Rahul-Gandhi : लोकतंत्र में प्रतिपक्ष के नेता की अहम भूमिका होती है. अगर वह विदेश के दौरे पर हो, तो उस देश के साथ स्थापित संवाद की अहमियत को नाकारा नहीं जा सकता. इसलिए राहुल गांधी की अमेरिकी यात्रा को विदेश नीति के आईने से समझना जरूरी है. यात्रा के लिए अमेरिका को पहले चुनना शायद उनकी व्यक्तिगत राजनीतिक पसंद हो सकती है. अन्य कारण भी हो सकते हैं. यहां महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने किससे मुलाकात की और क्या कहा. वे कई सांसदों से मिले, जिनमें इल्हान ओमर भी थीं. इल्हान की पहचान इसलिए भी है कि वे घोर भारत विरोधी है और पाकिस्तान की तरफदारी करती हैं. कश्मीर पर उनके बयान देखे जा सकते हैं. विवाद का कारण मुलाकात तक सीमित होता, तो बात कुछ और होती.
राहुल गांधी ने दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों में अपने संबोधन में सिख समुदाय का उदाहरण देते हुए कहा कि भारत में उनकी धार्मिक आजादी छीनी जा रही है और राज्यों के बीच मतभेद पैदा किया जा रहा है यानी संघवाद की बुनियाद तोड़ी जा रही है. धार्मिक उन्माद को हवा देने की कोशिश की जा रही है, भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है. जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में तानाशाही चल रही है. ये सब बातें राहुल गांधी और अन्य नेता भारत में भी कहते रहे हैं. ऐसी बातों के लिए मीडिया में राहुल गांधी की खूब प्रशंसा भी हुई थी, लेकिन यहां विदेशी धरती का मामला था. सवाल किसी दल नहीं, बल्कि देश का था.
इसलिए इस यात्रा के असर की चर्चा जरूरी है. क्या यह अनायास ही हुआ है या इसके पीछे कोई राजनीतिक हित या शक्ति है? क्या भारत की बेहतर छवि बनाने का काम केवल सत्ता पक्ष का है या अन्य दलों की भी भूमिका होनी चाहिए? क्या लोकतंत्र की तराजू पर अमेरिकी सिक्का इतना खरा है कि उसका अनुसरण भारत में एक कार्बन कॉपी के रूप में किया जाना चाहिए? राहुल गांधी ने बांग्लादेश और पाकिस्तान के संदर्भ में बहुत बातें नहीं कीं और यह भी कहा कि वे इस मुद्दे पर सरकार के साथ हैं. उन्होंने बांग्लादेश में हुए तख्तापलट में अमेरिका की भूमिका की चर्चा नहीं की.
चीन के संदर्भ में उन्होंने भारत की भूमि पर कब्जा करने और आक्रामक रुख की बात कही. यह भी माना कि चीन को ठिकाने लगाने में भारत और अमेरिका का सहयोग मददगार होगा. अगर अमेरिकी विदेश नीति और शक्ति की चर्चा करें, तो उसमें सॉफ्ट पॉवर की बहुत अहम भूमिका है. भारत के संदर्भ में केवल थिंक टैंक की चर्चा जरूरी है. हार्वर्ड कैनेडी स्कूल जाना-माना नाम है. दुनियाभर से लोग वहां से डिग्री लेने के लिए लालायित रहते हैं. वहां भारत से संबंधित विषयों की पढ़ाई भी होती है. सैकड़ों की संख्या में हर वर्ष फेलोशिप दिये जाते हैं, जिनसे ऐसे शोधों की शुरुआत होती है, जिनमें यह स्थापित करने की कोशिश होती है कि भारत खंडहर में तब्दील हो रहा है.
पचास के दशक में भारत मदारियों और भिखारियों का देश था, पर 1990 के बाद भारत की तस्वीर एक कंप्यूटरयुक्त गुणवान देश में बदल गयी. विदेशी, विशेषकर अमेरिकी, थिंक टैंकों को यह बात चुभने लगी. उन्होंने पैंतरा बदला और भारत की जाति व्यवस्था को अमेरिका के रंगभेद से जोड़ दिया. सांप्रदायिकता की नयी परिभाषा दे दी. कई भारतीय विद्वान भी हैं, जो फेलोशिप के जरिये अमेरिका में रच-बस गये. उनके लेखों और किताबों से भारत में नैरेटिव बनाया जाता है और फिर उसे राजनीति में इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे विद्वानों की लंबी सूची है, जिसकी महीन व्याख्या राजीव मल्होत्रा ने अपनी नयी पुस्तक ‘स्नैक्स इन गांगेस’ में की है.
क्या अमेरिका लोकतंत्र का मसीहा है? साल 2021 और 2023 में अमेरिका ने लोकतंत्र पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें पाकिस्तान को बुलाया गया, लेकिन बांग्लादेश को नहीं. जब दो साल पहले कर्नाटक में हिजाब विवाद उठा, तो अमेरिकी थिंक टैंकों में खूब चर्चा हुई, पर वही जब फ्रांस, डेनमार्क, ऑस्ट्रिया और अन्य यूरोपीय देशों में हुआ, तो अमेरिका चुप रहा. ऐसे कई उदाहरण हैं. भारत के अंदरूनी मसलों पर अमेरिकी व्यवस्था आग उगलती है, उसकी जलन भारत में महसूस होती है, क्योंकि पूरा इको तंत्र स्थापित है. पाठ्य पुस्तक तक उसकी भरपूर हिमायत करते हैं. तकनीक के जमाने में बात सीमेंट की तरह जम जाती है.
तीसरा सबसे अहम प्रश्न है कि क्या भारत की अंदरूनी समस्या का हल बाहरी व्याख्या से हो सकती है या देश के भीतर के विमर्श से. भारतीय लोकतंत्र में कई बीमारियां है, इससे किसी को इंकार नहीं है. समाज जाति में बंटा हुआ है और सांप्रदायिकता का खतरा भी है. गरीबी और अमीरी की खाई भी बढ़ती जा रही है, लेकिन ये तमाम खामियां अमेरिकी समाज में भी है. भारत के साथ एक बौद्धिक लड़ाई दशकों से चल रही है, जिसका केंद्र अमेरिका और यूरोप के देश हैं. चूंकि भारतीय मानस में आज भी घुन लगा हुआ और एक ग्रंथि पल रही है कि अंग्रेजी भाषा में, वह भी अमेरिकी तंत्र से, लिखी गयी बात सच ही होती है. इस ग्रंथि को तोड़ना जरूरी है. इस दिशा में पिछले कुछ वर्षों में कोशिश हुई है, पर औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति के लिए बहुत कुछ होना बाकी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)