14.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Battle of Saragarhi: संसारपुर गांव से सारागढ़ी तक..

यह वही जगह है, जहां ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के 21 बहादुर सिख सैनिकों का लालन-पालन और प्रशिक्षण हुआ था. जिन्होंने अफगान पश्तूनों के खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी थी. सालो बाद उस एक गांव, एक परिवार और एक गली ने भारत को 14 ओलंपियन कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी दिए, जो आज भी एक बेजोड़ ट्रैक रिकॉर्ड है.

Battle of Saragarhi: सारागढ़ी की लड़ाई(12 सितंबर 1897) ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण लड़ाई थी. इस लड़ाई में सिर्फ 21 सिखों ने 10 हजार कबायली पठानों को धूल चटा दी थी. उस लड़ाई की आज 127 वीं वर्षगांठ है. 12 सितंबर 1897 को कोहाट(जो पाकिस्तान में अब खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत है) के गैरिसन शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर सारागढ़ी में एक ब्रिटिश चौकी पर करीब 10 हजार ओरजकाई-अफरीदी कबीले के लोगों ने हमला कर दिया था. ये सभी पश्तून थे. यह किला लॉकहार्ट और गुलिस्तान के मुख्य किलों के बीच एक महत्वपूर्ण चौकी थी, जो सूचना पहुंचाने का काम करती थी. हमला भी इसलिए किया गया कि यहां से दूसरे किले के सारे रास्ते को काट दिया जाये. इस किले में तब 21 सैनिकों का नेतृत्व ईशर सिंह कर रहे थे.

सैनिकों को आत्मसमर्पण कर सुरक्षित रास्ते से जाने को कहा गया, लेकिन सैनिकों ने आत्मसमर्पण करने की बजाय अंतिम दम तक लड़ाई लड़ी. सैकड़ों पश्तूनों को मौत के घाट उतार दिया.. इतना ही नहीं सात घंटे की लड़ाई के बीच लॉकहार्ट और गुलिस्तान किलों को भी संदेश भेजने में सैेनिक सफल रहे. जानकारों का कहना है कि भारतीय इतिहास में  ऐसा न कभी हुआ है और ना ही आगे कभी होगा. सिर्फ 21 बहादुर सैनिक 10 हजार सैनिकों से युद्ध लड़े और उसे काफी क्षति पहुंचा दें. इस बलिदान के लिये “हर सारागढ़ी नायक को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया था, जो ब्रिटिश सेना में वीरता और बलिदान के लिए किसी भारतीय सैनिक को दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता पुरस्कार था. एक ही दिन में एक युद्ध के लिए 21 आईओएम पुरस्कार  (इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट)दिये जाने की घटना पहले कभी नहीं हुई थी और उसके बाद कभी नहीं हुई . सैनिकों ने रेजिमेंट को गौरवान्वित किया और ब्रिटिश संसद ने सारागढ़ी के बहादुरों की वीरता और बलिदान का सम्मान करने के लिए खड़े होकर तालियां बजाईं”. तब महारानी विक्टोरिया ने शहीदों की प्रशंसा करते हुये कहा, “यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिन सेनाओं के पास बहादुर सिख हैं, वे युद्ध में हार का सामना नहीं कर सकते. 21 बनाम 10000, आखिरी आदमी तक आखिरी समय  तक”.  

हॉकी की नर्सरी संसारपुर गांव 

सारागढी की लड़ाई की चर्चा जब भी होती है, तो उस गांव की चर्चा होना लाजिमी है, जिस गांव के सिख उस लड़ाई में हिस्सा लिये. उस गांव को ओलंपियन गांव कहा जाता है. ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता, हॉकी टीमों को कोचिंग देने के लिए अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित, सेना के अनुभवी हॉकी खिलाड़ी कर्नल (सेवानिवृत्त) बलबीर सिंह(79 वर्ष) ने अपनी नवीनतम पुस्तक, “एन ओलंपियन्स ट्रिस्ट विद सोल्जरिंग : फ्रॉम संसारपुर टू द सारागढ़ी बटालियन (ओलंपियन की सैनिकों के साथ मुलाकात : संसारपुर से सारागढ़ी बटालियन(4 सिख) तक.)” में सेना के समर्थन से भारतीय हॉकी के उदय का विवरण दिया है.

यह किताब हॉकी की नर्सरी संसारपुर गांव और सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन के बीच संबंध स्थापित करता है. लेखक को किताब लिखने की प्रेरणा उन्हें अपने गांव से मिली. उन्हें लगता था कि उनके गांव में कुछ खास है. ” यही वह जगह है, जहां ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के 21 बहादुरों का लालन-पालन और प्रशिक्षण हुआ था, जिन्होंने अफगान पश्तूनों के खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी थी. सालों बाद यह वह गांव था जिसने देश के लिये 14 ओलंपियन और कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी तैयार किये”.

संसारपुर गांव से सारागढ़ी बटालियन तक

Whatsapp Image 2024 09 12 At 18.06.22 1 1
Battle of saragarhi: संसारपुर गांव से सारागढ़ी तक.. 3

सारागढ़ी बटालियन का इतिहास संसारपुर की मिट्टी से जुड़ा हुआ है.“4 सिख को मूल रूप से 1887 में जालंधर कैंटोनमेंट में 36 सिख सारागढ़ी बटालियन के रूप में स्थापित किया गया था. इसके ठीक 10 साल बाद, 1897 में सारागढ़ी की लड़ाई लड़ी गई. अपने शुरुआती दौर में सारागढ़ी बटालियन के विकास का मार्ग संसारपुर गांव से होकर गुज़रा, जहां 1887 से 1894 तक युवा सैनिकों ने बटालियन जॉइन किया.

सेना के अनुभवी सैनिक ने लिखा है, “1897 में, हवलदार ईशर सिंह की कमान में सभी बाधाओं को पार करते हुए, 36 सिख के 21 बहादुरों ने अंतिम दम तक लड़ाई लड़ी. 21 सैनिक जाट सिख थे, लेकिन उनके उपनाम अलग थे. सारागढ़ी के रक्षकों ने सर्वोच्च बलिदान देने से पहले 450 ओरकज़ई और अफरीदी लश्कर दुश्मनों को मार गिराया. बटालियन को जंगी पलटन के रूप में जाना जाता है. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रक्षक बनाम हमलावर का मुकाबला अनुपात 1 से 500 था”. लेखक युद्ध के साथ ही गांव में खेल के लिये युवाओं के उत्साह का वर्णन करते हुये संसारपुर गांव के पहले ओलंपियन गुरमीत सिंह कुलार को उद्धृत करते हुए कहते हैं, “हम मौज-मस्ती के लिए खेलते थे और खेल का भरपूर आनंद लेते थे.

आज के नाजुक युवाओं के विपरीत, हम सख्त आदमी थे, शक्तिशाली युद्ध-कौशल वाले योद्धाओं के वंशज. हमें शारीरिक रूप से फिट कहना बहुत कम होगा, हम नहीं जानते थे कि थकान क्या होती है. खेतों में दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद, हम बेसब्री से अपनी मां के इशारे का इंतज़ार करते थे कि हम हॉकी खेलने के लिए मैदान पर जाएं , जब तक कि गेंद को ठीक से देखना मुश्किल न हो जाए.”

पहला ओलंपिक हॉकी स्वर्ण

Whatsapp Image 2024 09 12 At 18.06.22 2
Battle of saragarhi: संसारपुर गांव से सारागढ़ी तक.. 4


1928 में भारतीय हॉकी टीम ने पहले ओलंपिक खेलों में भाग लिया. सभी बाधाओं के बावजूद, जीत हासिल की और अपने पहले प्रदर्शन में ही प्रतिष्ठित स्वर्ण पदक जीता. इस ऐतिहासिक जीत ने वर्चस्व के एक असाधारण युग की शुरुआत की, जिसमें भारत ने 1928 से 1956 तक लगातार छह ओलंपिक स्वर्ण पदक हासिल किए. लेखक लिखते हैं, “भारतीय हॉकी के इतिहास में, मेरे सहित छह बलबीर सिंह हुए हैं, लेकिन केवल एक ‘सीनियर’ हुआ है. यह वह था जिसने टीम को ओलंपिक स्वर्ण पदकों की अभूतपूर्व दूसरी हैट्रिक की ओर अग्रसर किया, जो 1948, 1952 और 1956 में हासिल की गई एक विजयी उपलब्धि थी.” “संसारपुर, उस एक गांव, एक परिवार और एक गली ने भारत को 14 ओलंपियन दिए, जो आज भी एक बेजोड़ ट्रैक रिकॉर्ड है. गांव की कुल जनसंख्या लगभग 4,200, पुरुष 2,000, ओलंपियन 14, अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी 19, ओलंपिक स्वर्ण पदक 8.

मेक्सिको ओलंपिक में हार के बाद संसारपुर में शोक


एक दिलचस्प किस्सा साझा करते हुए, कर्नल (सेवानिवृत्त) बलबीर सिंह कहते हैं, मैक्सिको ओलंपिक में भारत के कांस्य पदक जीतने के बाद संसारपुर गांव में शोक की लहर दौड़ गई. 1968 के मैक्सिको ओलंपिक में, पुरुष हॉकी टीम 1928 के बाद पहली बार ओलंपिक फाइनल में पहुंचने में विफल रही. भारत ने आखिरकार कांस्य पदक जीता, लेकिन सेमीफाइनल में हार ने पूरे संसारपुर को शोक में डुबो दिया.” “टीम के प्रसिद्ध पांच खिलाड़ी – कर्नल बलबीर, बलबीर (पंजाब पुलिस), जगजीत, अजीतपाल और तरसेम,  जो संसारपुर गांव से थे और अपने साथ कांस्य पदक लेकर आए थे, वे इस गांव में पैर रखने से डरते थे. हॉकी और भारतीय टीम की किस्मत से गांव का लगाव इतना गहरा था कि उन्हें डर था कि कहीं कोई बुरा असर न हो जाए.” लेखक लिखते हैं, “ओलंपिक में तीसरे स्थान पर आना हमारे लिए बहुत बड़ा झटका था, भारत लौटने के बाद हम गांव लौटने से डरते थे. जब हम आखिरकार घर गए, तो हमारे माता-पिता भी नाराज़ हो गए. उन्होंने हमसे पूछा कि क्या हमने हॉकी खेलना इसी तरह सीखा था.” 


संसारपुर में मेजर ध्यानचंद के साथ बिताई एक शाम 


मेजर ध्यानचंद के अनुरोध पर लेखक ने संसारपुर के कुछ दिग्गज हॉकी खिलाड़ियों को आमंत्रित किया, जिन्होंने 1930 के दशक में उनके साथ नेटिव हॉकी टूर्नामेंट में खेला था. सभी एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. उनके पिता और उनके गांव के अन्य चार खिलाड़ी 5/13 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट का हिस्सा थे, जिसने प्रत्येक मुकाबले के फाइनल में दो बार ध्यानचंद की पंजाब रेजिमेंट टीम को हराया था. चर्चा के दौरान, हॉकी के महान जादूगर, आत्मीय और बेहद संवेदनशील इंसान ध्यानचंद ने बार-बार उस खेल को सामने लाने का प्रयास किया. 5/13 एफएफ टीम के खेल की प्रशंसा की, खासकर सरदार मोहन सिंह की. उन्होंने जोर देकर बोला ‘मोहनी’ (जैसा वे उन्हें प्यार से बुलाते थे) ने उनसे (ध्यानचंद) बेहतर खेला. यह थी मेजर ध्यानचंद की विशेषता. 

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें