जिनमें केवल दो मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग से थे. ये आंकड़े केवल मुख्यमंत्री तक भर तक सीमित नहीं हैं. यह वर्चस्व सांसद और विधायक तक में देखने को मिल जायेगा, जहां हमेशा वर्चस्वशाली जातियां ही चुनकर आती थीं, लेकिन खासतौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश में ये आंकड़े 1990 के बाद बदलने शुरू हो गये थे.
इस जातिगत राजनीतिक तस्वीर को सबसे पहले बदलने वाले भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर थे, जिन्होंने वंचित तबकों में राजनीतिक चेतना जागृत की थी. हालांकि इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और उनकी सरकार गिरा दी गयी. राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत राजनीतिक तस्वीर को बदलने का श्रेय वीपी सिंह को जाता है, जिन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया और राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक तस्वीर को उलट कर रख दिया. वीपी सिंह का भी वही हश्र हुआ, जो कर्पूरी ठाकुर का हुआ था. प्रसिद्ध राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी का मानना है कि भारत में जाति के राजनीतिकरण ने दलीय राजनीति के विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.
उन्होंने साबित किया है कि जाति का राजनीतिकरण एक दोहरी प्रक्रिया है. जाति को राजनीति की उतनी ही जरूरत है, जितनी राजनीति को जाति की. जब जाति समूह राजनीति को अपनी गतिविधियों का क्षेत्र बनाते हैं, तब जाति समूहों को अपनी पहचान स्थापित करने और स्थिति के लिए प्रयास करने का भी मौका मिलता है. जो वंचित समुदाय सदियों से सामाजिक-आर्थिक वंचना का शिकार था, उसके लिए राजनीति में आने के लिए केवल एक ही औजार था- ‘जाति’ का औजार. इसलिए कांशीराम की मान्यता थी कि जब तक पिछड़ों और दलितों को सत्ता नहीं मिलेगी, तब तक उनके लिए सामाजिक-आर्थिक अवसर उपलब्ध नहीं होंगे और यही कारण है कि उन्होंने राजनीति में जाति की कीमियागिरी बनायी और सरकार बनाने के साथ-साथ राजनीति में स्थापित वर्चस्ववाद को चुनौती भी पेश की. इस प्रकार राजनीति के माध्यम से जातिगत पहचानों ने अभिव्यक्ति के नये रूप ग्रहण किये, जिसने सामाजिक व्यवस्था की मूल नैतिकता को बदलने का काम किया है. वर्तमान में देखें, तो जाति आज भी राजनीतिक यथार्थ से ज्यादा सामाजिक यथार्थ है. यदि ऐसा न होता, तो जिस कांग्रेस पार्टी के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के खिलाफ सदन में लंबा भाषण दिया था, आज उसी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने अपने 2024 के चुनावी घोषणापत्र में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए सामूहिक आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा खत्म करने के लिए संविधान संशोधन करने तथा जातिगत जनगणना के साथ ‘जिसकी जितनी आबादी, उतना हक’ देने का वादा किया है. यह एक ऐसी स्थिति है, जिसका सभी प्रमुख दल समर्थन करते हैं, भले ही इसे अलग-अलग तरीके से व्यक्त किया गया हो, लेकिन इसे सामाजिक न्याय के उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.
अगर आज भी भारत की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में जाति का प्रश्न महत्वपूर्ण न होता, तो सभी दल हर बार संसद में जातिगत भेदभाव को लेकर बहस नहीं कर रहे होते. केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने 15 दिसंबर, 2022 को संसद को बताया था कि ‘विभिन्न मंत्रालयों/विभागों में संयुक्त सचिव और सचिव के पदों पर कार्यरत कुल 322 अधिकारियों में से मात्र 68 अधिकारी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग हैं, जबकि शेष सामान्य श्रेणी से हैं. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि आज भी जातिगत भेदभाव जारी है और यह भेदभाव तभी खत्म हो सकते हैं, जब वंचित तबकों का विधानसभाओं से लेकर संसद तक में प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और वे अपने लिए नीतियां बना पायेंगे.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)